पावन और पवित्र

By: Jul 20th, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव

हम नाम पर न जाएं, बल्कि इन पावन और पवित्र नामों में उठती तरंगों को अनुभव करें, क्योंकि प्रभु भक्त की पुलक एक ही है। भक्त रोमांचित हो जाता है, मानो जब कोई अल्लाह कहे, ईश्वर कहे, गॉड कहे, वाहेगुरु कहे तो हम अनुभव करें कि कैसे इन पवित्र और पावन नामों को कहते समय करने वाले व्यक्ति ने अपने को उडेल दिया है। संपूर्ण अवतार बाणी भी फरमा रही है।

अल्ला ईश्वर गॉड वाहेगुरु इस दे हन सारे नाम

राम मुहम्मद नानक ईसा इक तों इक प्यारे नाम।

अतः रब्बी लोग सदा प्रभु के जिक्र (जिक्रयार) पर जोर देते चले आ रहे हैं, क्योंकि जिक्र केवल विचार या फिर चिंतन नहीं है। जिक्र तो केवल मनन के बाद महात्माओं के शब्द रूपी सरोवर में एक डुबकी है और फिर प्रभु सुमिरन में डूब जाना है। मानो प्रभु का जिक्र तो प्रभु के रस को पी लेना है।

जिस नू पी के अमर हो गया जाम पिलाया मुर्शद ने

अब मनन रूपी रस पीने की कला पूर्ण सद्गुरु ही प्रदान कर सकता है और कोई उपाय नहीं है। अतः अब जब हम रब्बी भक्तों के वचन सुनें तो इनका हृदय देखें, इनका आनंद और मस्ती देखें। यह भक्त क्या कहते हैं, इनकी फिक्र छोड़ दें, क्योंकि मनन करने वाले प्रेमाभक्ति से भरे भक्त की दशा बड़ी अद्भुत होती है।

मन की गति कही न जाई जे को कहै पिछै पछुताई

मनै मगु न चलै पंथु मनै धरम सेती सनबंधु।

अतः प्रभु भक्त सद्गुरु कृपा से एक को ही मानता है और सब में एक को ही निहारने लग जाता है।

इक नूं मनणा इक नूं तकणा इक नूं पाणा भक्ति ए

बाकी सारे कर्म छोड़ एह कर्म कमाणा भक्ति ए

अतः भक्ति-शास्त्र शास्त्रों में नहीं लिखा है, क्योंकि भक्ति शास्त्र शब्द नहीं, सिद्धांत नहीं, एक जीवन सत्य है, अतः जहां हम मनन करने वाले भक्त को पा लें, वहीं इसके हृदय को पढ़ लें और कहीं पढ़ने का उपाय नहीं है। संपूर्ण बाणी का भी फरमान है।

जिस रब नूं ढूंढें दुनियां दस्सां कित्थे रहिंदा ए

संतां दे हिरदे विच वसदा ते रसना ते बहिंदा ए।

ऐसे तो बहुत निरीक्षण करते हैं, मगर स्वयं का निरीक्षण करना भूल जाते हैं। उदाहरण के तौर पर हम प्रशंसा या निंदा भी करते हैं तो दूसरे की ही करते हैं। क्योंकि हमारा चित निरंतर दूसरों के संबंध में सोचने में लगा होता है और स्वयं के संबंध में विचार, स्वयं के संबंध में निरीक्षण, स्वयं की बाबत तटस्थ खड़े होकर हमारी सोचने की वृत्ति मुकिश्ल से होती है। अतः जिस व्यक्ति में स्वयं का निरीक्षण करने की वृत्ति का अभाव होता है, ये जिन बातों की दूसरों में निंदा करता है, करीब-करीब इन्हीं बातों को अपने भीतर लिए हुए होता है। मानो ऐसा व्यक्ति जिन बातों के लिए दूसरों को कोसता है, इन्हीं बातों को स्वंय में पालता है और पोसता है और मजे की बात ये है कि इसे पता भी नहीं चलता कि ये क्या हो रहा है और पता इसलिए नहीं चलता क्योंकि ऐसा व्यक्ति कभी खुद की तरफ  लौट कर नहीं देखता, बल्कि ये देखता रहता है औरों की तरफ। अतः जो व्यक्ति खुद की तरफ लौट कर नहीं देखता उसका विवेक नहीं जाग सकता, क्योंकि पहली बात तो यह है कि जो व्यक्ति अभी खुद को देखने में समर्थ नहीं है, वो दूसरों को देखने में कैसे समर्थ हो सकता है, जो अपने ही संबंध में निर्णय नहीं ले सकता, वो भला दूसरों के संबंध में निर्णय कैसे ले सकेगा।


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