आत्म पुराण

By: Aug 3rd, 2019 12:05 am

वहां पर सर्वप्रथम दर्भ, मृगचर्म, वस्त्र, बिछाकर सुखासन तैयार करें, जिस पर बैठने में किसी प्रकार की असुविधा प्रतीत न हो। उस आसन पर बैठकर अपने शरीर के मध्य भाग, ग्रीवा, सिर को दण्ण के समान सीधा कर ले। हे शिष्य! इस प्रकार योग मार्ग में प्रवृत्त होने वाले के सम्मुख अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं। उनका निवारण करने के लिए साधक को सर्वप्रथम रुद्र भगवान का ध्यान करना चाहिए, जो समस्त विघ्नों का निवारण करने वाले हैं। तत्पश्चात पद्मासन आदि पर बैठकर रेचक, पूरक, कुंभक का अभ्यास करता हुआ प्राणायाम से नेत्रादिक इंद्रियों के दोषों की निवृत्ति होती है। फिर प्रत्याहार करें, जिससे मन की चंचलता दूर होकर पांचों इंद्रियों के विषयों का निरोध हो सके। जैसे सूर्य की किरणें सूर्य से भिन्न होती है, उसी प्रकार यह संसार को दिखाई पड़ने वाला प्रपंच भी चेतन आत्मा से भिन्न नहीं है। इस प्रकार दृष्टि रखकर इंद्रियों का विरोध हो जाने पर प्रत्याहार पूरा हो जाता है।हे शिष्य! अब धारणा और ध्यान का रहस्य सुनो, जो पुरुष चोर को नहीं देख पाते, उनको उसके द्वारा बड़ी हानि सहन करनी पड़ती है।उसी प्रकार जो मनुष्य मन की ठीक तरह देखभाल नहीं रखता, उसका मन सकंल्प-विकल्प द्वारा उसका बहुत अनिष्ट करता है। इस तथ्य को समझकर मन को आनंद स्वरूप आत्मा से जोड़कर संकल्प-विकल्प से रहित करना ही धारणा का मुख्य उद्देश्य है। इसके पश्चात ध्यान करना आवश्यक है। उसका उद्देश्य आत्मा को अनात्म विषयों से हटाकर निरंतर तैलधारा की तरह सजातीय वृत्तियों में ही संलग्न किए रहना है। हे शिष्य! जब धारणा, ध्यान आदि के आभास से ध्याता, ध्यानः ध्येय, इत्यादि संपूर्ण द्वैत प्रपंच का अनादर होने लग जाता है, तब समाधि की स्थिति प्राप्त हो जाती है। गीता में भगवान कृष्ण ने भी समाधि का यही रूप बतलाया है-

यं लब्ध्वाचापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

अर्थात-जब विद्वान पुरुष आत्म स्वरूप आनंद को प्राप्त करके, उससे अधिक और किसी लाभ को नहीं मानता, तब वही समाधि की स्थिति होती है। इस प्रकार जो योगी पुरुष यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि के आठों अंगों का अभ्यस्त हो जाता है, उसे फिर सांसारिक कारण से क्लेश की प्राप्ति नहीं होती। ऐसा योगी पुरुष संसार में अन्यत्र होने वाली घटनाओं को दूर से ही जान लेता है और स्वर्ग आदि लोकों को देखने में समर्थ होता है। वह सब जीवों और पदार्थों में आत्मा को ही देखता है और शरीर को सूखी लकड़ी के समान मानकर उपेक्षा का भाव रखता है। वह अपने सब बंधनों से मुक्त होकर हंस के समान स्वतंत्र रूप से विचरण करता है और यथा समय ब्रह्मलोक में जाकर मोक्ष की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। हे शिष्य! जावाल उपनिषद के रचयिता का कथन है कि योग मार्ग से आगे चलकर परमहंस वृत्ति ग्रहण करने का मुख्य कारण वैराग्य को ही बताया है। श्रुति का अनुसरण करते हुए कहा गया है कि परमहंस (संन्यास) के लिए कोई समय या अवस्था का निर्धारण नहीं किया जा सकता। यदि तीव्र वैराग्य का उदय हो जाए तो संन्यास वाल्यावस्था और युवावस्था में भी लिया जा सकता है और यदि सांसारिक कामनाएं बनी हुई हैं तो वृद्धावस्था में भी संन्यासी होना अनुचित और हानिकारक है।


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