पर्यटन की कानूनी परख

By: Jun 3rd, 2019 12:06 am

हिमाचल खुद को पर्यटन राज्य माने या न माने, लेकिन इसे इस रूप में राज्य की जनता तथा बढ़ते सैलानियों की तादाद ने स्वीकार कर लिया है। जाहिर है जब पर्यटन केवल हासिल करने का जरिया ही बनेगा, तो अन्य मसले बढ़ेंगे और कानून- व्यवस्था पर दबाव आएगा। कांगड़ा बाजार में पार्किंग को लेकर दुकानदारों और पर्यटकों के बीच हुई मारपीट या मकलोडगंज में बस स्टैंड के गेट पर लगा ताला, कानून-व्यवस्था के पहरे को कमजोर करती घटनाएं हैं। इसी तरह साहसिक खेलों, ट्रैकिंग तथा जोखिम उठाते मनोरंजन के साथ-साथ कानून-व्यवस्था की छवि पर प्रहार होता है। इतना ही नहीं, पर्यटन के रास्ते आती कमाई ने अवैध निर्माण-व्यापार और आपराधिक गतिविधियों को मान्यता देनी शुरू की है। ऐसे में पर्यटन की कानून-व्यवस्था को हम सामान्य परिपाटी में नहीं देख सकते, जबकि इसके सीधे दबाव में प्रशासन तथा पुलिस महकमे की जवाबदेही ढूंढी जाती है। विडंबना यह भी है कि प्रदेश ट्रैफिक प्रबंधन के हिसाब से पुलिस प्रशिक्षण तथा इसकी माकूल तैनाती नहीं हो पा रही। कांगड़ा में पार्किंग को लेकर मारपीट की घटना नई नहीं है, बल्कि हर धार्मिक तथा पर्यटक स्थल पर अव्यवस्था के आलम लड़ाई-झगड़े होने लगे हैं। पड़ोसी राज्यों से असामाजिक तत्त्व तथा गर्मियों में यहां फेरी लगाकर कमाने वालों की संख्या के बीच उचित-अनुचित भांपने की न तो कोई प्रक्रिया है और न ही सतर्क बंदोबस्त है। खासतौर पर पर्यटक स्थलों पर तरह-तरह के औषधीय व अन्य उत्पादों की बिक्री या सेहत के नाम पर चलने वाले केंद्रों की प्रमाणिकता को जांचे परखे बिना जो धंधा चमकता है, उस पर कड़ी नजर की जरूरत है। बेशक नशे के खिलाफ पुलिस के कुछ अभियान इस दौरान खबर बनते हैं, लेकिन ऐसी अनेक गलियां हैं, जहां हिमाचल बदनाम हो जाता है। पर्यटन से जुड़े कानूनी पहलू केवल एक सीमित समीक्षा कर सकते हैं, जबकि इसकी परिधि में हिमाचल की बनावट व सजावट का प्रबंधन आवश्यक हो जाता है। कुछ दिनों बाद दोपहिया व ट्रक पर्यटन के मार्फत ऐसे आगंतुक यहां पहुंचेंगे, जिनका स्वागत तो नहीं होता, अलबत्ता अराजकता के माहौल में कानून-व्यवस्था पर प्रतिकूल टिप्पणियां हो जाती हैं। आश्चर्य यह कि इन्हें न तो हेल्मेट पहनाया जाता और न ही मालवाहक वाहनों से उतारा जाता है, जबकि बरसाती काफिलों के साथ धार्मिक रौनक में लंगरों के खतरे बढ़ जाते हैं। ऐसे में धार्मिक पर्यटन को मंदिर व्यवस्था के साथ-साथ प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में भी देखना होगा। कल तक जो श्रद्धालु प्रमुख मंदिरों की परिक्रमा करके लौट जाता था, आज वह नए गंतव्य चुनते हुए पर्यटक स्थलों की परिभाषा बदल रहा है। यानी जो छूट उसे मंदिर के बहाने मिली, उसका फायदा उठाकर वह पर्यटन उद्योग के लिए चुनौतियां पैदा कर रहा है। मसलन तीर्थ यात्री के बजटीय संतुलन में कानून की पेचीदगियां इसलिए बढ़ती हैं, क्योंकि वह परिवहन से स्वच्छता तक के मूल सिद्धांतों की अवहेलना करके चलता है और उसी मानसिकता में चर्चित हिल स्टेशनों की परंपरा, शिष्टाचार व शालीनता को उद्दंडता से चकनाचूर करता है। नतीजतन इस तरह की भीड़ को पर्यटकों की शुमारी में हम भूल जाते हैं कि उनकी वजह से क्षमतावान सैलानी प्रदेश में नहीं आता। खासतौर पर बरसाती पर्यटन ने प्रमख स्थलों से विदेशी सैलानियों को परिदृश्य से हटा दिया है। पर्यटन के ऐसे नकारात्मक पक्ष को समझने व इसके दुष्परिणामों से निजात पाने के लिए प्रदेश के प्रवेश द्वारों से ही निरीक्षण-परीक्षण के अलावा इसके संचालन की पद्धति दुरुस्त करनी होगी। यातायात नियमों तथा परिवहन की पर्वतीय शर्तों के साथ-साथ स्वच्छता के हिसाब से मानदंड व मर्यादा का पालन सुनिश्चित करने के लिए व्यवस्थागत सुधार की जरूरत है। धार्मिक पर्यटन के हिसाब से मंदिर प्रबंधन की परिपाटी को राज्यव्यापी आधार देने के लिए यह लाजिमी हो जाता है कि एक केंद्रीय ट्रस्ट या मंदिर पर्यटन विकास प्राधिकरण की रूपरेखा में ‘यात्रा की अवधारणा’ को सुनिश्चित करती अधोसंरचना पूरे प्रदेश में विकसित की जाए। पर्यटन को कानून-व्यवस्था के दायरे में देखते हुए ‘पर्यटन पुलिस’, ट्रैफिक पुलिस तथा हाई-वे पैट्रोलिंग की अहमियत बढ़ानी पड़ेगी।


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