जीवन का सदुपयोग

By: Jun 15th, 2019 12:05 am

श्रीराम शर्मा

इस संसार में मानव जीवन से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। एकमात्र मानव जीवन ही वह अवसर है, जिसमें मनुष्य जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। इसका सदुपयोग मनुष्य को कल्पवृक्ष की भांति फलीभूत होता है। जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव जीवन को पाकर उसे सुचारू रूप से संचालित करने की कला नहीं जानता है अथवा उसे जानने में प्रमाद करता है, तो यह उसका एक बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है, जिसमें परमात्मा ने सारी विभूतियां बीज रूप में रख दी है, जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किंतु इन विभूतियों का विकास होता तभी है, जब जीवन का व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाए। अन्यथा अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है जो विभूतियों के स्थान पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।  जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे अपनाकर चलने पर ही इसमें वांछित फलों की उपलब्धि की जा सकती है। अन्यथा इसकी भी वही गति होती है, जो अन्य पशु प्राणियों की होती है। जीवन को सुचारू रूप से चलाने की वह वैज्ञानिक पद्धति एकमात्र अध्यात्म ही है। जिसे जीवन जीने की कला भी कहा जा सकता है। इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य जीवन को अस्त-व्यस्त ढंग से बिताता रहता है। उसे, उनमें से कोई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले पड़े है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिनके अंतर्गत आदि से लेकर अंत तक की सारी सफलताएं सन्निहित है, इसी जीवन कला के आधार पर ही तो मिलते है। सामान्य लोगों के बीच प्रायः यह भ्रम फैला हुआ है कि अध्यात्मवाद का लौकिक जीवन से कोई संबंध नहीं है। वह तो योगी तपस्वियों का क्षेत्र है, जो जीवन में दैवी वरदान प्राप्त करना चाहते है। जो सांसारिक जीवनयापन करना चाहते है। घर-बार बसाकर रहना चाहते है, उनसे अध्यात्म का संबंध नहीं। इसी भ्रम के कारण बहुत से गृहस्थ भी जो दैवी वरदान की लालसा के फेर में पड़ जाते है, अध्यात्म मार्ग पर चलने का प्रयत्न करते है। किंतु अध्यात्म का सही अर्थ न जानने के कारण थोड़ा सा पूजा-पाठ कर लेने को ही अध्यात्म मान लेते है। यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने से उसकी साधना करने से दैवी वरदान भी मिलते है और ऋद्धि-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। किंतु वह उच्च स्तरीय सूक्ष्म साधना का फल है। कुछ दिनों पूजा-पाठ करने अथवा जीवन भर यूं ही कार्यक्रम के अंतर्गत पूजा करते रहने पर भी ऋषियों वाला ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उस स्तर की साधना कुछ भिन्न प्रकार की होती है। वह सर्व सामान्य लोगों के लिए संभव नहीं। उन्हें इस तपसाध्य अध्यात्म में न पड़कर अपने आवश्यक कर्त्तव्यों में ही आध्यात्मिक निष्ठा रखकर जीवन को आगे बढ़ाते रहना चाहिए। उनके साधारण पूजा-पाठ का जो कि जीवन  का एक अनिवार्य अंग होना चाहिए जिससे अपनी तरह से लाभ मिलता रहेगा।


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