आत्म पुराण

By: Aug 24th, 2019 12:21 am

संन्यासी को बिना किसी कारण के हाथ पैरों को हिलाना न चाहिए और ना वाक्-भेद आदि का प्रयोग करके चपलता का परिचय देना चाहिए। ‘वाक्-भेद’ का तात्पर्य किसी व्यक्ति के कथन का उल्टा-सीधा अर्थ बतलाने से है। जैसे कोई यह कहे इस देवदत्त नाम के व्यक्ति के पास नवकंबल है। यहां पर ‘नव’ शब्द का अर्थ नया होता है और नौ की संख्या भी होता है। अब यदि ‘नव’ का अर्थ नवीनी न करके यह अर्थ निकाला जाए कि इस देवदत्त के पास नौ कंबल हैं और फिर यह आक्षेयप कि दरिद्री के पास तो एक भी कंबल का होना कठिन है, यह नौ कंबल कहां से पा सकता है, तो इस प्रकार के व्यवहार को वाक् भेद कहा जाएगा। न्याय शास्त्र वाले इसी को ‘वाक् छल’ भी कहते हैं। संन्यासी को इस प्रकार की चपलला करने का निषेध है। संन्यासी जब किसी मार्ग पर चले, तो अपने शरीर से चार हाथ आगे की भूमि को देखता हुआ चले, जिससे कोई जीव-जंतु पैर के नीचे न आ आए। वह जब अपने आसान पर बैठा हो, तो अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखे अथवा वेदांत की पुस्तक देखता रहे, जिससे चित्ता बहिर्मुख न हो। ऐसे परमहंस संन्यासी के रहने लायक जो स्थान बतलाए हैं, वे इस प्रकार हैं, शून्य ग्रह, देवमंदिर, पृथ्वी में बना हुआ गड्ढा वृक्षमूल, कुम्हार के घड़ा बनाने का स्थान, अग्नि होत्र शाला नदी का तट, पर्वत की गुफा, वृक्ष का कोटरा अथवा कोई बाग- बागीचा आदि संन्यासी के निवास के लिए उपयुक्त हो सकते हैं।

ऐसे अज्ञातवास में निवास करके वह परमहंस संन्यासी सर्वदा अपने शरीर को और अंतःकरण को शुद्ध रखे। जब वह भिक्षा मांगने को जाए तो ग्राम की परिक्रमा करके उपयुक्त गृह से भिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा किसी बरतन या झोली में न लेकर उदर रूपी पाव या हाथों में ही ग्रहण करे। यदि कोई भक्त अपने हाथों से संन्यासी के मुख में खिला दे, तो उसका उदर ही पात्र मान लिया जाएगा। जो उदर या हाथों में भिक्षा लेने में समर्थ न हो वह किसी वस्त्र में भी उसे लेकर औषधि की तरह खा सकता है। जैसे कोई मनुष्य स्वाद के लिए औषधि नहीं खाता, उसी प्रकार संन्यासी को भी क्षुधा रूपी रोग के निवारण करने के लिए भोजन करना चाहिए। उसमें स्वाद या रुचि की तरफ ध्यान देना उसका काम नहीं है। इसलिए उसे किसी पदार्थ  को न तो अच्छा बतलाना चाहिए न बुरा। उसे न तो बढि़या व्यंजन पाकर प्रसन्न होना चाहिए और न स्वाद रहित सामग्री पाकर खेद करना चाहिए। उसको  सुख-दुःख, शीत, उष्ण इत्यादि द्वंद्व धर्मों में एक रस रहना उचित है। संन्यासी को इतना ही भोजन करना चाहिए जिससे शरीर न तो स्थूल हो और न बहुत दुर्बल। उसे दो मास में एक बार क्षौर कर्म भी करा लेना चाहिए। अषाढ़ मास की पूर्णमासी को व्यास पूजा करे। उसमें व्यास, पंचक, कृष्णपंचक, आचार्य पंचक गुरुपंचक और आत्मपंचक इन पांच की पूजा करनी चाहिए।  अब इन पंचकों का विवरण बतलाते हैं। चारों दिशाओं में चार  व्यास,यथाक्रम अवस्थित हैं वैशम्पायन, सुमंत, जैमिनी और पैल। इनके मध्य में भगवान वेदव्यास मिलकर व्यासपंचक हो जाता है।

 


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