नियमों की समाधि कब तक

By: Aug 12th, 2019 12:05 am

क्या जटिल प्रश्नों का उत्तर हमेशा सरल हो सकता है, कम से कम हिमाचल में तो ऐसा ही प्रतीत होता है। इसलिए कमोबेश हर सरकार और सरकारी महकमों के कर्त्तव्यों की पड़ताल में नियमों में फेरबदल आसानी से हो जाता है और इसी तरह कर्मचारी कॉडर की विसंगतियां सदा नाक-मुंह चिढ़ाती हैं। हर बार की तरह इस बार भी देखा जाएगा कि वर्तमान सरकार नियमों की समाधि सजा कर किसे राहत दे रही है। इसे हम नियमों का भाईचारा या सरकारों की भलमनसाहत में देखें कि जनता को हमेशा सौहार्द के हिल्लोरे ही दिए जाते हैं। ताजा उदाहरण पुनः टीसीपी कानून की मूंछ मूंडने की तरह यह इंतजाम किया जा रहा है ताकि हमें नवनिर्माण की खुली इजाजत रहे। करीब चार दशक पुराने टीसीपी एक्ट की समीक्षा अगर हो तो शायद इसकी वजह व जिरह बदले, लेकिन यहां तो इसकी असफलता को निरस्त करने का तौर तरीका बदलना है। कहने को प्रदेश के करीब 55 योजना क्षेत्र हैं, जिनके आधार और अधिकृत सरोकार को कम करने की चुनौती है। कमोबेश हर सरकार ने राहत देने के लिए कानून की जरूरतों को ढीला किया और यही इस मामले में भी होगा। नियमों की ऐसी समाधियां हिमाचल की शासन प्रणाली की पहचान हैं और इसलिए राजनीतिक भाईचारा कानूनों को शिथिल करता रहता है, लेकिन कहीं दांव उल्टा भी पड़ता है। इसलिए एनजीटी की निगाहों से देखें तो जवाबदेही बढ़ती है। कानून को शिथिल करके जनता को बहलाना-फुसलाना आज आसान हो सकता है, लेकिन कल जब भविष्य ही अवरुद्ध होगा तो पश्चाताप के सिवा क्या बचेगा। ऐसा ही एक जटिल प्रश्न अब धारा 118 से मुखातिब है, जहां राष्ट्रीय बहस के दायरे हिमाचल से भी पूछने लगे हैं कि कब तक पर्दे के पीछे छिपे रहोगे। यह दीगर है कि धारा 118 के सही इस्तेमाल से कहीं अधिक इसका नकारात्मक प्रयोग हुआ और इसकी आड़ में भ्रष्टाचार पनपा है, लेकिन इसके इर्द-गिर्द खड़े जटिल प्रश्नों का उत्तर नहीं खोजा गया। कमोबेश इसी तरह नए उपग्रह शहरों की जरूरत पर कोई नीति नहीं बनी। सड़कों पर बसे अतिक्रमण के खिलाफ कानूनों की शिथिलता का संरक्षण अगर होता रहेगा, तो कौन बचाने आएगा। सारे हिमाचल में वाहन वर्कशॉप या बिना माकूल पार्किंग के उठते व्यावसायिक परिसर अगर जनता के साथ सरकारों का सौहार्द है तो टीसीपी एक्ट का होना न होना एक समान है। हिमाचल में कानून बनाने, अपनाने और अमल में लाने की व्याख्या अलग-अलग हो रही है, लिहाजा कथनी-करनी की सियासी कमजोरियां दरपेश आ रही हैं। कानूनों की फेहरिस्त में ऐसी इच्छाशक्ति पैदा नहीं हुई, जिससे सरकारी सेवाओं में गुणवत्ता और कार्यालयीन कार्यों के निष्पादन में कार्यसंस्कृति का प्रसार हुआ हो। बेशक हिमाचल तुलनात्मक दृष्टि से सुशासित प्रदेश रहा है, लेकिन इसकी वजह इसका आकार है। आज जब परिस्थितियां और निजी प्रगति का परिदृश्य तीव्रता से बदल रहा है, तो कानूनों को पाजेब पहनाकर जिम्मेदारी पूरी नहीं होगी, बल्कि हिमाचल में पनप रहे माफिया सोच को बेडि़यां पहनाने का यह समय खोना नहीं होगा। आज की छूट से समाज के हाथ खोल सकते हैं, लेकिन जब कल राज्य के हाथ बंधे होंगे तो कौन आकर खोलेगा। भविष्य की पैरवी सरलता या तरलता में देखने का अर्थ राजनीतिक नफे-नुकसान को चुनने जैसा है, लेकिन सुखद भविष्य को चुनने के लिए कठिन रास्ते, कठोर नियम तथा कारगर पद्धति ही चाहिए।


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