रिश्तों का नया‘डिस्कोर्स’

By: Aug 25th, 2019 12:06 am

रचतीं कथा लेखिकाएं

साहित्य के मर्म से-2

‘लमही’ और ‘दोआबा’ नामक लघु पत्रिकाओं के ताजा अंक पाठकों के सामने आ चुके हैं। इन पत्रिकाओं के नए अंकों की समीक्षा यहां दी जा रही है : लमही : लखनऊ से विजय राय के संपादन में 12 साल से छप रही ‘लमही’ पत्रिका वाराणसी के समीप प्रेमचंद के लमही गांव के टाइटल से आरंभ हुई थी। अप्रैल-सितंबर 2019 का विशेषांक हिंदी की महिला लेखिकाओं की रचनाशीलता पर केंद्रित है। इस अंक में 50 से अधिक आलोचनात्मक लेख शामिल हैं। इसमें केवल खूब चर्चित व लंबे समय से कहानियां लिख रही लेखिकाओं की रचनाओं को परखा गया है। इस मायने में सृजन की दुनिया में महिलाओं की रचनाओं का नया संसार खोलता है। जंजीरें तोड़ अंधेरे से बाहर निकलती औरत (ममता कालिया), कहानी की तलाश जारी है (अलका सरावगी), आधी दुनिया के सपनों की पुकार (गीता श्री), औरत के हिस्से का आकाश (सोनी पांडेय) लेख महत्त्वपूर्ण हैं। प्रवासी महिला लेखन पर पंखुरी सिन्हा व प्रांजल धर के लेख भी ध्यान खींचते हैं। खुद एक बड़ी कथाकार वंदना राग का लेख ‘विविध रंगों में रंगी कहानियां’ लेखिकाओं द्वारा सृजन में खोजी जा रही नई जमीन व भाव बोध को सामने लाता है। पुनीता जैन ने आदिवासी दलित लेखिकाओं के रचना संसार को खंगालने का प्रयास किया है। वे लिखती हैं, ‘जहां दलित लेखिकाएं अतीत में हुए दलित उत्पीड़न, शोषण, अन्याय का उल्लेख कर नया समतापूर्ण समाज बनाने का स्वप्न देखती हैं, वहीं आदिवासी कथा लेखिकाएं अपनी जड़ों से जुड़ाव के लिए चिंतित हैं।’ वरिष्ठ कथा लेखिका ममता कालिया की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी गौरतलब है, ‘साहित्य का स्पेस वैश्विक है। ऐसे समय में स्त्री कार्ड खेलना खतरनाक है। साहित्य में महिला होने का लाभ लेना अनुचित है। स्त्री कार्ड वैसे ही है जैसे चुनाव में जाति कार्ड खेलना।’ यह एक पठनीय विशेषांक तो है ही, शोधकर्ताओं के लिए संग्रहणीय भी है। इसमें संपादकीय विजन की झलक देखी जा सकती है।

पत्रिका परिचय : लमही : अप्रैल-सितंबर 2019 अंक। संपादक : विजय राय। पता : 3/343, विवेक खंड, गोमती नगर, लखनऊ-226010, मूल्य : 50 रुपए।

दोआबा : पटना से 13 साल से लगातार छप रही त्रैमासिक पत्रिका ‘दोआबा’ का 29वां अंक कई मायनों में लीक से हटकर है। बिहार विधानसभा में स्पीकर, फिर सांसद रहे जाबिर हुसेन का नाम देश के चुनिंदा लेखकों व चिंतकों में शुमार किया जाता है। वे अपनी पेंशन की बचत से ‘दोआबा’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिका पाठकों तक पहुंचा रहे हैं। जून 2019 का अंक उन बेजुबान से बच्चों को समर्पित है जो कुपोषण, उपेक्षा, अहंकार, क्रूरता के शिकार होकर हर साल अस्पतालों में दम तोड़ रहे हैं। जाबिर हुसेन लिखते हैं, ‘कालेज में पढ़ते वक्त सोचा करता था कि कभी यह शहर (पटना) गंगा पार हमारी आशाओं की राजधानी बन जाएगा। सो तो नहीं हो सका। पर ये शहर मासूम नस्लों की कब्रगाह जरूर बन गया।’ प्रस्तुत अंक में सर्वाधिक आकर्षित करने वाली रचना है ऊना में रहने वाली प्रसिद्ध व चर्चित लेखिका पल्लवी प्रसाद का लंबा उपन्यास ‘काठ का उल्लू’। उपन्यास का कथानक बड़े फलक पर रचा गया है और यह पीढि़यों के वर्ग संघर्ष को सामने लाता है। यानी कामयाबी का शिखर छूने के बाद व्यक्ति किस प्रकार अपनी मौलिकता, मासूमियत, आजादी और नैसर्गिकता को गंवा बैठता है, उसका एक वृहद ‘मैटाफर’ यह उपन्यास रचता है। बुजुर्गों ने बच्चों को सिखाया कि वे बड़ों से प्रश्न न करें। सुनते रहें। नेट के युग में सांस लेने वाले नौनिहालों के लिए वैचारिक आजादी के खास मायने हैं। वे अपनी निजता, स्वतंत्रता के प्रति खूब सजग व सचेत हैं। ऐसे बहुत से प्रश्नों से यह उपन्यास मुठभेड़ करता है। रिश्तों की नई परिभाषा रचता है। बीजापुर शहर पर रुचि भल्ला का संस्मरण, हरिराम मीणा का आदिवासी समाजों पर शोधपरक लेख व राजी सेठ की लंबी कविता, जो 1984 के सिख दंगों की यंत्रणा व यातना को रेखांकित करती है, ‘दोआबा’ के इस अंक के अन्य विशेष आकर्षण हैं।

पत्रिका परिचय : दोआबा। संपादक : जाबिर हुसेन। पता : 247, एमआईजी, लोहिया नगर, पटना – 800020, मूल्य : 100 रुपए।


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