पठन-पाठन की संस्कृति का अभाव

By: Jun 2nd, 2019 12:04 am

डा. विजय विशाल

यह सही है कि आज कम्प्यूटर, इंटरनेट, टीवी चैनलों और स्मार्ट फोन वगैरह ने हमारी जिंदगी में किताबों की जगह कम कर दी है। निश्चित रूप से समाज में साहित्य के लिए स्पेस कम हुआ है। प्रिंटिंग की तकनीक में लगातार सुधार से लेखक बढ़ रहे हैं, मगर पाठक कम हो रहे हैं। यहां सवाल उठता है कि पाठक खासकर साहित्य का पाठक आता कहां से है? या कहां से आ सकता है? निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर हमें शिक्षा के भीतर से ही ढूंढना पड़ेगा। हालांकि भाषा-शिक्षण में साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, फिर भी साहित्य के पाठक तैयार करने में भाषा-शिक्षण कोई अहम भूमिका नहीं निभाता। क्योंकि विभिन्न विषयों में बंटी उच्च शिक्षा विद्यार्थी के व्यक्तित्व को समग्रता में विकसित करने में अक्षम है। हालांकि मेरा यह मानना है कि स्कूली शिक्षा के समय जिस विद्यार्थी का साहित्य से जुड़ाव हो जाए, आगे चलकर उसमें साहित्य के पाठक बनने की संभावना बढ़ जाती है। दूसरा है पठन-पाठन की संस्कृति का अभाव। आज अभिभावक के लिए पढ़ाई के मायने बच्चे के कैरियर से जुड़े हैं। आज लोग हिंदी पढ़ने के बजाय अंग्रेजी पढ़ने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। ऐसे में हिंदी में नया पाठकवर्ग तैयार ही नहीं हो रहा है। इस दौरान अंग्रेजी फिक्शन की रीडरशिप शहरों में बड़ी तेजी से बढ़ी है। ऐसा हुआ है, इसीलिए चेतन भगत के उपन्यास ’हाफ  गर्लफ्रैंड’ का प्रिंट ऑर्डर बीस लाख प्रतियों तक गया है। ऐसा लगता है कि अभिजात्य वर्ग में स्थान पाने के लिए अनिवार्य बन चुकी या बना दी गई अंग्रेजी के इस खेल में हिंदी के लेखक को हाशिए से बाहर किया जा रहा है। एक हकीकत यह भी है कि साहित्य की जैसी कदर बंगाली, मलयाली और मराठी में है, वैसी हिंदी में नहीं है। हमारे मौजूदा समाज में नई पौध को साहित्य पठन-पाठन के प्रति प्रोत्साहित करने वाले कोई अभिभावक या लेखक-प्रकाशक संगठन नजर नहीं आते। आधुनिक अभिभावक अपनी संतान को स्मार्ट फोन व इंटरनेट के माघ्यम से वर्चुअल संसार तो जोड़ रहे हैं, लेकिन उसे पुस्तकों के अद्भुत, विलक्षण संसार से अवगत नहीं करवाते। दूसरी तरफ  साहित्य लेखकों की तरफ  से, प्रकाशकों की तरफ  से ऐसी कोशिशें भी नाममात्र को हैं कि साहित्य की अच्छी पुस्तकें आसानी से तथा कम कीमत में आम जनता तक पहुंच जाए। आखिर इस आम जनता से ही तो नए पाठक मिलेंगे। बड़े व मझोले नगरों को छोड़कर छोटे शहरों व कस्बों में साहित्य पुस्तकों की अनुपलब्ध्ता भी साहित्य के पाठक बढ़ाने से रोकती है। गांव-देहात की बात करना तो बेमानी है। पुस्तकालय पठन-पाठन के प्रति लगाव पैदा करने का एक साधन हो सकते हैं, मगर जिला मुख्यालयों या उच्च शिक्षण संस्थानों के अलावा शायद ही कहीं ये व्यावहारिक रूप से कार्यरत हों।

 


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