कसौटी पर नई फिल्म नीति

By: Jun 6th, 2019 12:05 am

राजेंद्र राजन

फिल्म समीक्षक

विभाग के विगत अनुभव से आशा की किरण तो जगी ही है, लेकिन फिल्मों के लिए ग्रांट जारी करने व फिल्मों में गुणवत्ता के उच्च आधार को बनाए रखने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि मानीटरिंग कमेटी में योग्य व दक्ष विशेषज्ञ हों और राजनीतिक दखलअंदाजी कतई बर्दाश्त न हो। हिमाचल के भाषा विभाग ने हाल के सालों में फिल्म निर्माण के लिए 30 लाख रुपए बांटे थे, मगर बताते हैं कि ज्यादातर फिल्में तो बनी ही नहीं और जो एकाध बनी, वह ‘पेनड्राइव’ या ‘डीवीडी फारमेट्स’ में विभाग की अलमारियों में बंद हैं। भाषा विभाग को सूचना विभाग से सीखने की आवश्यकता है…

धर्मशाला में प्रस्तावित ‘इन्वेस्टर्स मीट’ से पूर्व हिमाचल प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल द्वारा ‘फिल्म पालिसी’ पर मुहर लगना किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। खासकर फिल्म निर्माण में संघर्षशील वे कलाकार तो निश्चित रूप से प्रसन्न होंगे, जो जुगाड़ पर वित्तीय संसाधन जुटाते हैं और क्रिएटिविटी को धरातल पर लाने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। सरकार अब उन्हें संसाधन जुटाकर उनकी फिल्मों को ‘स्पांसर’ करेगी। सूबे के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने ‘फिल्म पालिसी’ के प्रारूप के विस्तृत व व्यापक दस्तावेज को अंतिम रूप देने में बखूबी अपना दायित्व निभाया है। इस परिकल्पना को साकार करने में लेखक व साहित्य प्रेमी एवं मुख्य सचिव बृज कुमार अग्रवाल व प्रधान सचिव श्रीकांत बाल्दी के प्रयास प्रशंसनीय हैं। सामाजिक जागरूकता व सांस्कृतिक नवजागरण में फिल्मों का योगदान-भूमिका सर्वाेपरि रही है। फिल्म पालिसी का मूल उद्देश्य हिमाचल में फिल्म निर्माण के लिए अनुकूल, सकारात्मक व सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण करना है। यहां की संस्कृति, इतिहास, धरोहर आदि लघु, फीचर व दस्तावेजी फिल्मों के माध्यम से देश व देश के बाहर वृहद व सुधी फिल्म दर्शकों व ‘फिल्म लवर्स’ तक पहुंचे, इसे हकीकत में बदलने के लिए फिल्म प्रोड्यूसर्स को वित्तीय सहायता पैकेज के अलावा प्रशासकीय सहायता भी उपलब्ध होगी। फिल्म पुरस्कारों की स्थापना के साथ-साथ सरकार एनजीओ व फिल्म सोसायटियों के सहयोग से फिल्म समारोहों का आयोजन भी करेगी, ताकि फिल्मों की स्क्रीनिंग के लिए माकूल मंच उपलब्ध हों।

प्रदेश में ‘मल्टीप्लैक्स कल्चर’ को विकसित करना व बंद पड़े सिनेमाघरों को पुनः खोलना आदि अनेक ऐसी योजनाएं हैं, जो हिमाचल सरकार की ‘फिल्म नीति’ को अन्य प्रांतों से अलग करती हैं। यह सार्थक व कल्पनाशीलता का पर्याय प्रतीत होती है। फिल्म सिटी की स्थापना एक अन्य अहम बिंदु है, जो बार-बार मीडिया में सुर्खियां बनता रहा है। हिमाचली डॉयलेक्ट अर्थात बोलियों में उच्च गुणवत्ता या उत्कृष्ट फिल्म के लिए 50 लाख तक की ग्रांट दी जाएगी। बशर्ते फिल्म की 75 प्रतिशत आउटडोर शूटिंग हिमाचल में ही हो और कलाकार भी हिमाचल से ही हों। इस नीति का एक और चकित करने वाला पहलू यह है कि हिंदी व अंग्रेजी माध्यम में बड़ी फीचर फिल्मों के निर्माण के लिए दो करोड़ की ग्रांट का प्रावधान है। अनुग्रह राशि पर राइडर भी हैं और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए यह बेहद जरूरी भी हैं। यह ग्रांट उसी फिल्म प्रोड्यूसर को दी जा सकेगी, जिसकी तीन बड़ी फिल्में सुपरहिट रही हों, 50 प्रतिशत शूटिंग हिमाचल में हो और तीन लीड कलाकार भी यहीं से ताल्लुक रखते हों। कलाकारों को फिल्मों में काम करने के लिए समुचित पारिश्रामिक व फीस मिले, इसके लिए फिल्म पालिसी में 25 लाख का अतिरिक्त प्रावधान भी है। सामाजिक सरोकारों व ज्वलंत मुद्दों को फोकस में लाने के लिए बनने वाली शॉर्ट फिल्मों को दस लाख रुपए तक की ग्रांट का प्रोविजन भी है। शर्त यह है कि 75 प्रतिशत शूटिंग हिमाचल में ही हो। बेशुमार प्रोत्साहनों से लवरेज इस नीति में ‘फिल्म यूनिट्स’ को हिमाचल सरकार के टूरिज्म होटलों में ‘रूम टैरिफ’ पर 30 प्रतिशत की छूट उपलब्ध होगी। कलाकार प्रोत्साहन योजना के तहत विभिन्न ‘फिल्म प्रशिक्षण संस्थानों’ में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को 75 हजार रुपए तक की स्कॉलरशिप का भी प्रावधान किया गया है। इन बेहिसाब योजनाओं  को कागज से उतारकर धरातल पर लाने के लिए हिमाचल प्रदेश फिल्म विकास परिषद का शीघ्र ही गठन होगा। फिल्म पालिसी के तहत लागू की जाने वाली सभी योजनाओं का नोडल व मूल विभाग सूचना एवं जनसंपर्क ही है।

विभाग ने गत 30 सालों में सचिवालय में ही करोड़ों की लागत से एक बड़े स्टूडियो सेटअप का निर्माण किया है। विभाग के विगत अनुभव से आशा की किरण तो जगी ही है, लेकिन फिल्मों के लिए ग्रांट जारी करने व फिल्मों में गुणवत्ता के उच्च आधार को बनाए रखने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि मानीटरिंग कमेटी में योग्य व दक्ष विशेषज्ञ हों और राजनीतिक दखलअंदाजी कतई बर्दाश्त न हो। हिमाचल के भाषा विभाग ने हाल के सालों में फिल्म निर्माण के लिए 30 लाख रुपए बांटे थे, मगर बताते हैं कि ज्यादातर फिल्में तो बनी ही नहीं और जो एकाध बनी, वह ‘पेनड्राइव’ या ‘डीवीडी फारमेट्स’ में विभाग की अलमारियों में बंद हैं। भाषा विभाग को सूचना विभाग से सीखने की आवश्यकता है। निश्चित रूप से प्रदेश सरकार की इस अनूठी पहल का स्वागत हो रहा है और फिल्म जैसे ‘क्रिएटिव मीडियम’ के लिए यह नए बैंचमार्क स्थापित करेगी।

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखको से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे। 

-संपादक


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