भाजपा की छननी से निकले अनिल

By: Aug 15th, 2019 12:05 am

आज की भाजपा में यूं तो दूसरी पार्टियों के विधायकों का सियासी हृदय परिवर्तन आम है, फिर भी अनिल शर्मा को रुखसत करते हुए न किसी की आंख भरी और न ही मलाल हुआ। अंततः भाजपा की छननी से सुखराम परिवार निकल गया। भाजपा की सदस्यता कमोबेश उतनी ही कड़वी थी, जितनी सुखराम द्वारा पोते के लिए पैदा की गई शर्तें। यह दीगर है कि मोदी के जादू ने मंडी में बिछी पंडित परिवार की बिसात समेट दी और न घर रहा, न घाट। बेशक कांग्रेस ने आश्रय शर्मा के आगे घुटने टेक कर मंडी में अपना खोया वापस पाने की कोशिश की, लेकिन पार्टी के लिए यह दांव खोखला रहा। भाजपा ने एक साथ कई सुराख करते हुए कांग्रेस की लाचारी में अनिल शर्मा की जरूरत को बेदखल किया है। इसे भाजपा के साहस व सामर्थ्य से कहीं अधिक कांग्रेस की मिट्टी का पलीद होना कह सकते हैं, क्योंकि अनिल शर्मा को हटाकर भाजपा ने यह साबित कर दिया कि उसके हाथ कितने लंबे हैं। यहां से सियासत अपनी घोषणाएं करती है और सेरी मंच के आगे जश्नों का भविष्य रेखांकित होता है। अभी यह आकलन कठिन है कि निष्कासित अनिल शर्मा मंडी की राजनीति से निष्कासित हो रहे हैं या भाजपा की एकतरफा कार्रवाई से इन्हें पुनः कोई संवेदनात्मक लाभ होगा। जो भी हो भाजपा ने अपने राजनीतिक मानचित्र को स्पष्ट करते हुए यह बता दिया कि समय-समय पर पार्टी अपनी शक्ति का प्रदर्शन, संगठन के भीतर और जनता के सामने करती रहेगी। संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया से पूर्व पार्टी ने अपने संदेश की भूमिका बांधी है, लेकिन इसके साथ दो उपचुनावों की पारी नत्थी है। सफलता के लिए भाजपा के तरकश में तीरों की कमी नहीं, लेकिन कांगड़ा के भंवर में सत्ता के अपने भ्रम हैं। रमेश धवाला की कुंठा के सामने संगठन में पवन राणा का शक्ति प्रदर्शन और पालमपुर में भाजपा मंडल की सोहबत से दरकिनार की गई इंदु गोस्वामी की सियासी लकीर पर पार्टी के हस्ताक्षरों की अपनी परेशानियां व संदर्भ हैं। मंत्रिमंडल से निकल चुके अनिल शर्मा अब भाजपा से भी माइनस हैं, लेकिन सांसद बनकर किशन कपूर ने कांगड़ा का सरकार में वजन कम किया है। इस तरह भाजपा का अपना ऊंट तो करवट ले रहा है, लेकिन सरकारी सवारी के इंतजार में नेताओं की बेचैनी कम नहीं हो रही। पार्टी के अपने चौबारे चहक जरूर रहे, लेकिन सरकार में रिक्तियों के परेशान माहौल से असंतुष्ट नेता लक्ष्मण रेखाओं से विचलित हैं। बतौर शहरी विकास मंत्री सरवीण चौधरी अगर केवल विधायक बनकर रह गई हैं, तो हालिया फैसलों की उधेड़बुन में शंकाओं के सिवा क्या मिलेगा। कांगड़ा की राजनीति में अव्वल रही भाजपा की पुनः समीक्षा धर्मशाला के उपचुनाव में होगी। यहां केवल एक चेहरे को चुनना और जीत के काबिल बनाना ही चुनौती नहीं, बल्कि कांग्रेसी एकजुटता के नए समीकरणों को छिन्न-भिन्न करने की ताकत एकत्रित करना भी लाजिमी तौर पर भाजपा की नसीहत बनता है। बहरहाल अनिल शर्मा के राजनीतिक घटनाक्रम की तासीर में परिवारवाद, क्षेत्रवाद, अहंकार और अवसरवाद को देखा जाएगा। विनेबिलिटी के पीछे राजनीतिक दलों ने जिस संस्कृति को पनपने का मौका दिया है, उसका पटाक्षेप मंडी के आंसू पोंछने के साथ-साथ भाजपा की महत्त्वाकांक्षा को भी रेखांकित करता है। कभी पंडित परिवार के आंगन में भाजपा की सियासी रंगोली स्वीकार थी, लेकिन दांव जब उलटा पड़ा तो अब इसी परिवार की बगिया उजड़ रही है। देखना यह होगा कि अनिल शर्मा को लेकर अब कांग्रेस क्या उगलती है और क्या निगलती है। राजनीति के वर्तमान दौर में पंडित सुखराम का परिवार अकेला  नहीं था और न ही इस सबक से समूची राजनीति गंगा नहा लेगी। आज के दौर में भाजपा किसी को भी अछूत नहीं समझती, फर्क व आदर्श यही है कि विपक्ष का सूपड़ा साफ हो जाए। हिमाचल के अपने विधायक को पार्टी से निकालने वाली भाजपा के लिए सिक्किम के दस विपक्षी विधायकों को सीधे अपनाना भी जीत के संस्कार हैं, तो कल इतिहास बताएगा कि राजनीतिक सियार कब रंग बदल कर प्रासंगिक हो जाए। देखना यही है कि अनिल शर्मा अपनी जिल्लत के बाद किस तरह जनता की नजरों में प्रासंगिक बने रहते हैं।


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