विवेक चूड़ामणि

By: Jun 22nd, 2019 12:05 am

गतांक से आगे…

मंदमध्यमरूपापि वैराग्येण शमादिना

प्रसादेन गुरोः सेयं प्रवृद्धा सूयते फलम्।

वह मुमुक्षता मंद और मध्यम भी हो तो भी वैराग्य तथा शमादि षट्संपत्ति और गुरुकृपा से बढ़कर फल उत्पन्न करती है।

वैराग्यं च मुमुक्षत्वं तीव्रं यस्य तु विद्यते।

तस्मन्नेवार्थवतः स्यु फुलवंतः शमादयः।।

जिस पुरुष में वैराग्य और मुमुक्षता की इच्छा तीव्र होती है, उसी (जिज्ञासु साधक) में शमादि चरितार्थ और सफल होते हैं।

एतयोर्मंदता यत्र विरक्तत्वमुमुक्षयोः।

मरौ सलिलवत्तत्र शमादेर्भासमात्रता।।

जहां इन वैराग्य और मुमुक्षत्व की मंदता है, वहां शमादि का भी मरुस्थल में जल की प्रतीती के समान आभास मात्र समझना चाहिए।

मोक्षकारणसामाग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी।

स्वस्वरूपानुसंधानं  भक्तिरित्यभिधीयते।। स्वात्मतत्त्वानुसंधानं भक्तिरित्यपरे जगुः।।

मुक्ति की कारण रूप सामग्री में भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसंधान करना ही भक्ति कहलाता है। कोई-कोई स्वात्म तत्त्व के अनुसंधान को ही भक्ति कहते हैं।

गुरुचरणों में जानाः

जिज्ञासु के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण घटना है। संसार के बंधन से उत्पन्न दुख का अनुभव करने के बाद जिज्ञासु को तलाश होती है, ऐसे व्यक्ति की जो उसे उसके लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करे, लेकिन गुरु चरणों में पहुंचने के बाद ही लाभ अधिकारी को मिलता है।

उक्तसाधनसंपन्नस्तत्त्व जिज्ञासुरात्मनः।

न उपसीदेदगुरुं प्राज्ञं  यस्माद्बंधविमोक्षणम् ।।

उक्त साधन चतुष्टय से संपन्न आत्मतत्त्व का जिज्ञासु प्राज्ञ (शास्त्रपटु तथा अनुभवी) गुरु के निकट जाए, इससे ही उसके भव बंध की निवृत्ति हो सकती है।

श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः।

ब्रह्मण्युपरतः शांतो निरिंधन इवानलः।

अहैतुकदयासिंधुर्बंधुरानमतां सताम तमाराध्य गुरुं भक्त्या प्रह्लप्रश्रयसेवनै ः प्रसन्नं तमनुप्राप्य पृच्छेज्ज्ञातव्यमात्मन ः।।

जो श्रोत्रिय हो, निष्पाप हों, कामनाओं से शून्य हों, ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो, ब्रह्मनिष्ठ हो, ईंधन रहित अग्नि के समान शांत हों, अकारण दयासिंधु हों और प्रणत (शरणापन्न) सज्जनों के बंधु (हितैषी) हों उन गुरुदेव की विनीत और विनम्र सेवा से भक्तिपूर्वक आराधना करके, उनके प्रसन्न होने पर निकट जाकर अपना ज्ञातव्य (जिस तत्त्व को वह जानना चाहता है) इस प्रकार पूछे।

स्वामिन्नमस्ते  नतलोकबंधो कारुंयसिंधो पतितं भवाब्धौ।

मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्टया ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या।।

अपनी शरण में आए हुए को स्वीकार करने वाले करुणा के सागर प्रभो! आपको नमस्कार है। भव सागर में डूबते हुए मेरा आप अपनी सरल तथा अतिशय करुणा की अमृत वर्षा करने वाली कृपा दृष्टि से उद्धार कीजिए ।

दुर्वारसंसारदवाग्नितप्तं दोधूयमानं दुरदृष्टवातै ः।

भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्यो ः।

शरण्मन्यं यदहं न जाने ।।

जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है, उस संसार दावानल से जल रहे तथा दुर्भाग्यरूपी तेज (आंधी) से बुरी तरह कांप रहे और भयभीत मुझ शरणागत की आप मृत्यु से रक्षा कीजिए, क्योंकि इस समय मैं और किसी को नहीं जानता जिसकी शरण में मैं जाऊं।


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