बंधन और मोक्ष का कारण

By: Jun 1st, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव 

उनका मन आगे से आगे भागने लगा इसलिए एक क्षण आया कि मन की अतृप्ति की महाक्रांति का कारण बन गई। वाकई! जो मन का असंतोष है वही तो क्रांति बनता है, अगर मन चंचल न होता तो धन-दौलत से, महल, माडि़यों से, राज्य से, भोग से तृप्त हो जाता, वासना से तृप्त हो जाता और वहीं ठहर जाता, उलझ जाता। अब हमारा मन जो इतना चंचल है वो इसलिए है कि हम मन को उसके बैठने योग्य स्थान आज तक नहीं  दे पाए। अगर हम मन के बैठने योग्य स्थान इसे दे दें, तो  ये मन तत्क्षण बैठ जाएगा और इसकी सारी चंचलता क्षीण हो जाएगी। अतः महात्मा फरमाते हैं कि परमात्मा के अलावा मन कहीं भी नहीं बैठ सकता, परमात्मा ही मन के बैठने का सही स्थान है। इसलिए मन की हमारे पर बड़ी कृपा है कि ये चंचल है और कहीं स्थिर होकर नहीं बैठ सकता। अब वास्तविकता ये है कि मन परमात्मा के सिवाय कहीं भी बैठता नहीं। ये इसकी (मन की) अति कृपा है। अब जिस दिन मन पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा वर्तमान में बैठने की कला सीख जाता है उस दिन ही हम मन की इस कृपा को जान पाते हैं। मन ही हमें पूर्ण सद्गुरु के चरणों तक ले आया है और अगर यही मन कहीं और बैठ जाता तो हम फिर सद्गुरु के चरण कमलों में पहुंचने में असमर्थ होते।  दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ऐसे नहीं है कि पहले मन स्थिर हो जाए तो फिर परमात्मा की प्राप्ति होगी, बल्कि महात्मा फरमाते हैं कि अगर पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा परमात्मा की प्राप्ति हो जाए तो ‘मन’ एकदम स्थिर हो जाता है ः

मनु परबोधहु हरि कै नाइ, दह-दिसि धावत आवै ठाइ

ऐसी स्थिरता फिर जड़ नहीं होगी। ये स्थिरता बड़ी अद्भुत और जीवित होती है, जागरूक होती है। कबीर जी फरमाते हैं ः

माई मैं धनु पाइओ हरिनामु

मनुमेरो धावन ते छूटिओ करि बैठो बिसरामु

संपूर्ण अवतार बाणी भी फरमा रही है :

सतगुरु दी मत लै के मनुआ धीरज नूं अपनांदा ए।

सतगुर दी मत लै के मनुआ भाणे विच आ जांदा ए।।

महात्मा मानते हैं कि मन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के मध्य में है, ये शरीर का सूक्ष्म अंग है। शरीर की प्रत्येक व्यवस्था मन से जुड़ी है और ये (मन) सूक्ष्म शरीर से भी जुड़ा है। अतः मन को शरीर की तरफ से भी थोड़ी-सी खबर मिल जाती है और सूक्ष्म शरीर से भी थोड़ी झलक मिल जाती है। मन यंत्रवत है, ये न भर सकता है, न खिल सकता है। मन जल की तरह तरल है, इसलिए मन को कैसे भी ढालो ये ढल जाता है। मानो मन कोई भी निर्णय पूरा नहीं ले पाता, क्योंकि पूरा मन कभी तैयार नहीं होता। ये प्रतिफल बदलता रहता है। मन का ये स्वभाव है, ये इसकी आदत है। इसके लिए मन मनुष्य को अकेले नहीं होने देता, क्योंकि मन कुछ न कुछ पकड़ कर रखने का भी आदी है, इसलिए मन मनुष्य का दोस्त भी है और दुश्मन भी। मानो मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। अतः महात्मा फरमाते हैं कि मन चेतना के इतने निकट है कि मन को ये भ्रांति हो जाना बड़ी स्वाभाविक है कि यही सब कुछ है।


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