विदेशी बाजारों से ऋण लेना सही नहीं

By: Jul 17th, 2019 12:06 am

डा. अश्विनी महाजन

एसोसिएट प्रो., पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विवि.

 

देखा गया है कि जिन-जिन देशों ने विदेशी मुद्रा में ऋण लिए, उन देशों में अदायगी का संकट ही नहीं आया, बल्कि महंगाई भी भारी मात्रा में बढ़ी। बड़ी बात यह है कि सरकार का यह निर्णय एक बड़ा बदलाव है, जिसके लिए देश में किसी भी प्रकार की बहस नहीं हुई। किसी भी नीतिगत परिवर्तन से पहले बहस होना जरूरी है…

हालांकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में यह कबूल तो नहीं किया कि वर्ष 2018-19 में सरकार का राजस्व अपेक्षा से कम रहा, लेकिन यदि ध्यान से देखा जाए, तो वर्ष 2018-19 के संशोधित राजस्व अनुमान बजट की अपेक्षा कम रहा। यह कमी प्रत्यक्ष करों और अप्रत्यक्ष करों दोनों में देखी गई, लेकिन सरकार ने अपना यह संकल्प बार-बार दोहराया कि पिछले साल यानी वर्ष 2018-19 में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.4 प्रतिशत तक सीमित रखा और वर्ष 2019-20 में इसे सरकार 3.3 प्रतिशत तक लेकर जाएगी, यानी किसी भी हालत में सरकार राजकोषीय अनुशासन को बनाए रखेगी। पिछले पांच सालों में सरकार के इस राजकोषीय संतुलन एवं अनुशासन को सराहा भी गया, क्योंकि इसके कारण देश में महंगाई काबू में रही और इससे आम आदमी को बड़ी राहत मिली। जब सरकार का कुल खर्च उसकी राजस्व प्राप्तियों और अन्य प्राप्तियों के जोड़ से ज्यादा होता है, तो वह राजकोषीय घाटा कहलाता है। इस राजकोषीय घाटे की भरपाई जनता से उधार लेकर की जाती है। भारत सरकार द्वारा आज से पहले सरकारी खर्च की भरपाई के लिए कभी भी विदेशों में बांड जारी कर ऋण नहीं लिया। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में अनिवासी भारतीयों का आह्वान करते हुए इंडिया रिसर्जेंट बांड जारी किए गए थे और प्रवासी भारतीयों ने दिल खोलकर इन बांडों में निवेश किया था। यह नहीं कि भारत सरकार ने कभी विदेशों से ऋण नहीं लिया। भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों जैसे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियाई विकास बैंक समेत कई संस्थानों से ऋण लेती रही है। ये ऋण अत्यंत रियायती दरों पर होते हैं। इसके अलावा समय-समय पर आवश्यकता अनुसार सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय बाजारों में गैर रियायती ऋण भी लिए गए हैं, लेकिन सरकार द्वारा कभी भी घोषित रूप से बजट में घाटे को पूरा करने के लिए विदेशों से ऋण नहीं लिया गया। 

हालांकि अपने बजट भाषण के अनुच्छेद 103 में वित्त मंत्री ने मात्र लगभग 50 शब्दों में यह कह दिया, जो अभी तक किसी बजट भाषण में नहीं कहा गया था। यदि वित्त मंत्री के शब्दों में कहें तो यह इस प्रकार से था- ‘अपनी जीडीपी में भारत का संप्रभु ऋण विश्वभर में सबसे कम है, जो कि पांच प्रतिशत से भी नीचे है। सरकार विदेशी बाजारों में विदेशी मुद्रा में अपनी सकल उधारी कार्यक्रम के एक हिस्से को बढ़ाना शुरू करेगी। इससे घरेलू बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों की मांग पर भी लाभप्रद प्रभाव पड़ेगा।’ हमारी जीडीपी आज 2.8 खरब डालर की है, यानी 2800 अरब डालर की है। यानी यदि जीडीपी के 10 प्रतिशत के बराबर ऋण लिया जाता है, तो इसका मतलब होगा 280 अरब डालर का ऋण। अगर रुपए में देखें, तो यह 19 लाख 15 हजार करोड़ रुपए है। ताजा समाचारों के अनुसार भारत का विदेशी मुद्रा भंडार सभी रिकार्ड तोड़कर लगभग 430 अरब डालर तक पहुंच गया है। ऐसे में विदेशी मुद्रा के रूप में ऋण लेने का कोई औचित्य भी दिखाई नहीं पड़ता। साथ ही सरकारी सूत्रों से यह भी कहा जा रहा है कि विदेशी उधार वर्तमान में जीडीपी के पांच प्रतिशत से भी कम है और इसे आसानी से 15 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस प्रकार से कर्ज बढ़ाने की कोई सीमा तय नहीं की जा सकती। क्या गारंटी है कि आगे आने वाली सरकारें इस कर्ज को और ज्यादा नहीं बढ़ाएंगी। पहले भी कई देशों ने अपने सरकारी घाटे को पूरा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजारों से ऋण लिया है, लेकिन इन देशों का अनुभव कभी भी अच्छा नहीं रहा। अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि जो प्रस्ताव वे दे रही हैं, उसको अपनाने वाले देशों का हश्र क्या हुआ। इंडोनेशिया का विदेशी ऋण आज 36.2 प्रतिशत है, ब्राजील में यह 29.9 प्रतिशत, अर्जेंटीना में 51.9 प्रतिशत, टर्की में 53.8 प्रतिशत और मैक्सिको में यह 36.5 प्रतिशत है। इन देशों द्वारा विदेशी ऋण लेने के फैसले ने उन्हें एक ऐसे भंवर में फंसा दिया है, हर बार उस ऋण की अदायगी के लिए उन्हें और विदेशी ऋण लेना पड़ रहा है। कहा जाता है कि विदेशों से विदेशी मुद्रा में ऋण लेना सस्ता पड़ता है और इसलिए राजकोषीय प्रबंधन आसान हो जाता है। ऋणदाता देशों में ब्याज दरें कम होती हैं और ब्याज दर निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका रेटिंग की होती है। यह कहा जाता है कि चूंकि अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भारत की बेहतर रेटिंग की हुई है, हम अपने खर्चों के लिए कम खर्चीले ऋण विदेशों से ले सकते हैं और इस प्रकार से सरकार की ऋण लागत को कम करते हुए हम खर्च बढ़ा सकते हैं। यह तर्क अल्पकाल के लिए तो सही हो सकता है, पर दीर्घकाल के लिए सही नहीं है। इसका कारण यह है कि कम ब्याज दर को देखते हुए हम करेंसी जोखिम के प्रभाव को भूल जाते हैं।

जब हम विदेशी ऋण लेते हैं, तो ऋण अदायगी के बोझ के कारण रेटिंग कम होने के फलस्वरूप भी ब्याज दर आगे बढ़ जाती है और चूंकि अदायगी में कोताही से बचने के लिए और अधिक ऋण लेना जरूरी हो जाता है, ऐसे में देश कर्ज के भंवर जाल में फंसता चला जाता है। यही नहीं, कर्ज की बढ़ती अदायगी, विदेशी मुद्रा की कमी और भुगतान घाटे की स्थिति के चलते हमारी करेंसी (रुपए) का और अधिक अवमूल्यन हो जाता है। पिछले समय में विदेशी ऋण न लेते हुए भी हमारे रुपए का पिछले सालों में भारी अवमूल्यन हुआ है। मोटे अनुमान के अनुसार पिछले सालों में भारतीय रुपए का लगभग छह प्रतिशत वार्षिक की दर से अवमूल्यन हुआ है। विदेशी ऋण की राह पर चलने के कारण यह दर आगे बढ़ सकती है। इसलिए ब्याज और मूल अदायगी की दर का आकलन करते हुए करेंसी जोखिम की अनदेखी देश पर भारी पड़ सकती है। सरकार को यदि किसी से सीख लेनी हो, तो वह भारतीय निजी क्षेत्र की कंपनियों से ले सकती है। गौरतलब है कि बड़ी संख्या में भारत की छोटी-बड़ी कंपनियों ने सस्ते ब्याज के लालच में विदेशों से ऋण उठा लिए। देखने में तो वे तीन-चार प्रतिशत के ब्याज वाले विदेशी ऋण थे, लेकिन जैसे-जैसे साल दर साल रुपए का अवमूल्यन होता गया, ये कंपनियां ब्याज और अदायगी की मार सहते-सहते भारी घाटे में चली गईं। विदेशी मुद्रा में ऋण लेने के बाद उसे खर्च करने के लिए सरकार को रिजर्व बैंक से उसके बदले भारतीय मुद्रा लेनी होगी। देश में मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने के बाद महंगाई बढ़ना एक स्वाभाविक बात है। ऐसे में राजकोषीय घाटे को अनुशासन में रखने का कोई लाभ नहीं होगा। देखा गया है कि जिन-जिन देशों ने विदेशी मुद्रा में ऋण लिए, उन देशों में अदायगी का संकट ही नहीं आया, बल्कि महंगाई भी भारी मात्रा में बढ़ी।

बड़ी बात यह है कि सरकार का यह निर्णय एक बड़ा बदलाव है, जिसके लिए देश में किसी भी प्रकार की बहस नहीं हुई। किसी भी नीतिगत परिवर्तन से पहले बहस होना जरूरी है। यही नहीं, इस संबंध में सरकार के राजनीतिक नेतृत्व और अफसरशाही ने मिलकर यह एकतरफा फैसला लिया है। जरूरी है कि इस संबंध में अर्थशास्त्रियों, मौद्रिक नीति के जानकारों और विदेशी मुद्रा एवं अंतरराष्ट्रीय व्यापार विशेषज्ञों समेत सभी हितधारकों से विचार-विमर्श हो।


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