आरक्षण पर विमर्श क्यों नहीं?

By: Aug 22nd, 2019 12:06 am

सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण पर एक बार फिर बात क्या छेड़ी कि सियासत ही शुरू हो गई। मायावती, प्रियंका गांधी, तेजस्वी यादव सरीखे नेताओं ने संघ के मंसूबों को खतरनाक करार दे दिया। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि गरीब सवर्णं को आरक्षण मिलने के बाद अब इस मुद्दे पर चर्चा या विमर्श की कोई गुंजाइश नहीं है। आरक्षण पहले की तरह मिलता रहेगा। जब देश के प्रधानमंत्री मोदी ने आरक्षण के लिए जान की बाजी तक लगाने का आश्वासन सार्वजनिक मंच से दिया था, तो यह दुष्प्रचार गलत और राजनीतिक है कि संघ आरक्षण समाप्त करने का पक्षधर है। आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है, जिसमें संशोधन किए जा सकते हैं, लेकिन आरक्षण को कोई संगठन या राजनीतिक पक्ष समाप्त नहीं कर सकता। संघ के प्रचार प्रमुख अरुण कुमार ने भी स्पष्ट किया है कि संघ अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के पक्ष में है। गौरतलब यह है कि संघ प्रमुख भागवत ने एक सार्वजनिक मंच से कहा था कि जो आरक्षण के समर्थन या विरोध में हैं, वे दोस्ताना माहौल में और सद्भाव के साथ चर्चा करें, तो आरक्षण से जुड़ी गुत्थियां एकदम सुलझ जाएंगी। भागवत का यह भी मानना है कि आरक्षण समस्या नहीं है। आरक्षण पर राजनीति समस्या है। दरअसल हमारा मानना है कि आरक्षण ने जितना लंबा सफर तय किया है, उसका विश्लेषण करना बेहद जरूरी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के मद्देनजर और एक अछूत वर्ग का उत्थान कर समानता पर लाने की सोच के तहत आरक्षण देने की व्यवस्था तय की थी। बेशक कई पीढि़यों ने आरक्षण का लाभ लेकर अपने और परिवार की जिंदगी को पुनः परिभाषित किया होगा। लेकिन समीक्षा यह होनी चाहिए कि जो व्यवस्था 10 साल के लिए थी, देश की आजादी के 72 सालों के बाद भी वह जारी क्यों है? और कब तक चलती रहेगी? यह आकलन भी जरूरी है कि विभिन्न सरकारी सेवाओं में या अन्य स्तरों पर कितने फीसदी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण की सुविधाएं मिलीं और उनका कितना उत्थान हुआ? वे किस स्तर पर सामाजिक और आर्थिक रूप से समानता महसूस करते हैं? क्या उनका आरक्षण भी जारी रहना चाहिए, जो दलित होने के बावजूद करोड़ों रुपए की संपदा के मालिक हैं या जिनकी तीन पीढि़यां आईएएस बनती रही हैं? उन्हें इस स्तर पर पहुंच कर आरक्षण दूसरों के लिए क्यों नहीं छोड़ देना चाहिए? संघ प्रमुख ने विमर्श की बात कही है, तो उसमें ये तमाम पहलू उभर कर सामने आ जाएंगे। दरअसल कुछ जातियों ने आरक्षण को ‘हथियार’ बना लिया है। आरक्षण भी पूरी तरह ‘जातिवादी’ साबित हुआ है, हालांकि बाबा अंबेडकर ऐसा नहीं चाहते थे। वे उस जमात से नाखुश थे, जो आरक्षण का लाभ लेकर ‘क्लर्क’ तो बन गई और सामंतवादियों से जाकर चिपक गई। बाबा ने ये भाव 1956 के अपने लेखन के जरिए प्रकट किए थे। उनका मानना था कि आरक्षण के कारण हजारों, लाखों डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि तो बन गए, लेकिन उन्होंने अपने समाज की कोई सेवा नहीं की। यदि बाबा अंबेडकर के इन कथनों को ही आरक्षण का सारांश मान लिया जाए, तो सवाल हो सकता है कि दबे, कुचले, वंचित और पिछड़े वर्ग का मानसिक उत्थान कहां हुआ? तो फिर आरक्षण का बुनियादी मकसद तो नाकाम रहा? यदि आरक्षण के तमाम पक्षों पर विमर्श किया जाता है, तो यह तय करने में भी मदद मिलेगी कि आरक्षण सिर्फ ‘जातिवादी’ होना चाहिए अथवा उसके आधार कुछ और भी हो सकते हैं। आरक्षण के संदर्भ में आरएसएस की भूमिका पर संदेह करना भी पूर्वाग्रही है। दरअसल दलितों के बीच सबसे बड़ा संगठन-‘सेवा भारती’-संघ का ही है। इसी तरह आदिवासियों के साथ काम करने वाला सबसे बड़ा संगठन ‘बनवासी कल्याण आश्रम’ भी संघ का है। सबसे ज्यादा दलित सांसद भाजपा के हैं। संघ दुनिया के शीर्ष स्वयंसेवी संगठनों में एक है। उसकी किसी एक सोच को आप नापसंद कर सकते हैं, लेकिन नफरत की कोई वजह नहीं है। सरसंघचालक का यह कथन भी तब सामने आया है, जब हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में विधानसभा चुनाव करीब हैं। बिहार चुनाव के दौरान ऐसे ही बयान की राजनीतिक व्याख्या लालू यादव ने ऐसी की थी कि भाजपा चुनाव हार गई थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा, क्योंकि लोगों का मानस बदल चुका है और वे आरक्षण के आकलन के पक्ष में हैं।


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