संन्यास ग्रहण

By: Aug 3rd, 2019 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

तुम चिंता मत करो, वो लौट आएगा। इस स्थान को छोड़कर   वह कहीं नहीं जाएगा। नरेंद्र ने बुद्ध गया में जाकर बोधिसत्व के मंदिर में दर्शन किए। बोधिवृक्ष के नीचे पवित्र प्रस्तारसन पर  नरेंद्र ध्यानस्थ हुए। उनको गुरु भाइयों ने ध्यान टूटने पर बड़े प्यार से देखा। नरेंद्र पत्थर की तरह निश्चल हैं, उनका शरीर स्पंदनहीन है। बहुत देर बाद तनिक अर्थ ब्रह्मज्ञान प्राप्त होने पर वो क्रंदन कर उठे। अगले पल फिर नरेंद्र ध्यानस्थ हो गए। उनके ध्यानस्तिमित नेत्रों से सत्य की विपल ज्योति निकल पड़ी, उन्होंने क्या देखा तथा क्या समझा, यह अपने गुरु भाइयों से प्रकट न किया, बल्कि लगातार तीन दिन कठोर तपस्या में बिताकर वो बुद्ध गया से काशीपुर के बागीचे वाले मकान में लौट आए थे। नरेंद्र बुद्ध गया से लौट कर ये समझ गए कि जिस अतृप्त पिपासा से कातर होकर वे इधर-उधर दौड़-धूप कर रहे हैं, वह एकमात्र श्री रामकृष्ण की कृपा के बिना किसी प्रकार तृप्त नहीं हो सकती। उन्होंने संकल्प स्थिर कर लिया, पर दूसरे भक्तों की भांति वो विश्वास की तरह गुरु चरणों में आत्मसमर्पण न कर सके। वो सत्य की उपलब्धि चाहते थे, इसलिए कठोर तपस्या में डूब गए।

रात्रि का समय है,सर्वत्र निस्तबद्धता व्याप्त है। काशीपुर  के उद्यान भवन के एक कक्ष में रामकृष्ण रोग शैय्या पर लेटे हैं। सभी शिष्य उनके पास खड़े हैं। उस कमरे में और कोई भी नहीं था। आज नरेंद्र नाथ पूरे संकल्प से आए थे कि जिस उपाय से भी हो, निर्विकल्प समाधि लेकर ही रहेंगे। चिरकाल, पुरुषाकार के उपासक आज दया की शिक्षा मांगने आए हैं, लेकिन भय से, विस्मय से, सभ्रम से उनकी आवाज नहीं निकली। अंतर्यामी पुरुष शिष्य की मर्जी को समझ गए कि वो क्या चाहता है। श्री रामकृष्ण सस्नेह दृष्टि से उनकी तरफ ताकते हुए बोले, नरेंद्र, तू क्या चाहता है? सही मौका पाकर नरेंद्र ने जवाब दिया, मैं शुकदेव की तरह निर्विकल्प समाधि के जरिए सदा सच्चिदानंद सागर में डूबे रहना चाहता हूं। श्री रामकृष्ण के नेत्रों से किंचित अधीरता प्रकट हुई। उन्होंने कहा, बार-बार यही बात कहते हुए तुझे लज्जा नहीं आती? समय आने पर कहां आज अपनी ही मुक्ति के लिए व्यकुल हो उठा? क्षुद्र आदर्श है तेरा। नरेंद्र की आंखों में आंसू आ गए। वो अभिमान के साथ कहने लगे निर्विकल्प समाधि न होने पर मेरा मन किसी भी तरह शांत नहीं होगा और अगर मन शांत न हुआ, तो मैं वह सब कुछ  भी न कर सकूंगा। तो क्या तू अपनी इच्छा से करेगा? जगदंबा तेरी गर्दन पकड़कर करा लेगी, तू न कर, तेरी हड्डियां करेंगी।

नरेंद्र की कातर प्रार्थना की उपेक्षा करने में असमर्थ होकर श्री रामकृष्ण ने आखिर में कहा, अच्छा अब तू जा, निर्विकल्प कहानी होगी। शाम के समय एक दिन ध्यान करते-करते नरेंद्र अप्रत्याशित रूप से निर्विकल्प समाधि में डूब गए। उनकी समाधि काफी देर बाद भंग हुई। उन्होंने महसूस किया कि उनका मन उस स्थिति में संपूर्ण रूप से कामना शून्य होने पर भी एक अलौकिक शक्ति उन्हें मर्जी के खिलाफ पंचेद्रिय बाह्य जगत में उतारकर ला रही है। बहुजन हिताय, बहुतन सुखय कर्म करूंगा मैं और मेरा उपरोक्षानुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूंगा। समाधि में बैठने के बाद नरेंद्र ने यह शब्द कहे थे। श्री रामकृष्ण के गले में उमी रोग ने फिर दोबारा भयंकर रूप ले लिया था।                                                 


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