‘शांद या शांत’ उत्सव में देवी-देवताओं को भी बुलाया जाता है

By: Jul 10th, 2019 12:04 am

सभी दर्शकों और गांववालों के संबंधियों का स्वागत किया जाता है तथा चार-पांच दिनों तक उन्हें धाम (खाना) खिलाई जाती है। इसमें आसपास के गांवों के देवी-देवताओं को भी बुलाया जाता है। भोज भी शांद की भांति का ही उत्सव है, जिसे कोली लोग ही मनाते हैं…

गतांक से आगे …

‘शांद’ या ‘शांत’:

 सभी दर्शकों और गांववालों के संबंधियों का स्वागत किया जाता है तथा चार-पांच दिनों तक उन्हें धाम (खाना) खिलाई जाती है। इसमें आसपास के गांवों के देवी-देवताओं को भी बुलाया जाता है। भोज भी शांद की भांति का ही उत्सव है, जिसे कोली लोग ही मानते हैं। नवाला ः शिव पूजा के रूप में मनाया जाने वाला गद्दी जनजाति के लोगों का यह प्रसिद्ध त्योहार है। यह पारिवारिक त्योहार है, जो परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवन में एक बार मनाना जरूरी है। नवाला शब्द को नव-माला त्योहार (नौ मालाओं का) विकृत रूप माना जाता है। नवाला मनाते समय, रात को घर के एक कमरे में गोबर लीप कर चावल के सूखे आटे से चौकोर मंडल बनाकर शिव-पिंडी स्थापित करके शिव-पूजा की जाती है। शिव-पिंडी के सामने गंदम और दालों आदि के ढेर लगाए जाते हैं, जो कैलाश पर्वत और उसके आसपास की पहाडि़यों को दर्शाते हैं। स्थानीय प्राप्त फूलों के हार बनाकर पिंडी के ऊपर छत से लटकाए जाते हैं। पुरोहित यह सारा कार्यक्रम करवाता है और नवाला करवाने वाला व्यक्ति शिव पिंडी को भेंट चढ़ाता है। कई तो बकरे की बलि देते हैं, परंतु जो व्यक्ति हिंसा के परहेज करते हैं, वे नारियल चढ़ाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, सारी रात शिव महिमा के गीत गाए जाते हैं, जिन्हें ‘ऐंचली’ कहते हैं। फिर गुर या चेले को बुलाया जाता है, जो शिव को भेंट चढ़ाते समय ‘खेलता’ है। प्रश्न पूछे जाने पर वह खेल में उनका उत्तर देता है, क्योंकि उसके माध्यम से शिव स्वयं बोलते हुए माने जाते हैं। यह कार्यक्रम आधी रात तक चलता है। उसके बाद गांव के लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं। दूसरे दिन सबको भोजन खिलाया जाता है। सामूहिक नाच-गान और खानपान पहाड़ों के त्योहारों और मेलों का सर्वोपरि पहलू रहता है, परंतु सभ्यता के विकास और लोगों के विश्वासों में परिवर्तन आने के कारण प्राचीन गाथाएं और गरिमाएं परिवर्तन की ओर अग्रसर हो रही है। कोई बड़ी बात नहीं कि हमारे सांस्कृतिक जीवन के ये पहलू अतीत की बात बन जाए। प्रदेश में मनाए जाने वाले त्योहारों के सांस्कृतिक पहलू के साथ-साथ अब आर्थिक पहलू भी जुड़ गया है। जहां पहले त्योहार सामाजिक तथा सांस्कृतिक सनिग्धता का प्रमाण होते थे, आज आर्थिक संपन्नता तथा दिखावे का रूप लेते जा रहे हैं।   


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