सेमेस्टर की राह पर स्कूल

By: Jun 5th, 2019 12:05 am

फिर शिक्षा नए प्रयोग की विधियों में खुद को पारंगत करने की जुस्तजू सरीखी हो रही है। राष्ट्रीय स्तर पर नीति के आचरण में शिक्षा जिस तरह की करवटें ले रही है, उसी के समकक्ष हिमाचल भी अपने ड्रॉफ्ट सजा रहा है। नौवीं से बारहवीं तक सेमेस्टर सिस्टम की तरफ सरकते पाठ्यक्रम की विशालता तो दिखाई दे रही है, लेकिन अध्ययन-अध्यापन की परिपाटी में काफी कुछ देखना बाकी है। धीरे-धीरे शिक्षा अपने मूल्यांकन की नई परिपाटी तैयार कर रही है और इस तरह सेमेस्टर प्रणाली कम से कम कसरत तो बढ़ाएगी, भले ही परिश्रम का खाका सुनिश्चित हो या न हो। सर्वशिक्षा अभियान की ओर मुड़ी शिक्षा ने जो सांकल खोले, वहां बिना परीक्षा छात्रों का उत्थान कुछ खोखला भी कर गया। अब पुनः पांचवीं से ही परीक्षा प्रणाली की तरफ लौटते कदम कितना खोज पाएंगे, यह भविष्य की कसौटी बताएगी। नौवीं से बारहवीं तक के आठ सेमेस्टरों की गणना और गुणवत्ता का फैसला व फासला अगर एक ही धरातल पर देखा जाएगा, तो परिणामों के कटोरे में वही हासिल होगा। सेमेस्टर की राह पर अध्ययन को ज्ञान से जोड़ने की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। बशर्ते पाठ्यक्रम के साथ अध्यापन का श्रम भी साधना बने। बेशक शिक्षकों के लिए चार साल की इंटीग्रेटिड बीएड की अनिवार्यता जुड़ रही है, लेकिन चयन प्रक्रिया की मजबूती तथा पारदर्शिता की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी। मसला वर्तमान पद्धति की सफलता-असफलता का नहीं है और न ही सेमेस्टर प्रणाली को इसके मुकाबले रामबाण माना जाएगा, बल्कि असली बदलाव तो शिक्षा की नींव को सुधारने का ही रहेगा। यानी शिक्षा से अलंकृत अध्यापन महज रोजगार या नौकरी बनकर ही न रह जाए, इसकी वचनबद्धता तथा समर्पण की भावना में भी ओजस्वी कार्यान्वयन की मर्यादा दिखाई दे, तो ही अंतर आएगा। समाज और स्कूल के बीच रिश्ता केवल परीक्षा परिणाम की औपचारिकता तक सिमट कर रह गया है, नतीजतन छात्र अपने शिक्षण संस्थान के बाहर का कहीं अधिक हो गया। उसके लिए किसी अकादमी के माध्यम से खुद को अव्वल बनाने की मजबूरी क्यों बन रही। क्या स्कूल अपने संबोधन भूल गया या जो साबित करना था, उसकी छूट शिक्षा नीतियां देती रहीं। जो भी हो सेमेस्टर प्रणाली से शिक्षा में कसाव तो आएगा या परीक्षा पद्धति लठैत नहीं बनेगी। खासतौर पर नकल की प्रवृत्ति और ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा के बीच सेमेस्टर सिस्टम अपनी ताजगी में कुछ तो परिवर्तन लाएगा। इससे छुट्टियों के अंतहीन सिलसिले कितने रुकेंगे या अनावश्यक गैर शिक्षण कार्यों में फंसे अध्यापक को कहां तक मुक्ति मिलेगी, देखना होगा। देखना यह भी होगा कि सेमेस्टर प्रणाली में शिक्षा खुद में कितनी विभागीय रोशनी देखती है और कितनी स्कूल शिक्षा बोर्ड की आमदनी में मशगूल होती है। निश्चित तौर पर शिक्षक को पहली बार विभाग चुनता है और बाद में भी स्थानांतरण ही उसका फैसला करता है। जब तक शिक्षण संस्थान या छात्र अपने लिए शिक्षक नहीं चुन पाएंगे या गुरु के रूप में शिक्षक को अपने छात्र या संस्थान चुनने की छूट नहीं होगी, नौकरी के पैबंद में लिपटे घुंघरू बजते रहेंगे। अब तो बच्चों की पीठ पर मां-बाप के अरमान सवार होते हैं, तो इसी मिकदार में स्कूल भी उनसे केवल वार्षिक परीक्षा परिणाम का पारितोषिक हासिल करना चाहता है। शिक्षा की रिहर्सल भले ही स्कूल में होती रहे, इसकी दौड़ का हिसाब निजी अकादमियों के सफल विवरण में है। नब्बे फीसदी के ऊपर की अंकतालिका अगर प्रतिस्पर्धा है, तो सेमेस्टर सिस्टम इसे कैसे रूपांतरित करेगा। नए विषयों और भविष्य के नए आधार को विकसित करने का अभिप्राय सेमेस्टर प्रणाली किस तरह जाहिर करती है, इस पर प्रस्तावित नीति की स्पष्टता होनी चाहिए।


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