स्वाभाविक ज्ञान से भटकाव

By: Jun 1st, 2019 12:03 am

एक बच्चे के मनोभाव, उसके आचरण व संपूर्ण जीवन की पृष्ठभूमि अभिभावक ही होते हैं। अभिभावकों से ही अपने जीवन की शुरुआत कर बच्चे भविष्य का सफर शुरू करते हैं, ऐसे में बच्चों के जीवन को सही राह देने में इनकी मुख्य भूमिका होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में जब अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को मां-बाप अपने बच्चे में देखने का सपना संजोते हैं, तो कहीं न कहीं वे बच्चे स्वयं की इच्छाओं को दरकिनार कर देते हैं। अपनी इच्छानुसार अभिभावकों द्वारा अपने अढ़ाई-तीन साल के बच्चों को पढ़ने अथवा अपने बचपन को भूल जाने के लिए बैग में दूध की बोतल डालकर स्कूल भेज दिया जाता है।   यह भी देखा गया है कि कई बार जब दादा-दादी बच्चे को अपनी गोद या कंधे पर बैठाकर घुमाने का सोचते हैं, तो बच्चों की पढ़ाई के हमदर्द मां-बाप को ये बुजुर्ग बच्चे के भविष्य की बाधा लगते हैं। ऐसा लगता है जैसे अभिभावक अढ़ाई-तीन साल के बच्चों को ही अक्लमंद और कक्षा का टॉपर बनाने की ओर चल पड़े हैं। अभिभावकों की बदौलत चार-पांच साल के बच्चे को ही यह पता चल जाता है कि वह बड़ा होकर क्या बनने वाला है। हो सकता है उम्र के कुछ पड़ाव बीतते ही उनकी रुचि व इच्छाएं परिवर्तित हो जाएं, परंतु फिर यह मनोपरिवर्तन अभिभावकों पर बेअसर होता है, क्योंकि बचपन से दिखाए उनके सपनों का बोझ जो बच्चों को ढोना होता है। यह सफर यहीं खत्म नहीं होता, स्कूल-कालेज में बच्चों की रुचि को परे रखकर अभिभावकों की इच्छानुसार विषयों का चयन होता है। ऐसे में छात्रों के ऊपर अभिभावकों का बढ़ता दबाव उनके स्वाभाविक हुनर तथा क्षमता के खिलाफ खड़ा हो जाता है। ज्ञान की मौलिक परिभाषा को परीक्षा के मूल्यांकन में आंकना सही नहीं और न ही नब्बे या इससे ऊपर प्रतिशत दर से सफल होने का लक्ष्य निर्धारित करना वाजिब है। अपनी इच्छाओं को बच्चों पर थोप कर अभिभावक परिवरिश की क्रूरता को आमंत्रित कर रहे हैं और साथ ही साथ असहज प्रवृत्तियों की आपाधापी में उन्हें फंसा रहे हैं। छोटे बच्चों से बचपना और बड़ों से स्वाभाविक ज्ञान की दिशा छीन कर अभिभावक शिक्षा के मूल्यों का भी हृस कर रहे हैं।

– अबीर, धर्मशाला


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