अनेकता में एकता

By: Aug 10th, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव

हमारी सारी इंद्रियां पांच अरब इंद्रियों का काम करती है, क्योंकि चलते वक्त पूरे समय आकाश बदलता रहता है और हमारी इंद्रियां हर बार नई-नई चीज को देखती रहती हैं। इसलिए हम अनेक रूपों का जगत में अनुभव कर रहे हैं। अब अनेकता में एकता या एकता में अनेकता वो ही व्यक्ति जान पाएगा जो पूर्ण सद्गुरु से ब्रह्म को तत्त्व से जानकर इंद्रियों से पार जाने की कला सीख लेता है, मानो खुले आकाश में आ जाता है।  भगवान श्रीकृष्ण फरमाते हैं जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वो मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। अतः यह जो इतना अनेक-अनेक होकर दिखाई पड़ रहा है, यह सभी कहीं गहरे में एक ही है। विज्ञान भी इस नतीजे तक पहुंचा है कि पदार्थ को तोड़-तोड़कर अंतिम कण यानी अविभाज्य कण प्रकाश है। हमारा सारा जगत एक ही प्रकाश का खेल है। इधर अध्यात्म कहता है कि परमात्मा को जो अनुभव है, प्रकाश की ही परम अनुभूति है। जब कोई व्यक्ति अस्तित्व के गहन अनुभव में उतरता है, तो उसके सामने प्रकाश के सिवाय कुछ नहीं रह जाता।

हकीकत एक है हर शय की खाकी हो कि नूरी हो

लहू खुरशीद का टपके अगर जर्राह का दिल चीरें

अतः कहना पड़ेगा कि जब तक मनुष्य के भीतर अहंकार मौजूद है वो आकार को ही देखता रहेगा, क्योंकि अखंडता को देखने के लिए और निराकार को देखने के लिए, अरूप को देखने के लिए मनुष्य के भीतर अहंकार बहुत बड़ी बाधा है।  यद्यपि अहंकार बहुत छोटी-सी चीज है, लेकिन बड़े आकार और सीमाएं अहंकार से ही पैदा होती है। ठीक ऐसे ही जैसे कोई एक शांत झील में एक छोटा-सा पत्थर का कंकड़ डाल दे, कंकड़ तो बहुत छोटा-सा होता है और बहुत जल्द जाकर झील की तह में बैठ जाता है, मगर कंकड़ से जो लहरें पैदा होती हैं वो विराट होती चली जाती हैं। मानो अहंकार अगरचे छोटा सा होता है, यह बड़े-बड़े आकार पैदा कर  देता है। अब अखंडता और एकता तब पैदा होती है जब मनुष्य का अहंकार रूपी कंकड़ न हो तो, आकार रूपी लहरें न बन पाएं और निस्तरंग स्थिति हो जाए, फिर जाकर सारी खलकत हमें एक कुनबा नजर आने लगेगी और तब सही मायने में हम कह पाएंगे ‘वसुधैव कुटुंबकम्’।

अभी दीदार-ए-मयखाना हर जर्रे में खुलता है

अगर इनसान अपने आप से बेगाना हो जाए। भक्त के अतिरिक्त जितने भी तथाकथित उपासक है, वो मुक्ति मांगते हैं वो भगवान का उपयोग करना चाहते हैं।  साधन की तरह,माध्यम की तरह, मानो भक्ति के अतिरिक्त जो मार्ग तथाकथित ज्ञान के, योग के, हठ के, क्रियाकांड के है इन सब में मुक्ति परम है।  इन मार्गों में भगवान को अगर कोई जगह दी है वो एक साधकजन की तरह जबकि भक्त के लिए भगवान ही परम है।

इक रब दे बस हो के रहणा होर किसे दी लोड़ नहीं।


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