आत्म पुराण

By: Aug 31st, 2019 12:00 am

इसी प्रकार चारों दिशाओं में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध तथा बीच में भगवान कृष्ण मिलकर कृष्ण पंचक बनता है। फिर चारों दिशाओं में विश्व रूप, पद्मनाभ हस्तामलक और तोरक तथा मध्य में शंकराचार्य को मिलाकर आचार्य पंचक बन जाता है। इसी प्रकार परम गुरु, परमेष्ठिगु, गोबिंदपाद, गौड़पाद ये चार और मध्य में अपना गुरु मिलाकर गुरुपंचक होता है। फिर चारों दिशाओं में यथाक्रम स्थित अंतरात्मा होने से आत्मापंचक होता है। हे शिष्य! परमहंस संन्यासी को पूजा मंडल में इन पंचकों की स्थापना करके उनकी पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार आषाढ़ मास की पूर्णमासी को व्यास आदि सूर्य देवताओं का पूजन करके उस परमहंस संन्यासी का वर्षा के दौरान मास या चार मास वहीं रहने का संकल्प करके निवास करना चाहिए। हे शिष्य! चातुर्मास में संन्यासी के एक ही स्थान में निवास करने का कारण यह है कि इन महीनों में यह पृथ्वी अगनित स्थावर जंगम जीवों से भर जाती है। उस समय चलने से उन जीवों को हिंसा होना अनिर्वाय है। इसलिए उन जीवों की रक्षा के लिए शास्त्र को आज्ञानुसार संन्यासी को चातुर्मास में एक ही स्थान में रहना उचित है। अब उस संन्यासी के यम नियम आदि साधनों का निरूपण करते हैं। हे शिष्य! उन संन्यासी को स्थावर जंगम किसी प्रकार के जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। कभी असत्य वचन नहीं कहना चाहिए। किसी एक के तिनका की भी चोरी न करे। स्त्रियों  के भोग का विचार भी न करे, न उसके साधन इकट्ठे करे। किसी के सम्मुख दंभ प्रकट न करे। किसी प्रकार का व्यर्थ वचन उच्चारण न करे, किंतु सदैव विष्णु या शिव का स्मरण, कीर्तन करता रहे। वेदांत शास्त्र का विस्तार करे और त्रिकाल स्नान करे। वर्षाकाल के अतिरिक्त कभी एक स्थान में न रहे और वर्षाकाल में जिस स्थान पर रहे वहां के पदार्थों में राग-द्वेष का भाव न रखे। शत्रु मित्र में मान-अपमान मंे समान भाव रखे। प्राणियों को अपनी आत्मा का समान जानकर अपने शरीर, मन, वाणी द्वारा उनको सुख पहुंचाने का ही प्रयत्न करे। संपत्ति तथा सुंदर स्त्रियों को काकविष्ठा के समान तुच्छ समझ दूर से ही उनका परित्याग करे। वह संन्यासी कभी अश्व आदि की सवारी न करे और कभी धनादिक पदार्थों का संग्रह न करे। केवल उन अन्न, वस्त्र आदि पदार्थों को ग्रहण करे जिनके बिना जीवन रक्षा हो सकनी असंभव है। अब परमहंस उपनिषद में परमहंसों के जो धर्म बतलाए हैं उनका वर्णन करते हैं। हे शिष्य! ऐसे संन्यासी को तीनों समय संध्या करना, गुरु के उपदेशानुसार सदैव ब्रह्म का चिंतन करना चाहिए।

इस प्रकार ब्रह्मचिंतन ही संन्यासी का संध्या कर्म है। संन्यासी को न किसी की निंदा करनी चाहिए और न अपनी विद्या बुद्धि का गर्व करना चाहिए। मत्सर, दंभ, राग-द्वेष, द्रोह आदि का उसे सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।

उन संन्यासियों को आत्मा के अतिरिक्त और किसी का पूजन नहीं करना चाहिए और न आत्मा से भिन्न और किसी प्रकार के मंत्रों का जप करना चाहिए।

हे शिष्य! जो अद्वितीय आनंदरूप ब्रह्म है, वही सर्व जगत का आत्मा है परमहंस संन्यासी को सदैव आनंद स्वरूप ब्रह्म में ही स्थित रहना चाहिए।

 


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