आपदा प्रबंधन की दौड़ में हम कहां

By: Jul 15th, 2019 12:05 am

सतपाल

सीनियर रिसर्च फेलो, एचपीयू

 

क्या हमने जो नगर बसाए हैं, वहां बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर दीं, उन इमारतों को भूकंपरोधी बनाया है या नहीं? सभी भवनों को बनाने से पूर्व भूकंपरोधी मानकों के तहत बनाने की शर्तें रखी गई या लागू की गई? अगर इसका उत्तर ढूंढने का प्रयत्न करेंगे, तो इसका जवाब न ही पाएंगे…

हिमाचल प्रदेश जहां एक ओर अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न ठोस वास्तविकताओं के संपर्क में भी है। विभिन्न तीव्रता की लगातार आपदाएं और उनका सामाजिक जीवन पर असर एक ऐसी समस्या है, जो प्रदेश के विकास में बाधा पैदा करने का काम करती है। भूकंप, भू-स्खलन, बादल फटना, अचानक बाढ़ आना, हिमस्खलन, जंगली आग व सूखा इत्यादि से प्रदेश को हर वर्ष जान-माल के साथ-साथ भारी आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता है। अगर यह कहें कि पिछले पांच दशकों में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं ने प्रदेश के विकास की गति को धीमा किया है, जिसके कुछ उदाहरण हैं, जिनका यहां उल्लेख करना वाजिब समझता हूं। भू-स्खलन प्रदेश में होने वाली प्राकृतिक आपदाओं में से आम आपदा है। 12 सितंबर, 1995 को कुल्लू जिले के लुग्गर भट्टी में आए भू-स्खलन को कौन भूल सकता है, जिसमें 65 लोग दफन हो गए थे।

इसके अलावा भी भू-स्खलन की छोटी-मोटी अनेक घटनाएं आए दिन हम समाचार पत्रों के माध्यम से देखते रहते हैं। प्रदेश में प्राकृतिक आपदा का दूसरा घटक है- हिमस्खलन, जिसमें सबसे बड़ी घटनाएं सन् 1978 व 1979 की जिला लाहुल-स्पीति की हैं, जहां क्रमशः 30 व 237 लोग हिमस्खलन की चपेट में आ गए थे, साथ ही साथ यातायात व जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। ये ऐसी हृदयविदारक घटनाएं हैं, जो आज भी हमारे स्मृति पटल पर एक मार्मिक छाप छोड़े हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों से अचानक बाढ़ आने की घटनाओं ने चाहे मौसम विभाग हो, आम जनमानस हो या प्रशासन अथवा सरकार हो, सभी को चकित किया है। इसमें सबसे बड़ी घटना एक अगस्त, 2000 की है, जिसने प्रदेश के जिला किन्नौर व शिमला में तबाही की भयानक तस्वीर पेश की थी। सतलुज नदी में आई इस बाढ़ में जान-माल की बेहद हानि हुई थी। इसमें 150 लोगों  के साथ-साथ नदी पर बने 14 पुल जलमग्न हो गए थे। इसके अतिरिक्त वर्ष 1997 में शिमला जिला की चिड़गांव तहसील की आंध्रा नदी में आई बाढ़ से भी प्रदेश को भारी क्षति का सामना करना पड़ा था। प्रदेश में बाढ़ आने का मुख्य कारण हिमालय पर ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमखंडों का पिघलना है। डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट आर्गेनाइजेशन ने हिमालय में विद्यमान हिमखंडों की पिघलने की दर का अध्ययन किया है, जिसमें प्रदेश का बड़ाशिगड़ी हिमखंड सबसे तेजी से पिघल रहा है। इसके पिघलने की दर 44.3 मीटर प्रतिवर्ष दर्ज की गई है, जो अन्य हिमखंडों की पिघलने की दर से सबसे ज्यादा है और यह प्रदेश के लिए चिंताजनक विषय है। अब बात आती है एक और आपदा की, जिसके सुनने मात्र से हर इनसान की स्मृति क्षीण होती प्रतीत होती है, यह है भूकंप। जैसा सर्वविदित है कि हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी राज्य है। यह पश्चिमी हिमालय की सबसे संवेदनशील श्रेणी में आता है, क्योंकि यह दो विवर्तनिक प्लेटों के संगम पर बसा हुआ है, जिससे हिमाचल भूकंप के लिए भी अत्यंत संवेदनशील है। इसी कारण भूकंप वैज्ञानिकों ने हिमाचल प्रदेश को भूकंप के जोन चार व पांच में रखा है, जो जोन भूकंप के अत्यधिक खतरे वाले क्षेत्र को दर्शाते हैं। अतः प्रदेश में भूकंप का सबसे ज्यादा खतरा है। आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 4.0 तीव्रता वाले 250 से अधिक झटके व 50 से ज्यादा ऐसे झटके, जिसकी रेक्टर स्केल पर तीव्रता 5.0 से अधिक है, पिछली एक शताब्दी में दर्ज किए गए हैं। 8.0  तीव्रता वाला सदी का सबसे बड़ा भूकंप, जिसको याद करके आज भी रोंगटे खड़े होते हैं, प्रदेश के कांगड़ा जिले में चार अप्रैल, 1905 में घटित हुआ, जिसमें 20,000 लोग हताहत हुए थे, जिसकी प्रदेश के इतिहास में काले दिवस के रूप में याद है। इसके अतिरिक्त जंगल की आग भी प्रदेश में एक आपदा है। सन् 1995 में प्रदेश को जंगल में आग से लगभग 175 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। इस वर्ष फायर सीजन में अब तक 543 घटनाएं घटित हुई हैं, जिनके कारण 48 लाख 41 हजार की संपत्ति के साथ-साथ 2628 हेक्टेयर भूमि पर आग का तांडव हो चुका है।

अगर प्राकृतिक आपदाओं की सभी घटनाओं का उल्लेख करने की कोशिश की जाए, तो सैकड़ों पृष्ठ भर जाएंगे और घाव ताजा होते जाएंगे। ये सब घटनाएं, जो काफी वर्षों पहले घटित हुई हैं, इनका उल्लेख इसलिए करना वाजिब समझा, क्योंकि क्या हमने इन घटनाओं से कुछ सबक लिया है अर्थात वास्तव में हमने आपदाओं से निपटने के लिए कितनी तैयारियां की हैं? क्या हमने जो नगर बसाए हैं, वहां बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर दीं, उन इमारतों को भूकंपरोधी बनाया है या नहीं? सभी भवनों को बनाने से पूर्व भूकंपरोधी मानकों के तहत बनाने की शर्तें रखी गई या लागू की गई? अगर इसका उत्तर ढूंढने का प्रयत्न करेंगे, तो इसका जवाब न ही पाएंगे। केवल चंद इमारतों व भवनों को छोड़कर प्रदेश की कोई भी इमारत भूकंपरोधी मानकों पर खरी नहीं उतरती है, यह दुखद विषय है। क्या नदियों के किनारे जो नगर, कस्बे, गांव व लोग बसे हुए हैं, उनको स्थानांतरित किया या अन्य कोई उपाय किए?  शायद इसमें भी हम कमजोर नजर आ रहे हैं। ऐसे ही अन्य प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में भी हम फिसड्डी हैं। आपदा एक प्राकृतिक या मानव निर्मित जोखिम का प्रभाव है, जो समाज या पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसी प्रकार चाहे वनों में लगती आग हो, भूकंप, बाढ़, हिमस्खलन व भू-स्खलन हो, ये ऐसी आपदाएं हैं, जिनका नकारात्मक प्रभाव पर्यावरण व समाज और आर्थिकी पर पड़ता दिखता है, जिनको फिर से उसी अवस्था में ला पाना वैसे तो नामुमकिन है, यदि है भी तो सदियों के सतत प्रयास का नतीजा है। ऐसा नहीं है कि सरकारों का रवैया इन समस्याओं के प्रति उदासीन है, परंतु सरकारों का ध्यान आपदाओं के लिए कैसे अपने आप को तैयार किया जाए या इनका असर कैसे कम किया जाए, के बजाय कैसे निपटा जाए, पर ज्यादा है। प्रकृति प्रायः संकट पैदा करती है, यह मनुष्य का लालचीपन है, जो उस संकट को आपदा में परिवर्तित करता है। अतः आज जरूरत है इन आपदाओं से होने वाली त्रासदी को कम करने की। उसके लिए विकास के नाम पर इनसान के लालचीपन पर रोक लगाने की जरूरत है, इसमें ही सभी का हित निहित है।


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