हुर्रियत से बातचीत क्यों?

By: Jun 26th, 2019 12:04 am

क्या मोदी सरकार किसी भी स्तर पर कश्मीर में हुर्रियत कान्फें्रस के अलगाववादी नेताओं से बातचीत करेगी? क्या पाकपरस्त और आतंकियों के पैरोकारों से बातचीत की जाएगी? क्या हत्यारे, भारत-विरोधी, हवाला के दलालों और भ्रष्ट चेहरों से भी बातचीत की जा सकती है? क्या ऐसा करना आतंकवाद के साथ बातचीत को नकारने की नीति का खंडन नहीं होगा? कश्मीर में हुर्रियत वाले कौन हैं- चुने हुए जन प्रतिनिधि, चुनाव लड़ने वाले सियासी दल या राज्य के स्वयंभू ठेकेदार…? बेशक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने अलगाववादी नेताओं के साथ संवाद की पुष्टि नहीं की है और न ही वह ऐसा कर सकते हैं। ऐसे संवाद सिर्फ प्रधानमंत्री के स्तर पर तय किए जाते हैं या उनके निर्देश पर गृहमंत्री किसी वार्ताकार को नियुक्त करते हैं। सिर्फ एक साक्षात्कार में हुर्रियत अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूख ने बातचीत की सहमति जताई थी कि यदि बातचीत की कोई पेशकश सरकार करती है, तो हुर्रियत उसके लिए तैयार है। राज्यपाल को उसका संदर्भ देकर भी बोलना नहीं चाहिए था। राज्यपाल का आतंकवाद और आतंकियों की भर्ती से जुड़ा दावा भी गलत था। कश्मीर में आज भी आतंकी हमले जारी हैं। शहीद जवानों के पार्थिव शरीर उनके घर के आंगन तक लौट रहे हैं। बेशक 2019 में जून के तीसरे सप्ताह तक 116 आतंकी मारे जा चुके थे, लेकिन 69 जवान भी शहीद हुए थे और 21 मासूम नागरिकों ने अपनी जिंदगी गंवाई थी। कश्मीर में आतंकवाद की मौजूदगी और सक्रियता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? भाजपा के चुनाव घोषणा-पत्र में स्पष्ट आश्वासन दिया गया है कि कश्मीर मुद्दे पर हुर्रियत से कोई बातचीत नहीं की जाएगी। अनुच्छेद 370 और 35-ए के साथ-साथ हुर्रियत का भी खात्मा किया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान भी लगभग यही बातें कही थीं। गृहमंत्री बनने के बाद अमित शाह ने जो ‘मिशन कश्मीर’ घोषित किया था, उसमें भी हुर्रियत के खात्मे का आश्वासन था। गृहमंत्री अमरनाथ यात्रा संबंधी सुरक्षा बंदोबस्तों का जायजा लेने कश्मीर जा रहे हैं। बहरहाल सवाल यह है कि प्रधानमंत्री-गृहमंत्री और राज्यपाल के बयानों में विरोधाभास क्यों है? क्या मोदी सरकार हुर्रियत नेताओं से बातचीत कर उन्हें सियासी वैधता दे सकती है? यही कोशिश 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान भी की गई थी। तब सरकार ने यासीन मलिक सरीखे पुराने आतंकी से भी हुर्रियत नेता के तौर पर बात की थी। बाद में हुर्रियत नेताओं ने मुलाकात के फोटो दिखा-दिखा कर अपनी वैधता को स्थापित करने की कोशिश की थी। कृप्या उस मंजर को दोहराना नहीं चाहिए। वह मंजर बेहद भयावह था और आज भी ‘आपरेशन आलआउट’ के बावजूद आतंकी हमले, गोलीबारी, ग्रेनेड फेंकना जारी है। यह बंदूक की नली तोड़ने का वक्त है या हुर्रियत को वैधता मुहैया कराना जरूरी है? दरअसल पाकिस्तान, हुर्रियत और राजनेताओं की एक तिकड़ी कश्मीर में अघोषित तौर पर सक्रिय है। जैसे ही राज्यपाल का कथन सामने आया, डा. फारूख अब्दुल्ला सरीखे नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि हुर्रियत के साथ-साथ पाकिस्तान से भी बातचीत शुरू करनी चाहिए। जब भी कश्मीर में कोई कड़ा कदम उठाने की पहल होती है, तो कबूतर उड़ाने वाला गैंग भी बीच में टपक पड़ता है। क्या हुर्रियत के साथ बातचीत से ही कश्मीर का ‘जन्नत’ बहाल किया जा सकता है? मोदी सरकार के निर्देश पर ही हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा वापस लेकर लाखों रुपए बचाए गए हैं। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने छापे मार कर अलगाववादी नेताओं की हकीकत बेनकाब की है। उनके खिलाफ केस बनाए गए हैं। उनका ‘काला और अवैध धन’ जब्त किया गया है। जो हत्यारे हैं, जिन पर मुकदमे हैं, जिन्हें जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए, जिन्हें फांसी के फंदे तक पहुंचाया जाना चाहिए, उनके साथ सरकार ही बात करने लगेगी, तो कश्मीर का भला कौन चाहेगा? सवाल है कि हुर्रियत नेताओं से बातचीत क्यों की जाए? जांच में ये तथ्य भी सामने आए हैं कि उन्हें पाकिस्तान से पैसा मिलता रहा है। उसी के आधार पर उन्होंने भाड़े के पत्थरबाज पैदा किए हैं। आतंकियों के पनाहगाह तैयार किए हैं। क्या वे इन तमाम हकीकतों पर कोई गारंटी दे सकते हैं? देश कश्मीर पर प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह के कड़े रुख से वाकिफ है, लिहाजा राज्यपाल या कश्मीर के पार्टी प्रभारी अविनाश खन्ना के बयान बेमानी हैं।

 


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