किसी अजूबे से कम नहीं हैं महाभारत के पात्र
अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने यह घोषणा की कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी मांगेगा तो वह मना नहीं करेगा और मांगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में इंद्र और माता कुंती ने लाभ उठाया। महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इंद्र ने कर्ण से साधु के भेष में उसके कवच-कुंडल मांग लिए क्योंकि यदि ये कवच-कुंडल कर्ण के ही पास रहते तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असंभव था। इंद्र ने अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कर्ण से इतनी बड़ी भिक्षा मांग ली…
-गतांक से आगे…
कर्ण शकुनि को पसंद नहीं करता था और सदैव दुर्योधन को यही परामर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे, न कि कुटिल चालों का। जब लाक्षागृह में पांडवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डांटता है और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहां उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में जरासंध, शिशुपाल, दंतवक्र, साल्व और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरासंध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासंध को परास्त किया, लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासंध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो में बांट कर हो सकती है।
उदारता और चरित्र
अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने यह घोषणा की कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी मांगेगा तो वह मना नहीं करेगा और मांगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में इंद्र और माता कुंती ने लाभ उठाया। महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इंद्र ने कर्ण से साधु के भेष में उसके कवच-कुंडल मांग लिए क्योंकि यदि ये कवच-कुंडल कर्ण के ही पास रहते तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असंभव था। इंद्र ने अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कर्ण से इतनी बड़ी भिक्षा मांग ली, लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इंद्र को भी मना नहीं किया और इंद्र द्वारा कुछ भी वरदान मांग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इंद्र से यह कहते हुए कि ‘देने के पश्चात कुछ मांग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है’ कुछ नहीं मांगा। इसी प्रकार माता कुंती को भी दानवीर कर्ण द्वारा यह वचन दिया गया कि इस महायुद्ध में उनके पांच पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे और वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पांडव का वध नहीं करेगा। उसने वही किया, कर्ण ने अर्जुन के वध के लिए देवराज इंद्र से इंद्रास्त्र भी मांगा था।
द्रौपदी स्वयंवर
कर्ण, द्रौपदी के स्वयंवर में एक विवाह-प्रस्तावक था। अन्य प्रतिद्वंद्वियों के विपरीत, कर्ण धनुष को मोड़ने और उस पर प्रत्यंचा चढ़ा पाने में समर्थ था, पर जैसे ही वह लक्ष्य भेदन के लिए तैयार हुआ, तब श्रीकृष्ण के संकेत पर द्रौपदी ने कर्ण को सूत पुत्र बोलकर उसे ऐसा करने से रोक दिया। पांडव भी वहां ब्राह्मण के भेष में उपस्थित थे। अन्य राजकुमारों और राजाओं के असफल रहने पर अर्जुन आगे बढ़ा और सफलतापूर्वक मछली की आंख का भेदन किया और द्रौपदी का हाथ जीत लिया। जब बाद में अर्जुन की पहचान उजागर हुई तो कर्ण की प्रतिद्वंद्विता की भावना और गहरी हो गई।
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