गृहमंत्री का ‘मिशन कश्मीर’
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के लिए कश्मीर प्रतिबद्धता और प्राथमिकता का मुद्दा है, बल्कि इसे ‘मिशन’ मानना चाहिए। उसकी अलग-अलग, खौफजदा व्याख्याएं की जा रही हैं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। चुनाव आयोग के संकेत हैं कि जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ यात्रा के बाद विधानसभा चुनावों का ऐलान किया जा सकता है। उससे पहले केंद्र सरकार कश्मीर में चुनाव-क्षेत्रों का परिसीमन कराना चाहती है, क्योंकि 1995 के बाद ऐसा नहीं किया गया है। देश के ज्यादातर राज्यों में परिसीमन की प्रक्रिया कभी की पूरी हो चुकी है। केंद्र की मोदी सरकार जम्मू और लद्दाख को उचित प्रतिनिधित्व देने की पक्षधर है। सबसे गौरतलब यह है कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 35-ए की समाप्ति भी ‘मिशन’ का हिस्सा है। फिलहाल यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। एक विडंबना है कि जिस राज्य में ‘एक प्रधान, एक विधान, एक निशान’ का आंदोलन चलाते जनसंघ के संस्थापक नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का रहस्यमय देहांत हुआ था, उसी राज्य में संसद और सुप्रीम कोर्ट के भी सीमित अधिकार हैं। कई संदर्भों में सर्वोच्च अदालत के फैसले मान्य ही नहीं हैं। इसके अलावा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक आदि से जुड़े कानून जम्मू-कश्मीर में मान्य ही नहीं हैं। पंचायतों को सीमित अधिकार हैं। चपरासी को आज भी 2500 रुपए माहवार का वेतन मिलता है। कश्मीर में बसे पाकिस्तानियों को भारतीय नागरिकता भी हासिल है। भारत के राष्ट्रध्वज और अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान कोई अपराध नहीं हैं। भारत के साथ-साथ कश्मीर की नागरिकता भी अनिवार्य है। बेशक अब शिद्दत से ये सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन मौजूदा सवाल यह है कि क्या जम्मू-कश्मीर एक अलग देश है? क्या इन भिन्न प्रावधानों के मद्देनजर ‘मिशन’ लाजिमी नहीं हो गया है? मोदी सरकार कश्मीर में 35-ए का एकाधिकार इसलिए भी खत्म करना चाहती है, ताकि सज्जन जिंदल, अंबानी, अडाणी सरीखे उद्योगपति कश्मीर में उद्योग स्थापित कर सकें और स्थानीय नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर पैदा हो सकें। सज्जन का औद्योगिक दखल पाकिस्तान में भी रहा है। उन्हें वहां के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के कारोबार में साझेदार बताया जाता था। आज की स्थिति स्पष्ट नहीं है। अनुच्छेद 35-ए कश्मीर से बाहर की किसी भी गतिविधि और औद्योगिक दखल को रोकता है। बाहर के लोग वहां कुछ भी नहीं कर सकते। कश्मीर का मिशन इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ईद जैसे पाक मौके पर पत्थरबाजों ने श्रीनगर में सुरक्षा बलों पर पत्थर चलाए, पुलवामा में आतंकियों ने एक महिला की हत्या कर दी, पाकिस्तान का झंडा और पोस्टर अकसर लहराए जाते हैं। मोदी सरकार वहां आतंकवाद का समूल नाश करने को प्रतिबद्ध है। इसी साल तीन जून तक 103 आतंकी मारे जा चुके हैं। शेष की सूची तैयार है। आतंकियों के हमदर्द अलगाववादियों पर भी कड़ी कार्रवाई जारी है। कुछ को जेल में ठूंसा जा चुका है और कुछ राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की निगरानी में हैं। ‘मिशन’ का हिस्सा यह भी है कि गृहमंत्री कश्मीर में चुनाव से पहले ‘अच्छी तरह सफाई’ करवा लेना चाहते हैं। मोदी सरकार सिखों और अल्पसंख्यक हिंदुओं को 16 फीसदी आरक्षण देने पर भी विचार कर रही है, ताकि वे मुखर होकर कश्मीर की मुख्यधारा में सक्रिय हो सकें। समूचा कश्मीर ‘नरक’ नहीं बना है। यह ‘नरक’ और पाकपरस्त लड़ाई सिर्फ दो-तीन जिलों तक ही सीमित है। ‘खानदानी नेता’ अपनी सियासत के लिए उस ‘नरक’ को और ज्यादा भयावह बनाते रहे हैं। अब उस सियासत पर भी प्रहार करने का वक्त आ गया है। सवाल यह है कि कश्मीर में महिलाओं के लिए शरियत कानून क्यों है? जबकि समूचे देश में संविधान का कानून लागू और स्वीकार्य है। मोदी सरकार राज्य के मेधावी छात्रों को शेष राष्ट्र के हिस्सों से भी जोड़ना चाहती है। ऐसे छात्रों को सरकार ने आर्थिक मदद दी है और वे कई शहर घूमकर तथा देश की संस्कृति-प्राचीन विरासत को देखकर लौटे हैं। जिन कश्मीरी छात्रों ने अपनी मेहनत से आईआईटी में प्रवेश पाया है, वे खुद को मुख्यधारा का हिस्सा महसूस कर रहे होंगे। किसी इलाके की एक निश्चित सोच और मानस को बदलने के लिए वाकई एक ‘मिशन’ जरूरी होता है और गृहमंत्री के तौर पर अमित शाह ने उसकी शुरुआत की है। देखते हैं, उसके परिणाम क्या निकलते हैं।
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