खतरे में वन नहीं, वनाश्रितों का वजूद है

By: Jun 12th, 2019 12:05 am

मवेरिक रोशन

लेखक, सुंदरनगर से हैं

हिमाचल सहित देश के अन्य राज्यों में मई और जून महीने में अकसर जंगल आग की चपेट में आ जाते हैं और प्रतिवर्ष सरकारी आंकड़ों के अनुसार अरबों रुपए की संपत्ति राख में बदल जाती है। इस प्रकार  जीव-जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। हिमाचल के जंगलों में आग की घटनाएं हो रही हैं। प्रशासन के पास इन परिस्थितियों से निपटने के प्रभावी उपाय नहीं हैं, जिसका कारण जंगलों का दुर्गम और पहाड़ी क्षेत्रों में होना है। नागरिकों का वनों के महत्त्व को कम आंकना, अन्य गैर सरकारी संगठनों का इसमें रुचि न लेना, पर्याप्त साधनों का अभाव आदि मुख्य कारणों में से हैं….

वन हमारी अमूल्य धरोहर हैं, वन ही जीवन हैं, इन शब्दों की गहराई को आज हमें यथार्थ में  समझने की आवश्यकता है। इस तथ्य से हम विमुख नहीं हो सकते कि वनों का हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक गहरा संबंध है। हमने इनका सदियों से बिना योजना बनाए निवास स्थान, खेतीबाड़ी, ईंधन, औद्योगिक विकास, जानवरों के चारे के रूप में और भवन निर्माण आदि के लिए अपनी सुविधा के मुताबिक उपयोग किया है। वन वर्षा लाने, बाढ़ को नियंत्रित करने,  मिट्टी के संरक्षण, भूमिगत पानी के स्तर को बनाए रखने, हवा को स्वच्छ रखने, मिट्टी की सतह को बहने से रोकने में कुदरती तौर पर मदद करते हैं। मिट्टी का निर्माण एक धीमी प्रक्रिया है। वैज्ञानिकों का मत है कि मिट्टी के एक इंच कैप/ 2.5 सेंटीमीटर के निर्माण में 500 से 1000 साल तक का समय लग जाता है। संसार में 50,000  वर्ग मील वन प्रतिदिन अपना हरा आवरण खो रहे हैं, जो कि खतरे का सूचक है।

पृथ्वी के अंदर मौजूद रेडियोधर्मी तत्त्व भी धरती के ताप को बढ़ाते हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलेगा। अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड और हिमखंडों की बर्फ पिघलना शुरू हो जाएगी। समुद्र का जल स्तर बढ़ जाएगा, जिससे तटीय क्षेत्र पानी में डूब जाएंगे। यदि हम प्रकृति को बचाना चाहते हैं, तो वनों को बचाना जरूरी है। अन्यथा हम किसी भी प्रकार से पृथ्वी को सुरक्षित नहीं रख सकते। भारत उन चंद मुल्कों की श्रेणी में है, जिनकी 1894 से फारेस्ट पालिसी है। ‘वन नीति’- स्टेट फारेस्ट ऑफ इंडिया 2013 के मुताबिक भारत के जंगलों और पेड़ों से ढकी धरती का क्षेत्रफल 78.92 मिलियन हेक्टेयर है, जो कि हमारे कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.09 फीसदी है। राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार  हिमाचल जैसे पहाड़ी इलाके में सुरक्षात्मक और उत्पादक दोनों कार्यों के लिए  60 प्रतिशत जंगलों का होना जरूरी है। हिमाचल प्रदेश का 36,986 वर्ग किलोमीटर इलाका वन श्रेणी में आता है, जो कुल क्षेत्रफल का 66.4 फीसदी है। 1988 की ‘फारेस्ट पलिसी’ का मुख्य उद्देश्य वनों का बचाव, संरक्षण और विकास करना है। हिमाचल ने 1980 में ‘राष्ट्रीय वन नीति’ 1952 की बनावट को संशोधित किया। इस नई नीति के अनुसार 2000 तक कम से कम 50 फीसदी इलाका जंगल के दायरे में आ जाना चाहिए था। इसके लिए 20 साल की योजना बनाई गई थी। इन 20 सालों में काफी धन इस योजना में लगाया गया, परंतु प्रदेश में जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए पेड़ों को काटा गया, जिससे लगभग जंगल उतने ही रहे, जितने पहले थे। हिमाचल सहित देश के अन्य राज्यों में मई और जून महीने में अकसर जंगल आग की चपेट में आ जाते हैं और प्रतिवर्ष सरकारी आंकड़ों के अनुसार अरबों रुपए की संपत्ति राख में बदल जाती है। इस प्रकार  जीव-जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। हिमाचल के जंगलों में आग की घटनाएं हो रही हैं। प्रशासन के पास इन परिस्थितियों से निपटने के प्रभावी उपाय नहीं हैं, जिसका कारण जंगलों का दुर्गम और पहाड़ी क्षेत्रों में होना है। नागरिकों का वनों के महत्त्व को कम आंकना, अन्य गैर सरकारी संगठनों का इसमें रुचि न लेना, पर्याप्त साधनों का अभाव आदि मुख्य कारणों में से हैं। सिर्फ सामूहिक जानकारी और सहयोग से ही हम इस पर नियंत्रण रख सकते हैं। आग लगने के लिए तीन आधारभूत चीजें ऊष्मा, ईंधन और ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। यह एक रासायनिक प्रक्रिया है। यदि इनमें से किसी एक अवयव को हटा दिया जाए, तो आग को काबू किया जा सकता है। जंगल में आग किन कारणों से लगती है, उन पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है।

जंगलों की आग के लिए एक ओर जहां प्राकृतिक तौर पर बिजली का चमकना, चट्टानों की स्लाइडिंग जैसे कारण भूमिका निभा सकते हैं, तो वहीं दूसरी ओर मनुष्य द्वारा उत्पन्न कैंप फायर व जलती हुई बीड़ी-सिगरेट के अवशेष भी इसका कारण हो सकते हैं। कई स्थानों पर यह बात भी उजागर हुई है कि कई बार स्थानीय लोग घास की अधिक पैदावार के लिए भी जंगलों को आग के हवाले कर  देते हैं। जंगल में ईंधन का कार्य आमतौर पर सूखी घास, पेड़ों से गिरे पत्ते, झाडि़यां आदि हैं, जो बड़ी तेजी से हवा के कारण आग को फैलाते हैं। प्रशासन को चाहिए कि संवेदनशील इलाके चिन्हित कर पहाड़ी क्षेत्रों और जंगलों के आसपास मौजूद प्राकृतिक स्रोतों के पानी को जलाशय के रूप में एकत्रित कर इस प्रकार की स्थिति से निपटने के लिए योजना बनाए। पानी का संग्रहण जंगली जीव-जंतुओं के लिए भी उपयोगी होगा। ईंधन के रूप में जंगलों में  फैले पत्ते, झाडि़यां, घास आदि को हम प्राकृतिक खाद बनाने के लिए उपयोग में ला सकते हैं, वहीं इन पर शोध करके नई उपयोगी चीजों के लिए विकसित किया जा सकता है।

सरकारी  तंत्र और वन विभाग के कर्मचारी विस्तृत क्षेत्र होने के कारण हर समय सभी घटनाओं पर नजर नहीं रख सकते, लेकिन आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से इलाके और कर्मचारियों के कार्य पर निगरानी रख सकते हैं। समय-समय पर लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाना भी लाजिमी है। वनों को बचाना प्रशासन या वन विभाग का ही कार्य नहीं, अपितु समस्त मानव जाति का प्राथमिक कर्त्तव्य है। सभी को मिलकर जीवनदायी वनों,  अमूल्य जीव-जंतुओं को सुरक्षित रखने के लिए सहयोग देना होगा, ताकि हम पृथ्वी को सुरक्षित और स्वच्छ रख सकें। वनों के बिना  जीवन की कल्पना महज कल्पना ही रह जाएगी।


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