हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश

By: Jul 21st, 2019 12:05 am

किस्त – तीन

हिमाचल का नैसर्गिक सौंदर्य बरबस ही हरेक को अपनी ओर आकर्षित करता है। साथ ही यह सृजन, विशेषकर साहित्य रचना को अवलंबन उपलब्ध कराता रहा है। यही कारण है कि इस नैसर्गिक सौंदर्य की छांव में प्रचुर साहित्य का सृजन वर्षों से हो रहा है। लेखकों का बाहर से यहां आकर साहित्य सृजन करना वर्षों की लंबी कहानी है। हिमाचल की धरती को साहित्य सृजन के लिए उर्वर भूमि माना जाता रहा है। ‘हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश’ कितनी है, इस विषय पर हमने विभिन्न साहित्यकारों के विचारों को जानने की कोशिश की। पेश है इस विषय पर विचारों की तीसरी कड़ी…

साहित्यिक गुंजाइश ढूंढते रोबोट युग आ जाएगा

डा. सुशील कुमार फुल्ल

वरिष्ठ कथाकार योगेश्वर शर्मा जी की एक कहानी है ‘सड़क पर पहाड़’, जो साल-दो साल पहले मंडी जिले में हुई भूस्खलन की त्रासदी को रेखांकित करती है। पहले पहाड़ पर सड़क थी, परंतु पहाड़ के खिसकने-फिसलने से सड़क पर पहाड़ आ गिरा। वीडियो बनाने वाला राहगीर मोटर साइकिल सवार अपनी कला में इतना तल्लीन हो गया कि उसे पता ही नहीं चला कब पहाड़ का स्खलित हो रहा खंड उसे काल का ग्रास बना गया। अतः हिमाचली जीवन भी अब पुराना संस्कारशील, संगीतमय, मोना की स्वर लहरियों में डूबा देवताओं की भूमि नहीं रह गया, बल्कि यह समय के साथ त्वरित गति से फेसबुक, व्हाट्सऐप और भरे पूरे घर में भी एकांत वास का पर्याय बनता जा रहा है। साहित्यिक गंजाइश सिमटती जा रही है। केवल धार्मिक साहित्य, ठाकुरपूजा की घंटियों के साथ अवशेष हैं और इसमें भी मंत्रोच्चार कैसेट्स से ही होने लगा है। हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश उसी तरह कम हो गई है, जैसे आज की पत्र-पत्रिकाओं, विशेषकर साप्ताहिक पृष्ठों में से साहित्य विलुप्त हो गया है और अब कापीराइट से मुक्त हो गए दिवंगत लेखकों की मशहूर रचनाओं के पुनर्प्रकाशन से ही संतुष्ट हैं। मोबाइल कान से चिपके रहते हैं, कोई घर में हो या बाहर।

यह संक्रमण काल है। बस अपनी ही छवि को नेट पर देख-देख इतराना, लाअक्स और गुड मार्निंग में व्यस्त रहना, यही हिमाचली जीवन है और आशु कविता या कोई भी रचना बनाना, घड़ना कितना आसान हो गया है, ऐसे में साहित्यिकता की आवश्यकता ही क्या है? बदलते परिवेश में जीवन में साहित्यिकता की गंध बीते समय की बात हो गए हैं। आज लोगों की जेबें ठसाठस भरी हुई हैं और पैसे से जब चाहो, जो चाहो, छपवा लो और विमोचन, लोकार्पण की तस्वीरें पीठ पर चिपका लो और शेक्सपियर के फूल की तरह कहो ः मैं हूं सबसे बड़ा लेखक, सबसे बड़ा चिंतक। जय हो व्यक्तिवाद, जय हो अर्थवाद। हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश ढूंढते-ढूंढते रोबोट का युग आ जाएगा। अब तो कांगड़ी धाम में भी बंषुभाव या प्रीतड़ का साथ नहीं रहा, सब कुछ स्टैंडिंग हो गया तो जीवन में साहित्य की बयार कहां से फूटेगी?

कठिनाइयों के बावजूद हिमाचली साहित्य समृद्ध

डा. अदिति गुलेरी

देवभूमि हिमाचल प्रदेश में साहित्य सृजन हेतु वातावरण जैसा कल था, वैसा ही आज है। हिमाचल प्रदेश के अनेक साहित्यकारों द्वारा अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय साहित्यिक पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई गई है। महाकवि बृजराज, पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, पं. संतराम वत्स्य, मनोहर लाल, निर्मल वर्मा द्वारा चलाई गई यह साहित्यिक परंपरा आज भी अनवरत प्रवाहमान है। हिमाचल में रचित साहित्य की समग्र विधाओं में पद्य व गद्य लेखन किया जा रहा है। आज युवा लेखक अपने वरिष्ठ और समकालीन साहित्यकारों से प्रेरणा ले रहे हैं। हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश की अति आवश्यकता इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमारा आज का युवा या तो नशे की गिरफ्त में है या फिर मोबाइल की गिरफ्त में है। पहले माता-पिता घरों में बच्चों के लिए बाल पत्रिकाएं लाते थे। बच्चे संयुक्त परिवार में पलते थे। दादा-दादी, नाना-नानी से कहानियां सुनते थे। उन कहानियों से वे परोक्ष रूप में सब शिक्षाएं और सारस्वत संस्कार पाते थे। ये शिक्षाएं और संस्कार उनके भावी जीवन में फलदायी होते थे, परंतु यह विडंबना है कि आज हम बच्चों के हाथ में एक मोबाइल देकर अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। साहित्य का परिचय तो दूर की बात है, हम उनके साथ अच्छा समय भी बिताने में असमर्थ हो जाते हैं। बच्चों को प्रारंभिक स्तर पर साहित्य में अभिरुचि, तदुपरांत साहित्य की उपादेयता समझाना अभिभावकों व अध्यापकों के लिए अनिवार्य है। साहित्य जहां थके मानुष को विश्रांति प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर निराश-हताश व्यक्ति को पुनः जगाने हेतु आंदोलित भी करता है। बाल, युवा और वरिष्ठ पाठक-लेखक की यह मजबूत कड़ी टूटनी नहीं चाहिए। हिमाचल में रचित साहित्य के नए लेखक की सबसे बड़ी समस्या अभिव्यक्ति की होती है, अनुभूति की नहीं। वह छंदबद्ध लिखे या छंदमुक्त, वह सरल लिखे या क्लिष्ट, यह समस्या वह स्वयं बुन लेता है। कभी-कभी अपने विचारों को जबरदस्ती शिल्प में थोपने की कोशिश भी करता है। लेखक की अनुभूति जिस विधा से सहजता से अभिव्यक्त हो सके, उसे उसी विधा में लिखना चाहिए। अगर वह अपनी मनपसंद विधा में लिखता है, तो वह अवश्यमेव पाठक की रूह तक पहुंच जाता है और उसकी कृति सफल हो जाती है। हिमाचल में लिखने वाले साहित्यकारों की दूसरी समस्या यह है कि अकसर माना जाता है कि बड़े अखबार या पत्रिकाएं सिर्फ बड़े लेखकों की ही रचनाएं छापते हैं (कुछ अपवादों को छोड़कर), यह पूर्ण सत्य नहीं है। इसके बावजूद हिमाचल में साहित्य लेखन की अपार संभावनाएं हैं। हिमाचल का साहित्य समृद्ध था, समृद्ध है और समृद्ध रहेगा।

लोक गाथाओं-कलाओं में निहित है साहित्य

श्रीकांत अकेला

यह सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज चाहे जिस वर्ग या संस्कृति का भी हो, साहित्य सदा उसे पोषित करता आया है। साहित्य का समाज और उसकी संस्कृति को पल्लवित्त और पोषित करने में बड़ा योगदान है। इसलिए इस ओर सदैव एक सकारात्मक दृष्टिकोण जरूरी है। जहां तक हिमाचल में साहित्य की संभावनाओं की बात है, यह प्रचुर है, सार्थक और शायद यह देवभूमि साहित्य को नई दिशा एवं दशा देने में समर्थ भी है। हिमाचल की लोक गाथाओं में, लोक कलाओं में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से साहित्य निहित है। बस आवश्यकता दूर-दूर आंचलिकता में उसे तराशने की है। हमारा लोक जीवन स्वयं एक साहित्य का विशाल भंडार है। हमारी सांस्कृतिक विविधता और सांस्कृतिक वैभव खुद लोक गीतों और गाथाओं के रूप में साहित्य का पोषक है, लेकिन शायद आधुनिकता की अंधी दौड़ में कुछ पीछे दिख रहा है। आज हमारे सरकारी और गैर सरकारी प्रयास शायद उतना कुछ नहीं कर पा रहे हैं जितने होने चाहिए। यह भी एक कटु सत्य है कि हमने साहित्य को घर की अल्मारियों में कैद कर लिया है या फिर कुछ पाने की लालसा में उसे स्वयं तक ही सीमित रखा है और साहित्य को व्यापकता नहीं मिल पा रही है। इसलिए यदि यथार्थ के धरातल पर सफल प्रयास किए जाएं तो इस देवभूमि में विविध रूप में साहित्य और साहित्यिक आभा को निखारा जा सकता है। इस दिशा में पिछले कुछ सालों में सरकार की ओर से कुछ सफल प्रयास भी हुए हैं। वैसे यह एक विडंबना है कि आज का युवा इंटरनेट व सोशल मीडिया की ओर ज्यादा उन्मुख हुआ है। साहित्य में वह कमोबेश रुचि नहीं ले पा रहा है। हालांकि कुछ संख्या में युवा इंटरनेट व सोशल मीडिया के माध्यम से ही साहित्य से परिचित हो पा रहे हैं। वैसे हिमाचल में लेखकों के सामने कई कठिनाइयां हैं, उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है, इसके बावजूद साहित्यिक सृजन के लिए व्यापक गुंजाइश है। यहां के कल-कल करते झरने, ऊंची-ऊंची पहाडि़यां तथा नैसर्गिक सौंदर्य हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है। ऐसे वातावरण में साहित्य सृजन के लिए सहज ही अच्छा माहौल मिल जाता है। यही कारण है कि यहां बाहर से आकर लेखक खुशनुमा माहौल में साहित्य सृजन करते रहे हैं। हिमाचल के लेखक भी कमोबेश साहित्य सृजन करके हिंदी व पहाड़ी साहित्य संसार को धनी बनाने में जुटे हुए हैं। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में लेखकों और साहित्यकारों को सरकार की ओर से विशेष प्रोत्साहन मिलेगा और साहित्य सृजन के लिए अनुकूल वातावरण बनेगा।

हिमाचली जीवन में साहित्य की व्यापक गुंजाइश

प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत हिम के आंचल में बसा हिमाचल, पहाड़ी दुर्गम क्षेत्र होने के कारण जहां विकट परिस्थितियों का साक्षी है, वहीं साहित्य सृजन का प्रेरणा स्त्रोत है। मनोहारी हरीतिमा, शांत वातावरण, झर-झर बहते झरने, बलखाती नदियां, हिमाच्छादित पर्वत व आकर्षक घाटियों का मिश्रित सम्मोहक प्रभाव सृजनात्मकता के संवर्धन में स्वयं सक्षम है। किसी भी क्षेत्र का साहित्य वहां के सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक परिवेश के अतिरिक्त परंपराओं, संस्कृति, प्रचलित मान्यताओं व उन्नति का द्योतक होता है। हिमाचली जनजीवन में लोक गाथाओं, लोक कलाओं व पारंपरिक लोक गीतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो वेदों-पुराणों को रचने वाले ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रही। यह इस देवभूमि में सदियों से रचे जा रहे साहित्य की ओर इंगित करता है व समय के साथ कदमताल करते विभिन्न रूप धर परवान चढ़ा। ‘बुलबुले पहाड़’ बाबा कांशी राम, चंद्रधर शर्मा गुलेरी व यशपाल जी रचित अमूल्य साहित्य इसका प्रमाण है। बाहरी राज्यों के प्रतिष्ठित साहित्यकार यहां सृजनकर्म हेतु आते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि साहित्य लेखन अनवरत होता रहा है व इसके उत्थान की अपार संभावनाएं हैं। भाषा कला संस्कृति विभाग, भाषा कला अकादमी, पुस्तक मेलों के आयोजकों और स्वैच्छिक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रम साहित्यिक वातावरण को पोषित करने के अतिरिक्त सभी विधाओं के रचनाकारों की प्रतिभा प्रदर्शन व निखरने का सुअवसर प्रदान कर रहे हैं। इन कार्यक्रमों में सभी आयुवर्ग, विशेषतः युवाओं की सक्रिय भागीदारी यहां प्रचुर मात्रा में साहित्य सृजन को दर्शाती है। हिमाचल की उत्कृष्ट कृतियों का अन्य भाषाओं में अनुवाद हो रहा है व राष्टृय स्तर पर सराहा जा रहा है। निकटवर्ती राज्यों की साहित्यिक संस्थाएं यहां साहित्य सम्मेलन करवाती हैं। इन रुझानों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हिमाचल में साहित्य संवर्धन की भरपूर गुंजाइश है। आवश्यकता है बस निरंतर प्रोत्साहन, उचित मार्गदर्शन तथा प्रचार-प्रसार की, जिसमें इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया का सदुपयोग सहायक हो सकता है ताकि रचनाकार हिमाचली जनजीवन के सरोकारों व मानवीय मूल्यों का पैनी कलम से शब्दों में सचित्रण करते रहें। निःसंदेह यहां पनप  रही साहित्य सृजन की धारा अविरल बहते-बहते उच्चकोटि के साहित्य में शामिल हो प्रदेश को  गौरवान्वित करेगी।

सूचना

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नए लेखकों को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता

ओमदेवी सैनी

साहित्य समाज का प्रतिबिंब होता है। साहित्य  के बिना समाज का अस्तित्व नहीं होता। हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश के विषय में जाने से पहले हमें समूचे साहित्य अर्थात कविता, कहानी, नाटक, एकांकी, लोकगीत आदि के बारे में गूढ़ता से अध्ययन करना होगा, हमें तभी पता लगेगा कि साहित्य ने किस स्थान पर अपना अस्तित्व बनाए रखा है। मैं कोई स्थापित साहित्यकार नहीं हूं, लिखने का शौक है। लेकिन मंच न मिलने के कारण अधूरेपन का साया साथ चलता रहा। भावों को व्यक्त करने का अधिकार तो हम सभी को है। कुछ कविताएं अखबारों में भी आईं, परंतु आगे बढ़ने के लिए यह काफी नहीं है। जो लेखक, कवि राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बना पाए हैं, उनमें गिने-चुने लेखकों के नाम आते हैं। उभरते कवि, लेखकों को आगे बढ़ने के अवसर नहीं मिलते। उनके लेखों पर भद्दे आक्षेप, नए सिरे से खारिज करना, आगे बढ़ने का अवसर न देना, ये रास्ते में रुकावट बनती है। आज जरूरत है लेखन संबंधी मामलों में ओछी राजनीति अपना हस्तक्षेप न करे। आज भाषा विभाग तथा अन्य संस्थाओं को निष्पक्ष निर्णय की आवश्यकता है, परंतु ऐसा नहीं होता। निजी संस्थाओं की भी साहित्यिक कार्यक्रम करवाने में रुचि नहीं होती। छोटे प्रदेश में केवल कुछ लोग ही अपना कार्यक्रम करवा पाते हैं। इसलिए साहित्य का संचार व प्रसार तथा उत्कृष्ट साहित्य का सृजन नहीं हो पाता। मनुष्य को परमात्मा ने अनेक शक्तियों से नवाजा है। जब इन शक्तियों को बाहर निकल कर अनुकूल वातावरण मिल जाता है, तब सृजन होता है। हिमाचल में भी चाहे भौगोलिक परिस्थिति जो भी रही हो, परंतु लेखकों, कवियों, साहित्यकारों ने साहित्य जगत को कई उपहारों से नवाजा है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानियों में ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। क्रांतिकारी यशपाल, जिन्होंने जेल में रहकर उपन्यास, नाटक, एकांकी आदि साहित्य लिखकर अपना पूर्ण सहयोग दिया। आज भी बहुत से लेखक अपनी लेखनी के जरिए साहित्य को चार चांद लगाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में लेखन के लिए अपार संभावनाएं हैं। कलकल करती नदियां, झर-झर बहते झरने, ऊंची-ऊंची पहाडि़यां, फूलों पर गुनगुनाते भ्रमर, ये सब हमें अपनी ओर आकर्षित करते हैं। केवल जरूरत है हिमाचली जीवन में बेहतरीन साहित्यिक गुंजाइश के लिए अपनी कलम की धार को तेज करने की। वैसे हिमाचल का नैसर्गिक सौंदर्य साहित्य सृजन के लिए बेहतर माहौल उपलब्ध करवाता है। यही कारण है कि कई हिमाचली लेखक साहित्य संसार को धनी बनाने में जुटे हुए हैं। मेरा विश्वास है कि भविष्य में प्रदेश में साहित्य सृजन के लिए अनुकूल वातावरण बनेगा और नए-नए लेखक अपनी प्रतिभा के बल पर साहित्य संसार में उभर कर सामने आएंगे।

सोशल मीडिया पर लेखन को मिलता खुला आसमान

जगदीश बाली

साहित्यकार

खुदा ने सृष्टि की रचना की और इस सृष्टि पर राज करने के लिए मानव नाम के प्राणी को रच डाला। मानव में संवेदनाएं हैं, भावनाएं हैं, सोचने की शक्ति है। उन्हें व्यक्त करने के लिए उसे जुबान मिली है और जुबान के लिए उसने शब्द रच डाले। स्वतंत्र समाज में स्वतंत्र व्यक्ति के व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए शब्द महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आरंभ में मानव अपने विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं व मतों का मौखिक रूप से आदान-प्रदान करता रहा। श्रुति और स्मृति के माध्यम से होते हुए ज्ञान के प्रसार के लिए लिपि का आविष्कार किया गया और फिर शब्द पत्थरों, वृक्षों की छालों पर खोदकर लिखे जाने लगे। मानव तरक्की करता चला गया। ताड़पत्रों और भोजपत्रों से होते हुए शब्द कागज पर उतरने लगे और फिर आई प्रिंटिंग मशीन। आज आ गया कंप्यूटर और कंप्यूटर के साथ आ गया इंटरनेट। इंटरनेट के आते ही सूचनाओं के आदान-प्रदान की बाढ़ आ गई। लैपटॉप से होता हुआ इंटरनेट अब पांच इंच की स्क्रीन पर अपना कमाल दिखा रहा है। आज हम इंटरनेट, वेबसाइट्स और सोशल मीडिया के जमाने में रह रहे हैं। जहां तक साहित्य का सवाल है, इस पांच इंच की स्मार्ट स्क्रीन पर साहित्य का सैलाब सा आ गया है। इंटरनेट का सबसे बड़ा फायदा है हम आज विश्व के लेखकों की पुस्तकें या तो नेट पर पढ़ सकते हैं या मंगवा सकते हैं। हमें इतना पैसा खर्च कर चंडीगढ़, नई सड़क या दरियागंज दिल्ली जा कर दुकानें छानने की आवश्यकता नहीं। वैसे भी व्यक्ति कितनी किताबें खरीद सकता है, इधर वह अपनी रुचि की पुस्तकें ऑनलाइन पढ़ रहा है। उसे अपने साथ पुस्तकें उठाने की जरूरत नहीं क्योंकि पांच इंच के स्मार्ट फोन पर वह पुस्तकों की पूरी दुनिया लेकर चल रहा है। कहने का मतलब है साहित्य हर एक की पहुंच में है। सफल साहित्यकार बनने के लिए अपने साहित्य के साथ दूसरे साहित्य का ज्ञान होना भी आवश्यक है अन्यथा उसका अपना साहित्य कुंद रह जाता है। ये सुविधा इंटरनेट पर उपलब्ध है। उदाहरणतः जहां आप हिंदी के कबीर, सूरदास, रहीम, जयशंकर प्रसाद, दिनकर, प्रेमचंद, दुष्यंत, निराला, गोपाल दास नीरज इत्यादि को पढ़ रहे हैं, वहीं आप उर्दू के महान शायर वसीम बरेलवी, साहिर, बशीर बद्र, नवाज देवबंदी, राहत इंदौरी, निदा फाजली इत्यादि शायरों को भी पढ़ सकते हैं। आप संस्कृत के भर्तृहरि को भी पढ़ सकते हैं और अंग्रेजी के जॉन मिलटन को भी। मजे की बात यह है कि आप केवल पढ़ ही नहीं रहे हैं, बल्कि यूट्यूब पर आप उन्हें देख-सुन भी सकते हैं और वो भी बिना एक टका दिए। कहने का तात्पर्य यह है कि एक लेखक के लिए नेट पर बहुत सारे साहित्य का सामान पड़ा है, जो उसे दिशा प्रदान कर सकता है। नए लेखक की सबसे बड़ी समस्या होती है अपनी रचना को छपवाना। प्रकाशक मोटी रकम मांगते हैं। अखबार वालों की भी अपनी सीमाएं व दायरे हैं। नेट ने लेखक की यह बाधा दूर कर दी है। वह सोशल मीडिया की ओर आता है और बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालता है। तुरंत प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो जाती हैं और उसे तसल्ली हो जाती है कि उसकी रचना सुनी व समझी जा रही है। गांव के किसी कोने, किसी खेत या छत पर बैठा कोई आदमी भी कविता या कहानी लिखना चाहता है। सोशल मीडिया उसके लिए सबसे उत्तम जगह प्रतीत होती है और वह बस लिख लेता है। जैसे ही भावनाओं या विचारों का कोई बुलबुला उसके मन में उठता है, वह उसे अपनी वॉल पर उंडेल देता है। गांव में बैठा वह व्यक्ति हर रोज शहर के बुक कैफे या कॉफी हाऊस या कवि गोष्ठियों में तो नहीं जा सकता। इस तरह सोशल मीडिया पर लेखकों का अंबार लगा है। अब उसे अपनी रचनाएं न छपने की चिंता है, न गम, क्योंकि उसे अपनी पांच इंच की स्क्रीन पर जगह मिल गई है। संभव है कि सोशल मीडिया पर जो लिखा जा रहा है, वह किसी मंझे हुए लेखक को स्तरहीन लग सकता है, परंतु स्तरहीनता का भी अपना-अपना अंदाज है। यदि पाठक को किसी का लिखा पसंद आ रहा है तो औरों को गिला क्यों? जिसकी कलम में ताकत होगी, वो कलम चलती रहेगी। यदि कोई बड़ा आलोचक अपनी टिप्पणियों से किसी के साहित्य की सकारात्मक आलोचना करता है तो जाहिर है उससे लेखक को खुद को सुधारने व सीखने का मौका ही मिलेगा। आलोचना का उद्देश्य आलोचना मात्र तो नहीं होना चाहिए। साहित्य समाज को आइना तो दिखाता ही है, परंतु साथ ही में आदर्श साहित्य अपने अंदाज में समाज को सही दिशा देने का प्रयास भी करता है। जहां साहित्य मानव संवेदना, कल्पना और सृजनात्मकता का शब्द रूप होता है, वहीं यह समाज को परिमार्जित और परिष्कृत करने का प्रयास भी करता है। काव्य, निबंध, नाटक, कहानी साहित्य की वे विधाएं हैं जिनमें साहित्यकार अपने विचारों और कल्पनाओं को शब्दित करता है। जो साहित्यकार अपनी विधा के माध्यम से जन तक पहुंच पाता है, वास्तव में वही साहित्य सार्थक है। अन्यथा साहित्य चंद बुद्धिजीवियों के समागम में की जा रही गोष्ठियों, उनकी चाय की मेज पर हो रही चर्चाओं या किसी बुक कैफे में की जाने वाली उनकी टिप्पणियों तक ही सीमित रह जाता है। जितने अधिक सृजनात्मक सोच रखने वाले लोग इस विधा से जुड़ पाए और जितने अधिक लोगों तक यह पहुंच पाए, समाज के लिए उतना ही बेहतर है। ये काम सोशल मीडिया कर रहा है। हो सकता है सोशल मीडिया पर लेखन की चोरी-चकारी बढ़ी हो, परंतु चोर तो किताबों से भी चुरा लेते हैं। वैसे मजे की बात यह है कि जो साहित्य के पंडित सोशल मीडिया पर लिखे जा रहे साहित्य को निकृष्ट कहते हैं, वे स्वयं भी सोशल मीडिया पर खूब फल-फूल रहे हैं। पांच इंच की स्क्रीन पर साहित्य का जो सैलाब है, उसे रोका नहीं जा सकता क्योंकि सैलाब तो अपना रास्ता बना ही लेता है। 

अपनी माटी से दूर जाने की दास्तान

पुस्तक समीक्षा

‘अस्तित्व की तलाश’ नामक कहानी संग्रह पढ़ने का सौभाग्य मुझे गत दिनों मिला। यह पुस्तक संदीप शर्मा द्वारा लिखी गई है और इसमें 20 कहानियां दी गई हैं। यह कहानियां लेखक के अनुभवपूर्ण जीवन की कहानियां हैं। सभी कहानियां ग्रामीण समाज की समस्याओं पर प्रकाश डालती हैं। यह कहानी संग्रह आधुनिकता के कारण विस्थापन, परपंराओं के पतन व आधुनिकता के जाल में जकड़ते पात्रों की अपनी माटी से दूर जाने की दास्तान व अन्य कई ज्वंलत विषयों पर चिंतन करता है। अपनी पहली किताब ‘अपने हिस्से का आसमान’ से ही स्ांदीप शर्मा देश व प्रदेश के आलोचकों व पाठकों की नजर में आ चुके हैं। संदीप शर्मा की कहानियां समसामयिक घटनाओं को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करते हुए मानवीय व्यवहार की प्रवृत्तिगत उठापटक चित्रित करती हैं। लेखक अपने पात्रों के मन में व्याप्त अंतरविरोधों को प्रभावशाली ढंग से उकेरने में सफल रहा है। कहीं परंपरावाद, पुश्तैनी काम खत्म होने की समस्या और कहीं मनोविश्लेषणकारी विचारधारा पाठक को बांधे रखती है। कहानियां कलात्मक सौष्ठव से सम्युक्त हैं। लेखक ने कई आंचलिक शब्दों को कहानी में स्थान ही नहीं दिया, अपितु उसे शीर्षक बनाया है। संग्रह की पहली कहानी ‘कलाकार’ एक ऐसे अतिसंवेदनशील चित्रकार की कहानी है जो कि चित्र बनाते समय ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास हो जाता है। यह एक फंतासी कहानी है। एक कैनवास पर पेंटिंग्स बनाने वाले कलाकार की द्वंद्वात्मक स्थिति और पेंसिल से निर्मित चरित्रों से आत्मिक संवाद करती है। संग्रह की दूसरी कहानी ‘अस्तित्व की तलाश’ नदियों पर बनाए जाने वाले बाधों से विस्थापित हुए लोगों के अंतर्मन की व्यथा है। बांध बनने से गांव के जल समाधि लेने और माटी के प्यार में दीवाने नहलू के जल में डूब जाने की कथा है। कहानी का नहलू पात्र अविस्मरणीय चरित्र है जो बांध बनने के परिणामस्वरूप जमीन के खोने से आक्रांत होकर मृत्यु को गले लगाता है। इसी तरह संग्रह की अन्य कहानियां भी जहां मनोरंजन करती हैं, वहीं कोई न कोई सामाजिक संदेश देती हैं। आशा है यह संग्रह पाठकों को अवश्य पसंद आएगा।

-डा. मोती राम शर्मा, हमीरपुर


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