आजादी के बाद क्रूर यथार्थ साहित्य को उद्वेलित कर रहा

By: Aug 11th, 2019 12:05 am

डा. हेमराज कौशिक

मो. :- 9418010646

ब्रिटिश औपनिवेशक साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए लंबे संघर्ष के बाद भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी के नेतृत्व में अनेक स्वतंत्रता सेनानियों, चिंतकों, राजनेताओं, क्रांतिकारियों ने सक्रिय भूमिका निभाई और भारत को स्वाधीनता मिली। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अनेक रचनाकारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर, यशपाल, माखनलाल चतुर्वेदी, फणीश्वरनाथ रेणु प्रभृति अनेक साहित्यकारों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ राजनीतिक मुक्ति के साथ सामाजिक और आर्थिक मुक्ति भी था। जाति, संप्रदाय और निर्धनता, स्त्री शिक्षा, परंपरागत रूढि़यों की जड़ता आदि अनेक प्रश्न उनके सृजन के सरोकार रहे। प्रेमचंद और रेणु के राष्ट्रीय चिंतन के केंद्र में किसान और ग्रामीण समाज था। यशपाल ने तो स्वयं स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक क्रांतिकारी की भूमिका निभाई। उन्हें आजीवन कारावास का दंड भी मिला। उन्होंने बाद में ‘बुलेट’ के स्थान पर ‘बुलिटिन’ को राष्ट्रीय सामाजिक चेतना का माध्यम बनाया। उनके लिए प्रमुख रूप में साहित्य के सरोकारों में सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतिकार और निम्न वर्ग के प्रति पक्षधरता थी। नारी स्वातंत्र्य और नारी स्वावलंबन का स्वर उनके साहित्य में ध्वनित होता है। वर्तमान में साहित्य की निगाह में आजादी के सरोकारों के संबंध में विचार करें तो साहित्य की विविध विधाओं में जो सृजन हो रहा है, उनमें प्रमुख रूप में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, सांप्रदायिकता, ग्रामीण जीवन की विडंबनाएं, भूमंडलीकरण से उत्पन्न स्थितियों, शोषण के नए रूपों को साहित्य का विषय बनाया गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशकों के अनंतर भी जाति विधान की दीवारें पूरी तरह ढही नहीं हैं, स्त्री शोषण के अनेक नए रूप सामने आए हैं, नारी उत्पीड़न और परंपराओं की जकड़बंदी में आज भी सामान्य ग्रामीण और शहरी नारी यंत्रणा भोग रही है। पुरुष वर्चस्व और परंपरागत संस्कारों की जड़ता की शिकार भारतीय नारी को नारी विमर्श में बखूबी देखा जा सकता है। लिंग भेद, भू्रण हत्या जैसी सामाजिक स्थितियों, लोकतंत्रात्मक मूल्यों की प्राप्ति में बाधक हैं। साहित्य की निगाह में ये प्रश्न ज्वलंत रूप में उपस्थित हैं। नारी स्वातंत्र्य, स्वावलंबन, समान अधिकार, नारी शिक्षा जैसे कुछ सरोकार हैं जिनकी अभिव्यंजना स्वयं महिला रचनाकारों ने भी की है। सुदूर ग्रामांचलों और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में भौतिक विकास की अंधी दौड़ ने पर्यावरणीय चिंताओं और आदिवासी जन के विस्थापन से जुड़ी समस्याओं को साहित्य की संवेदना का विषय बनाया है। आजादी के इन सात दशकों के बाद भी आदिवासियों के जीवन स्तर में बदलाव नहीं आया है। ग्रामीण और शहरों के विकास की असमानताएं, पढ़ाई के समान अवसरों का अभाव, युवाओं की ऊर्जा का समुचित उपयोग और रोजगार के अवसर आदि कुछ अन्य सरोकार हैं जो वर्तमान साहित्य की निगाह में हैं। साहित्य और समाज परस्पर सापेक्ष हैं। साहित्य में युगीन यथार्थ के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक पक्षों की कलात्मक अभिव्यंजना होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के अनंतर पराधीनता की पीड़ा से मुक्त होकर भारत में नए प्रकाश का उदय हुआ। परंतु आज भी राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाले अवयव हैं। वर्गाधारित वैषम्य, लिंग भेद, धार्मिक कट्टरता, संप्रदायवाद जैसे विघटनकारी तत्त्व हैं जो राष्ट्रीय एकता के सूत्रों को क्षीण कर रहे हैं। राजनीति का भ्रष्ट स्वरूप भी इसमें कम भूमिका नहीं निभा रहा है। साहित्य की विविध विधाओं में सृजन करते हुए साहित्यकारों की निगाहों में आजादी के बाद का यह क्रूर यथार्थ उद्वेलित करता रहा है और अपनी रचनाओं के माध्यम से उस कटु यथार्थ को सामने लाता रहा है।

साहित्य की निगाहों में आजादी के सरोकार

भारत 15 अगस्त को अपनी आजादी की 72वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। आजादी के लिए जहां अनेक योद्धाओं व राजनेताओं ने अपना योगदान दिया, वहीं साहित्य की भी आजादी में भूमिका को कमतर करके नहीं आंका जा सकता। साहित्य की निगाहों में आजादी के क्या सरोकार हैं तथा समाज की राह पर साहित्यिक उत्पे्ररणा क्या है, इस विषय पर विभिन्न साहित्यकारों के विचारों से गुंथित ‘प्रतिबिंब’ का यह अंक पेश है…

साहित्य की प्रगतिशीलता प्रेरणा नहीं बन पाई

डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’

मो. :- 9418080088

विद्वानों ने सही ही कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह दर्पण कभी बहुत यथार्थवादी भी हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप रचनाओं में समाज और उसमें व्याप्त विसंगतियों की विद्रूपता भी झलकने लगती है, जो प्रायः लोगों को खटकने भी लगती है। परंतु सच्चाई तो सच्चाई है। यही कुछ आजादी के गत सात दशकों में देखने को मिलता है। राजनेता देशोत्थान के लिए कृतसंकल्प होते हैं, जबकि साहित्यकार समाज की जीवनधारा को आत्मसात करता हुआ मानवीय मूल्यों की स्थापना को प्राथमिकता देता है। मानवीय सरोकारों में समानता आ जाती है, व्यक्ति के लिए धर्म एवं व्यवसाय की आजादी आ जाती है, नर और नारी में बराबरी की बात प्रमुख हो जाती है। वस्तुतः सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार अनेक सरोकारों को अपने में सन्निहित कर लेता है। आजादी से पूर्व एवं आजादी के बाद साहित्यकारों ने मानवीय सरोकारों को उनकी प्रासंगिकता के अनुरूप पूरे उत्साह एवं कर्मठता से उठाया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद या यशपाल हों, माखनलाल चतुर्वेदी हों या रामधारी सिंह दिनकर हों, सभी ने समय-समय पर जन-जन के सरोकारों को उठाया है और कलम को तलवार के रूप में कुशलतापूर्वक चलाया है। आजादी के बाद देश का बहुत विकास हुआ है। हर क्षेत्र में वैज्ञानिकों की बड़ी-बड़ी उपलब्धियां, औद्योगिक विकास, शिक्षा का विस्तार, महिलाओं को समानता का अधिकार तो पहले भी था, परंतु उनकी आर्थिक रूप से संपन्नता के कारण स्टेटस में सुधार, बड़े संवैधानिक पदों पर उनकी नियुक्ति आदि अनेक उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं, जिसके लिए राष्ट्र गौरवान्वित है, परंतु क्या सिक्के का यही पक्ष दर्शनीय है। वास्तव में बहुत सी ऐसी बातें जो समाज को बराबरी के स्तर पर लाने के लिए आवश्यक थीं, उनमें कहीं न कहीं गड़बड़ी रही है। उदाहरण के तौर पर आरक्षण की बात को ही ले लें। यह दस वर्षों तक रहना था, लेकिन राजनीति की मजबूरी देखिए यह आज भी लागू है और इसका प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है। साहित्य में इस पर अप्रत्यक्ष रूप से कभी कभार चिंता व्यक्त की जाती रही है, परंतु बड़ी मुखरता से कोई सामने आना पसंद नहीं करता। साहित्यिक निगाहों ने बहुत बार गरीब-गुर्बों की बात की है, यही उनकी प्रगतिशीलता और अस्तित्व की गारंटी भी है, परंतु यह सिर्फ  उत्तेजना ही रह जाती है और उत्प्रेरणा नहीं बन पाती।

साहित्य विचार नहीं, मनोरंजन बना

बद्री सिंह भाटिया

मो. :- 9418478878

साहित्य की निगाह उसके रचयिता के कैमरे के पिक्सलों के अनुसार होती है। आजादी ने समाज को खुली हवा में विचरण और संविधान ने उसे एक बड़ा वितान दिया। समाज ने उसे आत्मसात किया और विभिन्न विकास योजनाओं का क्रियान्वयन आरंभ। समाज को उसकी अपेक्षा से कितना मिल पाया, यह वह ठीक तरह से नहीं जानता। वह अपनी ग्रोथ के साथ वैचारिक प्रतिबद्धताओं में बंधता गया। कुछ विचारधाराएं आजादी के साथ आई और परवान चढ़ी। कुछ खरामा-खरामा आक्टोपस की तरह चलीं और जलकुंभी की तरह फैल गईं। कौन कितना लपेटे में आया, यह कोई नहीं जानता। विकास ने संपूर्ण विश्व को एक गांव सा बन दिया है। अब गणेश के दूध पीने का संदेश क्षणांश में विश्वव्यापी हो जाता हैं। आजादी के सरोकार कुछ ये ही तो हैं। नहीं, इसके अलावा कुछ प्रतिकूल भी हुआ है। छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार और प्रभावी दबाव। कोई सुनने वाला ही नहीं। सूखा और विभिन्न कारणों से किसानों की आत्महत्याएं ही नहीं बल्कि किसी मजलूम वर्ग के बारे में बोलना, लिखना अपराध भी। असंतुष्टता की पराकाष्ठा में कुछ अव्यक्त सा अंतःसुख के चाह की सजा। समाज एक अलग राह पकड़ उसे संभाल ही नहीं पा रहा। साहित्य के मन की निगाहें हमारे हाथ और कमरे में रखे मूर्ख बनाने के यंत्रों के वशीभूत उस सबको देखने, सुनने नहीं देते जो चल रहा है। विचारों पर एक प्रकार का पहरा सा है। एक निश्चित प्रोपेगंडा के तहत समाज का दिमाग कंडीशंड हो गया है। इतना कुछ परोसा जा रहा है कि साहित्य के साथ समाज भी बाजार हो गया है। ऐसे में समाज किसी उत्प्रेरणा की उपज वांछनाओं का शिकार असंतुष्ट से दाम्पत्य, आत्मीय संबंधों से दूर एषणाओं का शिकार हो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा है। वैचारिकता के धरातल पर साहित्य बिखर गया है। कहीं वह मात्र बिगुल बजाता ही रह गया है और कहीं बड़बोला हो गया है तो कहीं इतना एकांगी हो गया है कि वह खराब कैमरे की तरह सामाजिक मूल्यों के परिवर्तन और अपेक्षाओं को पूरी तरह नहीं देख पाता। कितने साहित्य के संवाहक तटस्थ धृतराष्ट्र बने खड़े हैं। कोई साहित्य ऐसा नहीं मिलता जिसे फेसबुक, ट्वीटर अथवा व्हाट्सऐप पर साझा किया जा सके। किसी बैठक में सुनाया जा सके। साहित्य विचार नहीं, मनोरंजन बना हुआ है। ऐसा साहित्य क्या उत्प्रेरणा देगा? साहित्य कमजोर हो नेतृत्व न कर पाने की अवस्था में है। एक डर का सा माहौल भी है जिससे समाज निष्क्रियता और निष्कर्म की ओर भी अग्रसर है। विकृत हो रही सामाजिक दशा को कैसे दुरुस्त किया जाए, यह काम साहित्य का तो है परंतु कोई ध्वजवाहक नहीं है। समाज भी एकसा नहीं है। विभिन्न रंगों और लक्ष्यों की साधना में विचरण कर रहा है। अधिकांश समाज शब्द से भी लगाव नहीं रखता।

साहित्य के सरोकार वही जो कल थे

अजय पाराशर

मो. :- 9418252777

मेरा मानना है कि साहित्य की नि़गाह में देश की आज़ादी के सरोकार या वास्ता, आम आदमी की ़गरज़ और चाहत से कभी अलग नहीं हो सकते।  साहित्य की चाहे कितनी ही बौद्धिक परिभाषाएं दी जाएं या व्याख्याएं की जाएं, सीधे-सरल शब्दों में साहित्य वही है, जो सबका हित चाहता है। साहित्य की कोई भी विधा ऐसी नहीं, जिसमें मानवता के विरुद्ध कुछ रचा गया हो। कथ्य, भाषा, शैली, व्याख्या आदि अलग हो सकते हैं; लेकिन साहित्य का उद्देश्य सदा सबके हितों की पैरवी और रखवाली करना रहा है। ़कलम से डरने वाली सत्ता ज़रूर अपने मतलब का साहित्य रचना चाहती है; परंतु इतिहास गवाह है कि ऐसी रचनाएं कभी अमर नहीं हो सकीं। सत्ता जब निरंकुश होती है, साहित्य मुखर होकर लोगों की आवाज़ बनता है और अंततः क्रांति घटित होती है। नए समाज की रचना के बाद लोग फिर उन्हीं राहों पर चलते हुए साहित्य की प्रेरणा बनते हैं।  यह एक ऐसा क्रम है जो हर सभ्यता या संसार की रचना के बाद उसकी समाप्ति तक चलता रहता है। विश्व की किसी भी युग की सभ्यता का साहित्य आम आदमी की बोली बोलता ही नज़र आता है। अगर कहीं शासक वर्ग ने इक्का-दुक्का कृतियां रची भी हैं, तो उनमें भी आम आदमी और उससे जुड़े सरोकार ही सामने नज़र आते हैं। साहित्य की नज़रों में देश की आज़ादी के सरोकार आज भी वही हैं, जो आज़ादी से पहले थे। आम आदमी की ज़रूरत, चाहत और सपने, स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति, समानता, सामाजिक विसंगतियां, अनुभूतियां, संवेदनाएं, हुकूमत की ज़्यादतियां, प्रकृति, उससे छेड़छाड़ आदि के विरुद्ध आज भी उसी प्रकार लिखा जा रहा है, जो आज़ादी से पहले लिखा जा रहा था। हां, इतना अंतर अवश्य है कि पहले हुकूमत विदेशी थी, अब राज अपनों का है। लेकिन राज तो राज है, चाहे विदेशी हो या अपना। वह अपनी सत्ता ़कायम रखने के लिए हरसंभव उपाय अवश्य करेगा। समय-समय पर राजनीति उथली-छिछली होती रहेगी और साहित्य इन सबके विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करता रहेगा। फिर सत्ता हमेशा राजनीतिक तो नहीं होती। हां, उसमें राजनीति अवश्य प्रवेश कर जाती है। हर व्यक्ति, समाज और संस्था की अपनी सत्ता है, और जहां सत्ता होगी, वहां उसका उपयोग या दुरुपयोग तो अपने हितों के लिए होगा ही। सत्ता अपने ़फायदे के लिए दूसरों के हितों का शोषण तो करेगी ही। जब शोषण होगा तो उसके विरुद्ध आवाज़ भी उठेगी और जब आवाज़ उठेगी, तो नए साहित्य की रचना होगी; रूप चाहे कोई हो। कविता, गीत, नाटक, कहानी, उपन्यास, लेख-निबंध आदि कुछ भी हो सकता है; लेकिन आज़ादी के सरोकार हमेशा आम आदमी के हितों की बात ही करेंगे। समाज की इन भूलभुलैयों के मध्य साहित्य हमेशा प्रेरणा प्राप्त करता रहेगा और नई रचनाओं का जन्म होता रहेगा।  

साहित्य की उत्प्रेरणा समाज को उद्वेलित करती है

डा. विनोद प्रकाश गुप्ता

मो. :- 9911169069

साहित्य देश और समाज का दर्पण होता है। कोई भी देश, समाज, समुदाय या सोसायटी साहित्यकारों या शिक्षकों के स्तर से ऊपर नहीं होती। साहित्य की सोच, समझ, विजन किसी भी समाज के बौद्धिक स्तर का पैमाना होते हैं। उच्च बौद्धिक स्तर के समाज या देश को, देशों की मंडली में प्रशंसा मिलती है और उन्हें इज्जत की निगाहों से देखा जाता है। बौद्धिक स्तर को प्राप्त करने व बनाए रखने के लिए साहित्य एवं साहित्यकार एक खुले स्वतंत्र सामाजिक वातावरण की अपेक्षा करता है, जिसमें साहित्यिक सोच, समझ एवं चिंतन को निष्पक्ष एवं निर्भीक सोपान मिले। साहित्य की अपेक्षाएं, आकांक्षाएं, आस्थाएं और संवेदनाएं एक आजाद देश से साहित्यिक संरक्षण चाहती है। अगर देश में, समाज में, डर का माहौल होगा तो साहित्यिक सोच पनप ही नहीं सकेगी। ऐसा वातावरण अपेक्षित है जिसमें साहित्यकार बिना भय के सृजन कर सकें, नई सोच के मापदंड निर्धारित कर सकें, चाहे वे किसी खास राजनीतिक, सामाजिक, जाति या धर्म की सोच से सामंजस्य रखते हों या नहीं। अगर एक देश का आजाद वातावरण साहित्यकार को ऐसा करने का संरक्षण नहीं दे पाता तो समस्त देश और समाज का बौद्धिक, सांस्कृतिक व कलात्मक पतन निश्चित है। आज सोशल मीडिया आमजन की भावनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है जिसकी अवहेलना नामुमकिन है। सोशल मीडिया न केवल संवाद का आधार है, बल्कि साहित्यिक गतिविधियों का भी प्रमुख स्रोत बन गया है। सामाजिक प्रतिक्रियाएं कुछ ही पलों मे समस्त दुनिया में व्यक्त की जा सकती हैं और की जा रही हैं। साहित्य पर सोशल मीडिया ने गहरा प्रभाव डाला है। साहित्यकारों के मतभेद तक तो सोशल मीडिया हो सकता है उचित हो, पर अब समाज के राजनीतिक, सामाजिक, जातीय, धर्म के छोटे-छोटे खेमों में बंटना लगभग स्थापित हो गया है। इससे साहित्य को इन गुटों की असहिष्णुता का सामना करना पड़ रहा है। बडे़-बडे़ साहित्यकार इसका शिकार हुए हैं और हो रहे हैं। यह असहिष्णुता केवल हमारे समाज तक सीमित नहीं, ये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्विघ्न जारी है। यह समझना नितांत आवश्यक है कि साहित्य की उत्प्रेरणा किसी भी समाज को सबसे ज़्यादा उद्वेलित करती है और जनमानस पर गहरा असर डालती है जो बहूदा खून-खराबे तक करवा डालता है। आज भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। एक समाज जहां विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, जो बहुजातीय और बहुभाषी हों, वहां साहित्यकारों का सामाजिक दायित्व और भी बढ़ जाता है। साहित्यकारों से बहुत ही समझदारी एव परिपक्व लेखन की अपेक्षा की जाती है। लेखन ऐसा हो कि सृजन भी जारी रहे एवं सामाजिक सरोकार भी असहिष्णु होने से बचे रहें। यहां यह भी आश्वस्त करना आवश्यक है की साहित्यिक सोच, समझ और सृजन पर किसी भी अवस्था में अंकुश नहीं लगना चाहिए।


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