आत्म पुराण

By: Aug 17th, 2019 12:12 am

जिससे वे मंद बुद्धि भी कुछ समय में शुद्ध अंतकरण वाले वैराग्य को प्राप्त हो सकें, इसलिए जैसे गर्भ के दुःखों का विचार, मरणकाल की जानकारी तथा अष्टांग योग का अभ्यास, यह तीनों वैराग्य के कारण हैं, उसी प्रकार उस परमेश्वर की विभिन्न उपासनाएं, भी वैराग्य का ही कारण होती है। 

शंका-हे भगवन! जिस अधिकारी पुरुष की उन उपासनाओं के करने की सामर्थ्य न हो, वह वैराग्य की प्राप्ति के लिए क्या उपाय करें? समाधान-जिन पुरुष को उपनिषदों में बताई उपासनाएं करने की सामर्थ्य न हो, वह वेदों में बतलाए आश्रम और वर्ण के कर्मों को निरंतर श्रद्धापूर्वक करता रहे। पर उन कर्मों के फल की इच्छा न करे। इस प्रकार निष्काम भाव से बहुत समय तक कर्म करके भी वह पुरुष वैराग्य को प्राप्त कर लेता है। जो अधिकारी पुरुष निष्काम कर्म करने में भी असमर्थ हों, तो वह श्रुति के आदेशानुसार वेदाध्ययनः यज्ञ, दान, तप अनशन इन पांच कर्मों का पालन करके अंतकरणः की शुद्धिकरण फिर वैराग्य की प्राप्ति करें। तीसरा मार्ग ‘भगवद्गीता’ के कथनानुसार अपने समस्त कर्मों को परमेश्वर के लिए अर्पण कर देना है। इससे भी अधिकारी पुरुष वैराग्य भावना को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार (1) गर्भ दुःखों पर विचार (2) मृत्यु-काल का ज्ञान (3) अष्टांग योग (4) उपासना (5) निष्काम (6) ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए कर्म (7) ईश्वर अर्पण कर्म, इन सातों उपायों में से किसी के भी द्वारा अधिकारी पुरुष वैराग्य को प्राप्त कर सकता है। जब वैराग्य की प्राप्ति हो जाए, तब वह परमहंस वैराग्य को ग्रहण करे। यह तो संन्यास लेने के लिए समय का निरूपण किया गया। अब अधिकारी पुरुष के लक्षण बतलाए जाते हैं।

हे शिष्य! धन एषणा, लोकएषणा, पुत्र एषणा, ये तीन प्रकार की एषणाएं सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। इनमें धन दो प्रकार का होता है। एक देवधन और दूसरा मनुष्य धन। कर्मकांड उपासना आदि देवधन और सोना-चांदी आदि मनुष्य धन हैं। इसी प्रकार स्वर्गलोक, पितृलोक, मनुष्यलोक  इत्यादि लोक होते हैं। एषणाओं का अर्थ इच्छा होता है।

इसलिए जो पुरुष इन तीनों एषणाओं रहित होता है, वही परमहंस संन्यास का अधिकारी कहा जा सकता है। इस प्रकार का संन्यास ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रिय और वैश्य भी ग्रहण कर सकते हैं, पर उनको दंड ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार यदि किसी संयोगवश किसी शूद्र अथवा स्त्री को तीव्र वैराग्य हो जाए तो वे भी वीर संन्यासी बिना किसी प्रकार के संस्कार के ही इस आश्रय को ग्रहण कर लेते हैं और निरंतर चलते रहकर शरीर का अंत कर देते हैं। इस वीर संन्यास को ‘अलिङ्ग-संन्यास’ भी कहते हैं।

  हे शिष्य! अब इस प्रकार परमहंस संन्यास ग्रहण करने वालों के धर्म-आचार, व्यवहार के विषय में श्रवण करो जो ‘जावाल’ आदि उपनिषदों में वर्णन किए गए हैं। उस संन्यासी को बांस का दंड धारण करना चाहिए और शिखा तथा यज्ञोपवीत का त्याग कर देना चाहिए। वह दो कोपीन और शीत निवारण के लिए एक कंथा-गुदड़ी या कंवल आदि से अधिक न रखें। जब वह ग्राम के भीतर भिक्षा मांगने जाए, तो कोपीन के ऊपर एक कटि वस्त्र और बांध ले। शौचादिक क्रिया के लिए वह तंुबी, काष्ठ का पात्र या मिट्टी का पात्र रखे।

 

 


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