अज्ञात का डर

By: Aug 17th, 2019 12:20 am

श्रीश्री रवि शंकर

अज्ञात का डर मनुष्य की एक सामान्य प्रवृत्ति है। अधिकतर लोग निरंतर इसी कार्य में व्यस्त रहते हैं  कि उनकी दुनिया बिलकुल वैसी हो जैसी उन्होंने अपने मन में कल्पना की थी, लेकिन वास्तविकता यह है कि तब तक विकास की संभावना नहीं होती, जब तक अज्ञात को गले न लगाया जाए। जब हम जीवन में से रहस्यमय या आश्चर्य देने वाले तत्त्वों को बाहर निकाल देते हैं, तब हम न केवल विकास को रोक देते हैं, बल्कि अनजाने में अपने जीवन को मशीनी बना देते हैं। जैसे उस खेल को देखने में कुछ आनंद नहीं आता जिसका परिणाम हमें पहले से ही पता होता है। इसी प्रकार जीवन में यदि सब कुछ पूर्व निर्धारित हो तब वह नीरस व उबाऊ हो जाएगा, मशीनी सा बन जाएगा। जीवन ज्ञात और अज्ञात का मिश्रण है। देखने में यह दोनों एक दूसरे के विपरीत लगते हैं, लेकिन यदि इन दोनों में से एक भी कम हो जाए, तो जीवन अधूरा हो जाएगा। सीमित धारणा के क्षेत्र में हमारे भीतर एक भाग है जो कि किसी मत के लिए निश्चित है। एक अलग भाग है जो कि हमें हमेशा अज्ञात का पता लगाने के लिए उकसाता रहता है, जो कई रहस्यों के बारे में आश्चर्य पैदा कर रहा है। बुद्धिमान वही है जो अनिश्चितता का सामना करने और उसमें से उत्तम अवसर पैदा करने की कुशलता विकसित कर लेता है। यदि निरंतर परिवर्तनशील संसार के प्रति  मन  विश्राम की स्थिति में  रहता है, तो जीवन द्वारा उपलब्ध अवसरों व संभावनाओं  का भरपूर लाभ और  उपयोग हो सकता है। समझदार वह हैं जो अनिश्चितताओं को विस्मय के भाव से देखते हैं। विस्मय से नए ज्ञान का आरंभ होता है। सृजनशीलता आश्चर्यचकित हो जाने से उभरती है। यह रवैया कि मुझे पता है, व्यक्ति को संकुचित व बंद कर देता है। मुझे नहीं पता, कई नई संभावनाओं को जन्म देता है। जब कोई इस विचार से चलता है कि मुझे सब पता है, वह एक निश्चित अवधारणा में फंसा रहता है। अकसर लोग गुस्से में आकर यह कहते हैं कि मुझे नहीं पता। यह बेतुका मुझे नहीं पता और विस्मय से भरा मुझे नहीं पता दोनों अलग है। आश्चर्य किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने की अंतहीन संभावना उत्पन्न कर देता है जो की उन्नति का पथ बन जाता है। जितना अधिक जानते रहते हो उतनी ही अधिक अज्ञात के प्रति जिज्ञासा बनी रहती है। उपनिषद में यह बहुत सुंदर वाक्य कहा गया है, जो यह कहता है कि मुझे नहीं पता, वह जानता है और जो यह कहता है कि मुझे पता है, उसे कुछ नहीं पता। कहा जाता है कि जितना आपको पता है वह अज्ञात के प्रति, हिमशैल की चोटी पर जमी बर्फ  के जितना ही है। आश्चर्य किसी पुरानी बात के लिए ही नहीं होता है। पक्का मत उसके लिए हो सकता है, जो कि नया नहीं है। जीवन नवीन व प्राचीन का मिश्रण है। जो व्यक्ति केवल आश्चर्यचकित रहता है वह खोया खोया और भ्रमित लगता है। जो सब बातों के प्रति पूर्ण रूप से निश्चित होता है, वह हर बात को लापरवाही से देखता है, वह निष्क्रिय और सुस्त हो जाता है। दोनों पक्षों का भलीभांति ज्ञान जीवन को चमकदार और आकर्षक बना देता है। निश्चितता और विस्मय के भाव का पूर्ण संतुलन ही जीवन में विकास का प्रतीक है। विस्मय तब उदय होता है, जब मन का सामना किसी ऐसे तत्त्व से होता है, जिसको वह विशाल के रूप में देखता है।


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