पशुपालन से मोहभंग का परिणाम

By: Jul 20th, 2019 12:05 am

बचन सिंह घटवाल

लेखक, कांगड़ा से हैं

 

अनगिनत वजहों का प्रभाव आज घर-घर में पशुपालन की परिपाटी को विलीन करता जा रहा है, जबकि दूध, दही के हर घर की दिनचर्या का प्रथम हिस्सा होते हुए भी व्यक्ति पशुपालन से किनारा करता जा रहा है। जहां तक व्यक्ति का पशुओं से मोहभंग का तर्क है, वह तर्कसंगत यूं दिख पड़ता है कि संयुक्त परिवारों के तीव्रता से एकल परिवारों में परिवर्तन ने काफी हद तक परिवारों को सीमित कर दिया है, जिसका परिणाम मिल-जुलकर घर के पुश्तैनी धंधों पर तो पड़ा ही है, साथ में पशुओं को रखने-संभालने तथा चारा देने की प्रक्रिया में मुस्तैद घर के सदस्यों की सक्रियता पर भी पड़ा है…

पशुपालन की परिपाटी गांवों, कस्बों की समृद्धि का प्रतीक मानी जाती रही है। पुरातन काल से ही यह परिपाटी रही है कि जिस घर में पशु हुआ करते थे, वहां समृद्धि दूध, दही के रूप में बरसती थी और आज भी जिस घर में पशुधन है, वह स्वतः ही खुशहाल दिखता है। घर की आर्थिकी को संबल प्रदान करने वाले पशु वर्तमान में विपरीत परिस्थितियों की भेंट चढ़ रहे हैं। अनगिनत वजहों का प्रभाव आज घर-घर में पशुपालन की परिपाटी को विलीन करता जा रहा है, जबकि दूध, दही के हर घर की दिनचर्या का प्रथम हिस्सा होते हुए भी व्यक्ति पशुपालन से किनारा करता जा रहा है। जहां तक व्यक्ति का पशुओं से मोहभंग का तर्क है, वह तर्कसंगत यूं दिख पड़ता है कि संयुक्त परिवारों को तीव्रता से एकल परिवारों में परिवर्तन ने काफी हद तक परिवारों को सीमित कर दिया है, जिसका परिणाम मिल-जुलकर घर के पुश्तैनी धंधों पर तो पड़ा ही है, साथ में पशुओं को रखने-संभालने तथा चारा देने की प्रक्रिया में मुस्तैद घर के सदस्यों की सक्रियता पर भी पड़ा है। खेतीबाड़ी संभालने की इच्छाशक्ति भी शनैः शनैः क्षीण होती नजर आ रही है। व्यक्ति आज तमाम झंझटों को दरकिनार कर आसानी से उपलब्ध मजदूरी संग दूर-दराज क्षेत्रों में नौकरी करने को वरीयता देता हुआ गृहस्थी के अन्य क्रियाकलापों को बोझ समझने लगा है। हां, अगर कहीं व्यक्ति पशु पालने की इच्छाशक्ति रखता भी है, तो चारे की समस्या उनका मनोबल गिरा देती है।

दुधारू पशु आज के महंगाई के युग में घर की आय को ही संबल प्रदान नहीं करते, बल्कि आसपड़ोस, गांव, शहर तक दूध, दही की आवश्यकताओं को पूरा भी करते हैं। घर को अतिरिक्त आय का सहारा देने वाले पशु प्रदेश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का जिम्मा उठाए हुए हैं। मानव ने पशुओं को जैसे ही अपनी घर की दहलीज से पार कर बाहर का रास्ता दिखाया, तो आज वही पशु लावारिस होकर हमारी खेती को तबाह करते जा रहे हैं। आज बेसहारा पशुओं का सवाल हिमाचल के किसानों के लिए ही सिरदर्द का कारण नहीं है, बल्कि पड़ोसी राज्य भी पशुओं के प्रभाव से अछूते नहीं हैं। ऐसा कदाचित नहीं है कि यह समस्या नवीन है, पहले भी थोड़े या ज्यादा हर गांव-शहर में आवारा पशु किसानों की मेहनत पर पानी फेर देते थे। हां, तब उजाड़ का दायरा आज के संदर्भ में कम हो सकता है। आज से दो दशक पहले जब पूर्णतया बैलों द्वारा खेतों को जोतने की परिपाटी थी, तो किसान दो जोड़ी बैलों संग अन्य दुधारू पशुओं को पालने का क्रम बनाए हुए था। जब से आधुनिक मशीनरी के रूप में छोटे टै्रक्टर व हल के विकल्प के रूप में मशीनी यंत्रों का विकास पहाड़ों के कोनों में अपनी जगह बनाता गया, तब से  पशुओं को पालने की परिपाटी पर ग्रहण सा लग गया। इसमें मेरा तनिक भी यह आशय नहीं है कि आधुनिकता के प्रभाव ने हमें उजाड़ की सभ्यता तक ला खड़ा कर दिया, बल्कि कमी हमारी ही रही है कि हम आधुनिकता संग सामंजस्य  बिठाने में कहीं असफल से रहे हैं। इधर मानव ने पशुओं को घर से बेघर किया, तो दूसरी तरफ वही पशु गांव के वीरानों, सड़कों व अन्य स्थलों को आश्रय बनाकर व्यवस्थित हो गए। उस समय हमने ऐसे पशुओं के व्यवस्थापन की क्रिया को गंभीरता से नहीं लिया। आज यही आवारा पशुओं का जमघट सड़कों में यातायात को बाधित करने व अन्य परेशानियों का कारण बनने लगे और किसानों के खेतों को उजाड़ने का कारण बनने लगे। आलम यहां तक रहा कि गृहिणियां सुबह घर के कचरे को जब निर्धारित स्थल पर फेंकने के लिए निकलती हैं, तो खाने के लालचवश आवारा पशुओं की टक्कर का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है। ये पशु सड़क दुर्घटनाओं का कारण बनने लगे और आज आवारा पशुओं के आतंक का गहराता जा रहा विषय सोचनीय स्थिति तक पहुंच गया है।

पशुपालन विभाग की वर्ष 2011 की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 25000 से भी ज्यादा लावारिस पशु हैं। वर्तमान में इनकी संख्या ने अब तक 30000 से ज्यादा का आंकड़ा पार कर लिया होगा। इतनी बड़ी संख्या में लावारिस पशुओं की मौजूदगी किसानों व आमजन मानस के लिए ही परेशानी का कारण नहीं रही, बल्कि सरकारों व सरकारी तंत्र के लिए भी यह चुनौती बनी हुई है। पंचायत स्तर पर उपलब्ध जगहों पर गोशाला या बाड़ों के निर्माण पर लावारिस पशुओं का बहुतायत ने रखरखाव व पालन-पोषण का परिणाम कसौटी पर खरा न उतर सका और किसानों की खेती यथावत तबाह होती रही।

वर्तमान में सरकार की पहल गो सदनों की परिपाटी के रूप में जरूर परिणाम प्रदर्शित कर सकती है। बेशक हम आवारा पशुओं से त्रस्त हैं, परंतु इसमें दो राय नहीं है कि पशु हमारे जीवन के अहम हिस्से के रूप में हैं। गांव में दुधारू पशुओं की विकसित नस्लें व्यक्ति की आय को अतिरिक्त संबल प्रदान कर सकती हैं। हिमाचल में चारागाहों के विकास संग प्रदेश की आर्थिकी के लिए महत्त्वपूर्ण संबल होगा। आवारा पशुओं के समाधान के लिए सरकार ने इच्छुक एनजीओ को गोसदनों के निर्माण कर उन्हें सौंपने की इच्छाशक्ति प्रदेश में जरूर आवारा पशुओं पर अंकुश लगाने में अहम कदम होगा। देवभूमि में मंदिर न्यासों या कमेटियों के अधीन जो गोसदनों का जिम्मा व देखरेख उपयुक्त कदम जरूर होगा। प्रदेश में गोसदनों के विकास पर किसान राहत की सांस जरूर लेगा। इसमें संदेह नहीं है कि स्वयंसेवी संस्थाओं और मंदिर कमेटियों की भागीदारी के परिणामस्वरूप आवारा पशुओं को आश्रय मिलेगा तथा हिमाचली किसान व आमजन मानस भयमुक्त अपनी-अपनी भूमिका अदा करते हुए प्रदेश को नवीन ऊंचाइयों तक ले जाएगा। अगर यूं कहे कि व्यक्ति का पशुपालन परिपाटी से मोहभंग का परिणाम ही आवारा पशुओं का जमावड़ा है, तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी।


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