ड्ढकुंडलिनी साधनाएं : कुंडलिनी क्या है

By: Aug 31st, 2019 12:05 am

मनुष्य के शरीर का भी एक सर्किट है। यह सर्किट ऊर्जा के जिस चक्र का निर्माण करता है, वह सूक्ष्म शरीर है। कुंडलिनी का जागरण इसी चक्र में परिवर्तन करना है। निःसंदेह इससे स्थूल शरीर की संरचनाओं में भी परिवर्तन होता है, लेकिन यह परिवर्तन सूक्ष्म होता है और उसे आधुनिक विज्ञान के उपकरण पकड़ पाने में असमर्थ हैं। मनुष्य के शरीर में मूल चेतना की धारी रीढ़ में ऊपर से नीचे की ओर चलती है और यहीं से यह संपूर्ण शरीर को चेतना-शक्ति प्रदान करती है। यह रीढ़ की नोंक से निकल जाती है। इसका कुछ अंश धरती में टांगों, पैरों से होते हुए समाहित हो जाता है…

-गतांक से आगे…

मनुष्य के शरीर का भी एक सर्किट है। यह सर्किट ऊर्जा के जिस चक्र का निर्माण करता है, वह सूक्ष्म शरीर है। कुंडलिनी का जागरण इसी चक्र में परिवर्तन करना है। निःसंदेह इससे स्थूल शरीर की संरचनाओं में भी परिवर्तन होता है, लेकिन यह परिवर्तन सूक्ष्म होता है और उसे आधुनिक विज्ञान के उपकरण पकड़ पाने में असमर्थ हैं। मनुष्य के शरीर में मूल चेतना की धारी रीढ़ में ऊपर से नीचे की ओर चलती है और यहीं से यह संपूर्ण शरीर को चेतना-शक्ति प्रदान करती है। यह रीढ़ की नोंक से निकल जाती है। इसका कुछ अंश धरती में टांगों, पैरों से होते हुए समाहित हो जाता है। कुंडलिनी के जागरण का वैज्ञानिक स्वरूप यह है कि ध्यान की एकाग्रता की शक्ति से रीढ़ की निचली नोंक से ऊर्जा को ऊपर खींचने का प्रयत्न किया जाता है। धीरे-धीरे योगी अभ्यास करता हुआ इस धारा को उल्टा कर देता है। ऊर्जा रीढ़ की निचली नोंक से प्रारंभ होकर सहस्रार-चक्र में समाहित हो जाती है। धारा उल्टी हो जाती है। प्रश्न यह है कि मनुष्य या जीव के हृदयस्थल एवं सहस्रार-चक्र में तो आत्मिक शक्ति का बिंदु है, जहां से उसकी तरंगें नीचे की ओर जाकर गुदास्थि से ब्रह्मांड में निकल जाती हैं। योगी जिस चेतना को गुदास्थि से खींचकर सहस्रार-चक्र तक पहुंचाता है, वह चेतना कहां से आती है? उसका मूल स्रोत क्या है? यही वह प्रश्न है, जिसका योग नामकरण पर भी प्रकाश डालता है। यह ब्रह्मांडीय चेतना है, जिसे योगी गुदास्थि से खींचकर मस्तक तक पहुंचाते हैं। यह किसी कुएं या तालाब को अंदरूनी नालियों के जरिए अनंत जलस्रोत से जोड़ देने जैसा है।

कुंडलिनी जागरण के लिए ध्यान

सर्वप्रथम आपको ध्यान के लिए त्राटक एवं प्रारंभिक चक्षु-ध्यान का आभास पूर्ण रूपेण कर लेना चाहिए। इससे आप कंडलिनी ‘हृयान’ में लगने वाले ढेर सारे परिश्रम से बच जाएंगे। आपको अपने शरीर के सातों चक्रों का अनुभव भी होने लगेगा। इसके बाद निम्नलिखित प्रयोग का अभ्यास करें।

प्रयोग : ब्रह्म मुहूर्त में (4 से 5 बजे) शौचादि क्रियाओं से प्रारंभिक धौति-नेति क्रियाओं को करके समतल भूमि पर आसन बिछाकर पूर्व की ओर मुंह करके बैठ जाएं। अपनी सुविधानुसार आप पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन किसी भी मुद्रा में बैठ सकते हैं। बैठने का स्थान खुला हुआ, प्रदूषण-मुक्त, एकांत एवं शांतिपूर्ण होना चाहिए।          


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