हवाई परिवहन से फैलता प्रदूषण

By: Jul 10th, 2019 12:06 am

डा. ओपी जोशी

स्वतंत्र लेखक

वर्ष 2013 में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में हवाई सफर से प्रतिवर्ष लगभग दस लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होती है। वायुमंडल में बहुत ऊंचाई पर ठंडे वातावरण में विमानों से निकली गर्म गैसों पर वहां उपस्थित जलवाष्प एकत्रित होकर (संघनित होकर) धुंए की एक बादल जैसी लकीर खींचती हैं, जो हमें जमीन से भी दिखाई देती है। सेटेलाइट से प्राप्त चित्र दर्शाते हैं कि भारी हवाई यातायात के क्षेत्रों में ये बादल जैसी लकीरें तेजी से काफी अधिक संख्या में निर्मित होकर लंबे समय तक बनी रहती हैं। ये लकीरें दिन के समय सूर्य के प्रकाश की ऊष्मा या गर्मी को परावर्तित कर देती हैं, परंतु रात्रि के समय पृथ्वी (भू-तल) से पैदा गर्मी को रोककर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में सहायता देती हैं…

बढ़ते हवाई यातायात में विभिन्न प्रकार के वायुयानों के उत्सर्जन से वायुमंडल में विभिन्न ऊंचाइयों पर एवं हवाई अड्डों के आसपास के क्षेत्रों में पर्यावरण बिगड़ रहा है। पर्यावरण वैज्ञानिकों को डर है कि इस बढ़ते हवाई यातायात से आकाश में भी जाम की स्थिति पैदा न हो जाए। अंतरराष्ट्रीय तथा घरेलू एयर लाइंस से जुड़ी कंपनियां अपने-अपने विमानों की संख्या लगातार बढ़ा रही हैं एवं निजी कंपनियां छोटे-छोटे शहरों में भी वायु सेवा देने के लिए प्रयासरत हैं। सरकार ने ‘उड़ान’ योजना प्रारंभ की है, जिसके तहत उन क्षेत्रों को जोड़ा जाएगा जहां हवाई संपर्क कम या नहीं है। इसके साथ ही सुरक्षा के लिए एवं बढ़ते आतंकवाद के विरुद्ध विभिन्न देशों की वायु सेनाएं भी अपनी गतिविधियां बढ़ा रही हैं। बड़ी कंपनियों के मुखियाओं के अलावा सरकार के अफसर, मंत्री भी सुविधाजनक हवाई जहाज या हेलीकाप्टर खरीदकर उनकी संख्या बढ़ा रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारतीय आकाश में वायुयानों की गतिविधियां 15 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रही हैं। हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक हवाई यात्राओं में लगभग 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

विमानों के उड़ने, उतरने एवं अपने गंतव्य स्थान तक का सफर तय करने के दौरान उत्सर्जन से वायु मंडल के विभिन्न स्तर तथा हवाई अड्डों के आसपास के क्षेत्र प्रदूषित होते पाए गए हैं। विमानों के इंजन की स्थिति तथा ईंधन (एयर टरबाइन फ्यूल) की दहन स्थिति के अनुसार, जो पदार्थ उत्सर्जित होते हैं, उनमें कार्बन डाईऑक्साइड एवं मोनो-ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बंस, सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, जलवाष्प, सीसा (लेड) तथा कार्बन के कण प्रमुख होते हैं। कार्बन मोनो-ऑक्साइड ऑक्सीजन के संपर्क से कार्बन डाईऑक्साइड में बदल जाती है, जो एक प्रमुख ‘ग्रीन-हाउस गैस’ है। ‘लिपास्टो’ नामक एक संस्था ने कुछ वर्ष पूर्व प्रारंभिक तौर पर प्रति हवाई यात्री द्वारा पैदा कार्बन डाईऑक्साइड की गणना की थी।

इस गणना के अनुसार घरेलू, कम दूरी की उड़ानों (लगभग 460 किलोमीटर से कम) में 257 ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड प्रति यात्री उत्सर्जित होती है। बहुत लंबी दूरी की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में यह मात्रा घटकर 115 ग्राम हो जाती है। यूरोपीय संघ में बढ़ते हवाई यातायात से 1990 से 2006 के मध्य प्रमुख ‘ग्रीन-हाउस गैस’ कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 80 से 85 प्रतिशत तक बढ़ा था। वर्ष 2013 में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में हवाई सफर से प्रतिवर्ष लगभग दस लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होती है। वायुमंडल में बहुत ऊंचाई पर ठंडे वातावरण में विमानों से निकली गर्म गैसों पर वहां उपस्थित जलवाष्प एकत्रित होकर (संघनित होकर) धुंए की एक बादल जैसी लकीर खींचती हैं, जो हमें जमीन से भी दिखाई देती है। सेटेलाइट से प्राप्त चित्र दर्शाते हैं कि भारी हवाई यातायात के क्षेत्रों में ये बादल जैसी लकीरें तेजी से काफी अधिक संख्या में निर्मित होकर लंबे समय तक बनी रहती हैं। ये लकीरें दिन के समय सूर्य के प्रकाश की ऊष्मा या गर्मी को परावर्तित कर देती हैं, परंतु रात्रि के समय पृथ्वी (भू-तल) से पैदा गर्मी को रोककर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में सहायता देती हैं। इंग्लैंड के कुछ विश्वविद्यालयों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार ब्रिटेन के वार्षिक हवाई यातायात में रात्रि-कालीन उड़ानें केवल 22 प्रतिशत हैं, परंतु बादल जैसी लकीरों से पैदा गर्मी का योगदान 60 से 80 प्रतिशत तक होता है। बढ़ते हवाई यातायात से हवाई अड्डों पर तथा इसके आसपास के क्षेत्रों में वायु एवं शोर प्रदूषण बढ़ जाता है। वायुयानों के उतरते तथा उड़ते समय प्रदूषित गैसों का उत्सर्जन चार गुना बढ़ जाता है। जेट यान से उत्सर्जित गैसों में बेंजापायरोन की उपस्थिति भी देखी गई है, जो कैंसर को जन्म देता है। घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय विमान तलों पर ज्यादा यातायात या मौसम की खराबी के कारण कई विमानों को उतरने की अनुमति नहीं दी जाती, तो उन्हें इंतजार में आकाश में चक्कर लगाने पड़ते हैं, जिससे विमान तल तथा आसपास की वायु की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

विमान तल पर यात्रियों को लेने एवं छोड़ने आए वाहनों से भी इस क्षेत्र में वायु एवं शोर प्रदूषण बढ़ जाता है। एयर टै्रफिक के समय कुछ देर के लिए शोर प्रदूषण का स्तर 100 डेसीबल तक पहुंच जाता है। वैसे यह सुखद है कि हवाई यातायात से पैदा वायु प्रदूषण एवं शोर प्रदूषण पर ध्यान देकर अब रोकथाम के प्रयास प्रारंभ किए गए हैं। देश के ‘नागर विमानन महानिदेशालय’ (डीजीसीए) ने भारतीय विमानतलों पर विमानों के उड़ने एवं उतरने के समय पैदा शोर में कमी लाने के लिए सिविल एविएशन नियमों में अक्तूबर 2017 से संशोधन किया है। यह संशोधन ‘अंतरराष्ट्रीय सिविल एविएशन आर्गेनाइजेशन’ तथा ‘एविएशन एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी’ के सुझावों पर आधारित है। इसके साथ ही जनवरी 2019 से भारतीय विमान सेवा कंपनियों की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के दौरान कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन का रिकार्ड देने के लिए कहा है। ‘राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण’ (एनजीटी) ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय को वर्ष 2017 में दिल्ली के ‘इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे’ पर शोर प्रदूषण कम करने का आदेश दिया था।

आदेश के पालन में हवाई अड्डे के रन-वे 29/11 पर शोर अवरोधक दीवार बनाई गई है, जो लगभग एक किमी लंबी तथा पांच फीट ऊंची है। इस दीवार को ‘आईआईटी-दिल्ली’ ने डिजाइन किया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित पर्यावरण के सम्मेलनों में इस समस्या पर विचार-विमर्श कर हवाई यातायात के संदर्भ में पर्यावरण हितैषी नीतियां बनाकर उन पर अमल करने के प्रयासों पर जोर दिया जाना चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े ‘क्योटो-प्रोटोकोल’ में भी इसे जगह दी जानी चाहिए। एक जमाने में अमीरों के महंगे परिवहन का सुविधाजनक साधन माना जाने वाला हवाई यातायात अब अनेक शहरों, व्यक्तियों के लिए आम बात हो गया है। जाहिर है, बडे़ पैमाने पर बढ़ते-फैलते हवाई परिवहन ने उसी दर्जे की पर्यावरणीय समस्याएं भी खड़ी कर दी हैं।


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