विष्णु पुराण

By: Aug 17th, 2019 12:12 am

संतर्ति से जुगुप्संति तस्मान्मृत्युर्जितश्च तैः।

अष्टाशाीतिसहस्राणि मुनिनामृध्वरेतासाम्।

उदक्यन्थानमथम्णः स्थितान्याभूतसम्प्लवम्।

तेऽसम्प्रागालोभस्य मैथनस्य च वर्जनात्।

इच्छाद्वेषाप्रवृत्या च भूतारम्भविवर्जनात्।

पुनश्च कामसंयोगाच्छन्दादेर्दोष दर्शनात्।

इत्येभिः कारणैः सुजास्तेऽमृतत्वं हि भेजिरे।

आभूतसम्ल्वं स्थानममुतत्वं विभाव्यते।

त्रैलोक्यस्थितिकालाऽयमपुनर्मार उच्यते।

ब्रह्महत्याश्चमेघाभ्यां पापपुण्यकृतो विधिः।

आभूत मम्ल्यावान्तंतु फलमुक तयोद्विजः।

वे कभी संतान की कामना नहीं करते। इस प्रकार उन्होंने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। सूर्य के उस उत्तरीय मार्ग में अस्सी हजार ऊर्ध्वरेता ऋषियों का निवास है।

उन्होंने लोभ, मैथुन, इच्छा, द्वेष, कर्मानुष्ठान, वासना, तथा शब्दादि विषयों के दोष-दर्शन आदि का पूर्णतया त्याग किया हुआ है। इसीलिए उन्होंने अमरत्व को प्राप्त कर लिया है। प्राणियों का प्रलयकाल तक स्थिर रहना ही अमरत्व कहा गया तीनों लोकों के स्थिर रहने तक के इस समय को अयमपुनर्मार कहते हैं।

हे द्विज! ब्रह्म हत्या और अश्वमेघ यज्ञ के करने से जो पाप-पुण्य हो जाते हैं। उनका फल भी प्रलयकाल की उपस्थिति तक की कहा गया है।

यावन्मात्रे प्रदेशे तु मैत्रेयावस्थितो ध्रुवः।

क्षयमायाति तावृत्त भूमेराभूतसम्प्लावत।

उर्ध्वोत्तस्मषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः।

एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीय व्योम्नि भासुरम्।

निर्धूतदोषपङ्गनां यतीनां संयतत्मनाम्।

स्थानं तत्परम विप्र पुष्पापपारक्षये।

अपुण्यपुण्योपरमे क्षीक्षाशेषाप्तिहेतवः।

यत्र गत्वा न शोचन्ति तद्विष्णोः परमपदत।

धम धुबाद्यास्तिष्ठन्ति यत्र के लोक साक्षिणः।

तत्साष्टर्योत्पन्नयोगेद्धास्तदू विष्णवे परम पद्म।

यत्रोतमेतत्प्रोत च तद्भूतं सचराचरम।

भाव्यं च विश्वं मैत्रेय तद्विष्णो परमं पद्म।

दिवीय चक्षुराततयोगिनां तन्मयात्मनाम्।

विकेकज्ञानदृष्टं च तद्विष्णोः परम पद्म।

हे मैत्रेयजी! जितने प्रवेश में धु्रव की स्थिति है, पृथ्वी से लेकर उस प्रदेश तक सब प्रलय काल में विलीन हो जाता है। यह ध्रुव सप्तर्षियों के उत्तर ओर तथा ऊपर अत्यंत तेयोमय स्थान है, उस आकाश में भगवान विष्णु का तीसरा दिव्यधाम समझो। पुण्य-पाप तथा दोष-पक के नष्ट होने से संयतात्मा हुए ऋषियों का पुण्य-स्थान यही है।

पुण्य-पाप के नष्ट होने तथा देह प्राप्ति के सब कारणों से क्षीण हो जाने पर वहां जाकर प्राणियों को शोक नहीं रहता। यही भगवान विष्णु का परमपद है। जहां विष्णु के समान एश्वर्यवान हुए और योग से तेजस्विता को प्राप्त हुए धर्म ध्रुव लोक में साक्षि रूप से रहते हैं, वहीं उन भगवान का परमपद है। हे मैत्रेयजी! जिसमें भूत, भविष्य, वर्तमानमय यह चराचर विश्व ओत-प्रोत है, वही भगवान विष्णु का परमपद है। जो तन्मय हुए योगियों को आकाश में प्रकाशित सूर्य के समान सबका प्रकाश करने वाला प्रतीत होता है तथा जो विवेक द्वारा ही प्रत्यक्ष होता है, व भगवान विष्णु का परमपद ही है।

 


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