हमेशा जिंदा रहेंगी शीला दीक्षित
दिल्ली की लगातार 15 सालों तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित नहीं रहीं। उनका पार्थिव देहांत हो गया। यह किसी के भी निधन की एक और खबर हो सकती है, क्योंकि यही जीवन का अंतिम सत्य है। लेकिन दिल्ली स्तब्ध है, उदास है, खामोश और भावुक है। कोई ‘पूर्वांचल की माई’, तो कोई ‘सियासत की मां’ के तौर पर शीला को याद कर रहा है। आम आदमी के साथ उनका कोई न कोई रिश्ता जरूर था। ऐसी शख्सियत मर कैसे सकती है? उनके पहले और बाद में मुख्यमंत्री आते रहे हैं। यह एक निरंतर राजनीतिक और संवैधानिक प्रक्रिया है, लेकिन शीला दीक्षित को इसके पार जाकर याद किया जा रहा है। दिल्ली ने अपना मूल्यवान, भद्र, संयमी, कर्मठ और शालीन नेता खोया है। यह उस पीढ़ी के राजनेता का आखिरी सफर पर चले जाना है, जिसने मूल्यों और सभ्यता-संस्कृति की राजनीति की। आज गाली-गलौज वाली राजनीतिक जमात उनसे कुछ सबक लेगी। दरअसल शीला ने ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को नई और आधुनिक दिल्ली बनाया, लिहाजा वह तो हमेशा प्रासंगिक रहेंगी। दिल्ली को 100 से ज्यादा फ्लाईओवर और लंबी-चौड़ी, पक्की सड़कों के जरिए आपस में जोड़ा। बुनियादी ढांचे का यह सिलसिला आज भी जारी है। मेट्रो ट्रेन को मूर्त रूप दिया, जिसमें औसतन 28 लाख यात्री हर रोज यात्रा करते हैं। बड़े-बड़े पुलों और सड़कों के लिए उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकारों से भी जमीनें हासिल कीं, लेकिन कोई भी विवाद नहीं उभरा। खासकर यमुना पार दिल्ली को झुग्गियों के विस्तार और उनके भीतर पनपते अपराधों से मुक्ति दिलाई। दिल्ली वालों को 24 घंटे बिजली मुहैया कराई और बिजली चोरी का दौर भी समाप्त किया। ब्लू लाइन बसों को हटाकर सीएनजी बसें सड़कों पर उतारीं। लोगों ने अपने वाहन भी सीएनजी वाले करने शुरू किए। इस तरह शीला ने दिल्ली में प्रदूषण के खिलाफ एक मोर्चा तो जीता। उनके ही कार्यकाल के दौरान दिल्ली का ग्रीन कवर बढ़ाया गया, जिससे पर्यावरण को सुरक्षा मिली। यदि आज दिल्ली विश्व स्तरीय महानगर है, तो उसमें शीला दीक्षित का अहम योगदान रहा है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के विकास में उनके योगदान को माना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शीला की बहन के आवास पर जाकर दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि दी और परिजनों को ढांढस बंधाया। ऐसा व्यक्तित्व कभी मर कैसे सकता है? पार्थिव देहावसान तो कुदरत की प्रक्रिया है। शीला दीक्षित का व्यक्तित्व मिश्रित संस्कृतियों का था। उनका जन्म कपूरथला के एक पंजाबी परिवार में हुआ। दिल्ली के मिरांडा हाउस के आधुनिक और खुले माहौल में उच्च शिक्षा प्राप्त की, लेकिन जीवन साथी के तौर पर उत्तर प्रदेश के परंपरागत ब्राह्मण परिवार के युवक को चुना। पति विनोद दीक्षित आईएएस अफसर थे। एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु बहुत पहले हो गई थी। इंदिरा गांधी सरकार में गृहमंत्री रहे उमाशंकर दीक्षित शीला के ससुर थे। वह पश्चिम बंगाल और कर्नाटक के राज्यपाल भी रहे। दरअसल सियासत का गुरुमंत्र उन्होंने ससुर जी से ही सीखा। कन्नौज से दो बार सांसद चुनी गईं और राजीव गांधी की सरकार में संसदीय कार्य मंत्री और पीएमओ में राज्यमंत्री के दायित्व संभाले। दिल्ली की राजनीति में शीला का उभार तब हुआ, जब राष्ट्रीय स्तर पर अटल-आडवाणी की सत्ता थी। दिल्ली में भी मदनलाल खुराना और विजय कुमार मल्होत्रा सरीखे भाजपाई दिग्गजों का डंका था। शीला दीक्षित का किसी से भी टकराव नहीं हुआ। जो टकराव और आरोप-प्रत्यारोप आज केजरीवाल सरकार और केंद्र की मोदी सरकार के दरमियान दिखाई देते हैं, वे शीला जी ने कभी भी पैदा नहीं होने दिए। उस दौर में उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस को चुनाव जीतना सिखाया। उनके नेतृत्व में 1998 में भाजपा दिल्ली में क्या हारी, उसके 21 साल बाद भी सत्ता से बाहर है। बेशक संसदीय चुनाव में भाजपा एकतरफा जीत हासिल करती रही है, लिहाजा शीला दीक्षित को उस दौर की ‘कांग्रेसी महानायक’ भी कह सकते हैं। अब उनके बिना कांग्रेस और समर्थक खून के आंसू रोएंगे। जब 2013 में वह अरविंद केजरीवाल के मुकाबले विधानसभा चुनाव हार गईं, तो एकबारगी लगा कि राजनीति में विकास बेमानी है, लेकिन कुछ महीने बाद ही दिल्ली के लोग पश्चाताप करने लगे। बहरहाल अब तो पार्थिव तौर पर शीला हमारे बीच नहीं रहीं, लेकिन दिल्ली की बड़ी क्षति हुई है, ऐसा मौजूदा मुख्यमंत्री केजरीवाल का मानना है।
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