हिस्सेदार या किराएदार

By: Jun 3rd, 2019 12:05 am

केंद्र में सरकार ने कार्यभार संभाल लिया है, लिहाजा धीरे-धीरे सभी चीजें और मुद्दे पटरी पर आने लगेंगे। मोदी कैबिनेट की पहली बैठक करीब डेढ़ घंटा चली और कुछ जरूरी फैसले लिए गए। ऐसा कोई भी उदाहरण सामने नहीं आया, जो प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की मनमानी का खुलासा करता हो। फिर एमआईएम पार्टी के अध्यक्ष एवं निर्वाचित सांसद ओवैसी ने पायजामा फाड़ कर बाहर आने की कोशिश क्यों की है? फिर उर्दू-फारसी की जुबां में लफ्फाजी कर मुसलमानों को उकसाने और भड़काने की कोशिश क्यों की है? भाजपा का जनादेश 303 सीटों का है, यह एक यथार्थ है, लेकिन प्रधानमंत्री ने मनमानी करने के कौन से लक्षण दिखाए हैं? ओवैसी ने चीख-चीख कर यह क्यों कहा कि हम भी देश में बराबर के हिस्सेदार हैं, किराएदार नहीं हैं। हम मजलूमों के हुकूक के लिए लड़ेंगे। संविधान और देश को आबाद रखेंगे। इस देश को बर्बाद कौन कर सकता है? यदि 300 से ज्यादा सीटें आई हैं, तो क्या हुआ? हम प्रधानमंत्री को इतराने और मनमानी करने नहीं देंगे। ओवैसी का यह पूरा प्रलाप ही हास्यास्पद है। अभी तो नए सांसदों को लोकसभा में शपथ लेनी है। लोकतंत्र की संसदीय व्यवस्था एक बार फिर शुरू होनी है, लेकिन ओवैसी मुसलमानों के हुकूक को फिक्रमंद हैं, जबकि औसत मुसलमान बेफिक्र है। वह नए भरोसे के साथ सरकार की मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है, लेकिन ओवैसी ने एक बार फिर मजहबी सियासत का राग छेड़ दिया है। उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ का 2017 का फैसला देख लेना चाहिए या संसद में पढ़ी जाने वाली शपथ के शब्दों को ही देख लें, तो उन्हें साफ हो जाएगा कि धर्म कभी भी लोकतंत्र का आधार नहीं हो सकता। मुद्दे ही लोकतंत्र को परिभाषित करते हैं। आखिर ओवैसी ने हिस्सेदार या किराएदार वाला विचार सोच कैसे लिया? भारत की लोकसभा में ओवैसी भी सांसद रहे हैं और फिर चुने गए हैं। उनकी पार्टी का एक अन्य सांसद महाराष्ट्र के औरंगाबाद से जीता है। शपथ लेने के बाद दोनों ही देश में कानून के निर्माता की भूमिका में होंगे। क्या यह भूमिका किसी किराएदार को मिल सकती है? लिहाजा ओवैसी का मुसलमानों का खुद ही पैरोकार होना भी हास्यास्पद है। मुसलमान उन्हें अपना नेता ही मानने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में भाजपा-एनडीए संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद सबसे पहले संविधान की प्रति को नमन किया और फिर मुसलमानों को भी ‘अपना’ बनाने की तकरीर की। बीते सालों के दौरान मुसलमानों के साथ जो छल किया जाता रहा है, प्रधानमंत्री ने अब उसमें छेद करने की जरूरत पर जोर दिया। मुसलमान अब प्रधानमंत्री की इस तकरीर पर भरोसा करना चाहता है। ओवैसी देश को हिंदू-मुसलमान में बांटने की सियासत करना चाहते हैं। इसे कौन स्वीकार करेगा? मुसलमान देश का दूसरा सबसे बड़ा समुदाय है। उसकी हिस्सेदारी 14 फीसदी से ज्यादा है और उसकी आबादी 17.22 करोड़ ( 2011 की जनगणना के मुताबिक) है। उनकी साक्षरता दर 68.5 फीसदी है। ग्रेजुएट और उससे ज्यादा पढ़े लोगों का औसत मात्र 2.75 फीसदी के करीब है। उसके बावजूद बार-बार यह दोहराना उचित नहीं लगता कि मुस्लिम देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति सरीखे सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर रहे हैं। मुस्लिम कैबिनेट मंत्री हैं और पहले भी रहे हैं। मुस्लिम नौकरशाही में भी शीर्ष पदों पर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी का कहना सटीक लगता है कि अच्छा होता, यदि मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक विकास होता। उनकी शिक्षा और सेहत पर ध्यान दिया जाता, लेकिन उनके साथ छलावा कर वोटबैंक की तरह उनका इस्तेमाल किया गया। ओवैसी बयानबाजी के बजाय मुसलमानों के हालात पर चिंतित हों। संभवतः उसके बाद ही वह गंभीर नेता माने जा सकते हैं। रही बात हिस्से की, तो हिस्सा जिन्ना ने भी मांगा था। नतीजतन देश का विभाजन हुआ। आज प्रधानमंत्री मोदी और मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व ऐसे ‘हिस्से’ को मानना तो दूर, सुन भी नहीं सकते। लिहाजा ओवैसी का मुद्दा बिलकुल बेमानी है।


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