विष्णु पुराण

By: Jul 13th, 2019 12:05 am

तत कुंभ च मीन व राशे राश्यंतरद्विज।

त्रिषुवेतेस्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवती गत्तिम।

प्रयाति सबिता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम्।

ततो रात्रिः क्षय योति वर्द्धतेऽनुदिन दिनम्।

ततश्च मिधुनस्याते परां काष्ठामुपागतः।

राशि कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणयनम।

कुलालजचक्रपर्यन्तो यथा शीघ्रं प्रवर्तते।

दक्षिणप्रक्रमे सूर्यस्तथा शीघ्रं प्रवर्त्तते।

अतिवेपितथा कालं वायुवेगबलाच्चरत्।

तस्मात्प्रकृष्टां वूर्मितु कालेनोल्पेन गच्छति।

फिर वह कुंभ और मीन राशियों में एक से दूसरी में जाता है। इन तीनों राशियों को भोगकर रात्रि और दिन को समान करता हुआ। सूर्य वैषुवती गति का आश्रय लेता है। फिर दोनों दिन- रात्रि का क्षय होने लगता है और दिन की वृद्धि होने लगती है। फिर वह मिथुन राशि से निकल कर उत्तरायण की अंतिम सीमा पर पहुंचा है और कर्क राशि में प्रविष्ट होकर दक्षिणायन का आरंभ कर देता है। जैसे कुम्हार के चाहके सिरे पर स्थित वस्तु अत्यंत दु्रत वेग से घूमती है, वैसे ही सूर्य दक्षिणायन को पार करने की दिशा में दु्रत गति से गमन करता है। इस प्रकार शीघ्र और वायु जैसे वेग से चलने के कारण वह उत्कृष्ट मार्ग को अल्प समय में ही पार कर लेते हैं।

सूर्याे द्वादशभिः शैध्रयान्मूर्तेर्दक्षिणायने।

त्रयोदशर्द्ध मृक्षाणमह्ना तु चरति द्विज।।

मुहूर्तेस्तावद्दक्षाणि नक्तमष्टांदशैंश्चरन्।

कुलालचक्रमध्यस्थो यथा मंद प्रसपंति।।

तथोदगयने सूर्यः तर्पते मन्दविक्रमः।

तस्माद्ीर्घेण कालेन भूमिमल्यां तु गच्छति।।

अष्टादशमहूर्त यदुत्तरायण पश्चिमम।

अहर्भवति तच्चापि चरते मंदविक्रमः।।

त्रयोशार्द्ध मह ना तु ऋक्षाणां चरते रविः।

मुहूर्तेस्तावक्षाणि रात्रौ द्वादशभिश्चरन।।

अतो मन्दतरं नाभ्यां चक्र भ्रमति वै यथा।

मृत्पंड इव मध्यस्थो ध्रुवो भ्रमति वै तथा।।

कुलालिचक्रनाभिस्तु यथा तत्रैव वर्तत।

ध्रुवस्तथा हि मैत्रेय तत्रैव परिवर्तते।।

हे द्विज! दक्षिणायन में दिन के समय सूर्य इतनी शीघ्रता से चलता है कि उस समय के साढे़ तेरह नक्षत्रों को बारह मुहूर्तों में ही पार कर लेता है, परंतु रात्रि काल में उसकी गति इतनी मंद हो जाती है कि उतने ही नक्षत्रों को अठारह मुहूर्तों में पार कर पाता है। जैसे कुम्हार के चक्र के मध्य में स्थित वस्तु धीरे-धीरे चलती है। वैसे ही उत्तरायण समय में सूर्य मंदगामी होता है और थोड़ा-सा मार्ग भी अत्यंत दीर्घ समय में पार कर पाता है। इसलिए उत्तरायण का अंति दिवस अठारह मुहूर्त का होता है, क्योंकि उस दिन सूर्य की गति अत्यंत मंद होती है। ज्योतिष क्रार्द्ध के साढ़े तेरह नक्षत्रों को वह एक दिन में पूरा करता है, परंतु रात्रि के समय उतने ही नक्षत्रों को बारह मुहूर्तों में पूरा कर लेता है। इसलिए जैसे नाभि देश में चाक धीरे-धीरे घूमता है, जिससे वहां का मृत्पिंड भी मंद गति से घूमता है। हे मेत्रेयजी! जैसे कुम्हार के चाक की नाभि अपने ही स्थान पर घूमती रहती है, वैसे ही ध्रुव भी अपने ही स्थान पर घूमता रहता है। इस तरह से ये पूरी प्रक्रिया चलती रहती है।


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