धरोहर की धरती पर

By: Jun 26th, 2019 12:05 am

धरोहर व सांस्कृतिक पर्यटन की तड़प में हिमाचल की राजसी वंशावलियां अब अगर इसी प्रारूप में अपने अतीत को रेखांकित करने की कोशिश कर रही हैं, तो सरकार को इसे पर्यटन के नए सहयोग से जोड़ना होगा। अतीत के त्रिगर्त को नए पर्यटन की खुशबू से जोड़ने की एक कोशिश पुराने राजपरिवारों में एक समूह के रूप में शुरू हुई है और इसकी मांग में कांगड़ा किले में स्थित मंदिर परिसर की पहचान सामने आई है। कांगड़ा किले के धरोहर मूल्य को सही मायने में पर्यटक के सामने रखा ही नहीं गया। कुछ इसी तरह सुजानपुर, मसरूर, रामपुर बुशहर, नाहन और गरली-परागपुर जैसे अन्य कई स्थल हैं, जो अपने इतिहास, वास्तुकला या धरोहर जिज्ञासा के कारण एक अद्भुत संसार पैदा करते हैं। या तो पुरातन विभाग के साथ तालमेल की कमी रही या योजनाओं के माध्यम से इन क्षेत्रों में पर्यटन को प्रासंगिक बनाने के प्रयत्न नहीं हुए, वरना ऐसे कई पहलू हैं, जो हिमाचल आने वालों के लिए कौतुक भर देते हैं। सिरमौर, शिमला, चंबा या कबाइली इलाकों में कितने ही ऐसे गांव हैं, जहां सामुदायिक शिष्टाचार, पारंपरिक वास्तुशैली और जीवन की सादगी सैलानियों के लिए इतिहास में लौटने की जीवंतता है। पर्यटन की राह पर गुजरते निजी आयोजनों की संगत ढूंढी जाए, तो देश की चर्चित शादियों के आयोजन स्थल के रूप में हिमाचल की विरासत सारा परिदृश्य बदल सकती है। हिमाचल के रीति-रिवाजों पर अगर पर्यटन को केंद्रित करें, तो जनजातीय क्षेत्रों के अनुभव को जीवन में ओढ़ने के इवेंट शुरू हो सकते हैं। लाहुल-स्पीति, पांगी, भरमौर या किन्नौर के पर्यटन में लोकसंस्कृति का पैकेज सामने आए, तो रोमांच के कदमों पर कई तरह के निजी आयोजन बारात बनकर आएंगे। अगर राजस्थान के रेगिस्तान में डेस्टीनेशन शादियां आय का स्रोत बन रही हैं, तो हिमाचल की परंपराओं में पर्यटन शादियों के मंडप सज सकते हैं। विडंबना यह रही कि सांस्कृतिक आयोजन केवल सियासी आलिंगन में अपना यथार्थ खो रहे हैं। लोहड़ी की खास परंपरा में गरली-परागपुर के अंगीठों में चमक आई, लेकिन राजनीति ने संभावना का कक्ष ही चुरा लिया। मात्र एक बार कांगड़ा किले में त्रिगर्त उत्सव मनाकर, सरकारें कहां चली गईं। मसरूर समारोह भी एक बार अजंता-एलोरा की तर्ज पर पर्यटन से जुड़ गया, लेकिन बाद में कोई इसे बचाने नहीं आया। पुराना कांगड़ा का वसंत उत्सव या धृतमंडप समारोह को अगर मुख्य आकर्षण बनाएं, तो परंपराएं कभी खाली नहीं होंगी। जिस मांग को उठाकर राजपरिवार कांगड़ा किले की पर्यटन संभावना देख रहे हैं, ठीक उसी तरह हर गांव भी अपनी विविधता में अतीत का नूर समाए है। ऐसे में ग्रामीण पर्यटन की तिजोरी भरनी है, तो ‘हर गांव कुछ कहता है’ की तर्ज पर आलेख, अधोसंरचना व व्यवस्था खड़ी करनी होगी। सुजानपुर के चौगान की पैमाइश अगर पर्यटन के फीते से हो जाए, तो गतिविधियों का समावेश इतिहास को नजदीक ले आएगा। कई गांव अपनी दस्तकारी तो कई अन्य हथकरघा उत्पादों के लिए सैलानियों का रुख मोड़ सकते हैं। ग्रामीण कलाओं और परंपराओं के साथ-साथ एग्रो टूरिज्म हिमाचल गंतव्य की दिशा बदल सकता है। हिमाचल में ऐसे थीम पार्क नहीं, जहां हिमाचल के अनेक पक्ष एक साथ साक्षात्कार दें या कला संग्रहालयों के साथ पर्यटन गतिविधियां जोड़ी जाएं। पर्यटक सीजन में कला संग्रहालयों के माध्यम से हिमाचल के इतिहास, लिबास, रास, संस्कार या तीज-त्योहार को पेश करने का कोई पैकेज तो हो। लोकनृत्य, संगीत या नाट्य शैलियों से उत्सव तक केवल प्रशासन की चौखट पर सियासी रोटियां बटोरते हैं, जबकि शृंखलाबद्ध मनोरंजन हिमाचल के कलाकार का पर्यटन से मिलन करा सकता है।


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