सच्चाई का मार्ग

By: Aug 24th, 2019 12:25 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

स्वामी निरंजनानंद और स्वामी रामकृष्ण इस सबके रक्षक थे। वे देने को कतई राजी न थे। स्थिति बिगड़ते देखकर स्वामी विवेकानंद ने सभी भक्तजनों से कहा, महापुरुषों के देहावशेष के बारे में शिष्यों के विवाद धर्म जगत में कई बार हुए हैं, इसमें कोई शक नहीं, इसलिए रास्ते का ही अनुसरण करना हमारा कर्त्तव्य नहीं है। हम संन्यासी हैं। हमें श्री रामकृष्ण जी के महान जीवन से जो आदर्श मिले हैं, उसी आदर्श को सामने रखकर हमें आगे बढ़ना है। हमारा सबसे पहला कर्त्तव्य है और यही हमारी संपत्ति है। मगर हम गुरुदेव का आदर्श कार्यरूप में परिणत कर सकें, तो सारा संसार हमारे चरणों में होगा। विवेकानंद जी की इस बात का रामकृष्णानंद ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। देहावशिष्ट भस्म और अस्थियों का कुछ भाग रखकर शेष ताम्रपत्र के  साथ लौटाने के लिए वो राजी हो गए। आखिर में शुभ दिन देखकर श्रीरामकृष्ण के सभी भक्त इकट्ठा हुए और कांकुडगादी के योगाधीन में पवित्र ताम्रपत्र को स्थापित कर दिया। इस तरह गुरुभाइयों में मानोमालिन्य का जो सूत्रपात हुआ था, उसे प्रशंसनीय उदारता कि जरिये स्वामी जी ने अंकुरावस्था में ही विनष्ट कर दिया। अभिभावाकों की मठ में लाइन लगी हुई थी। समझा-बुझकार वो अपने पुत्रों को वहां से ले जाकर गृहस्थाश्रम में डालना चाहते थे। उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देते थे। तब स्वामी जी एक शेर की तरह गर्दन उठाकर कहते, अगर हम ईश्वर को प्राप्त न कर सके तो क्या इंद्रियों के दास होकर जीवन बिताएंगे। क्या हम संन्यास के महिमामय आदर्श से भ्रष्ट हो जाएंगे? भाग्य में कुछ भी क्यों न हो,त्याग के महान आदर्श पर हम प्राण से अडिग रहेंगे। शरीर नष्ट हो जाए, सर्वस्व चला जाए, हम उद्देश्यों को नहीं छोड़ेंगे। क्या हम श्री रामकृष्ण की संतान नहीं हैं? स्वामी जी के इस कथन से युवा संन्यासी किसी प्रलोभन में न आते और अभिभावकों को निराश ही लौट कर जाना पड़ता। कुछ दिन मठ में बिताने के पश्चात संन्यासियों के दिल में तीर्थ भ्रमण करने की अकांक्षा जागी। एक दो संन्यासियों को यह अकांक्षा हुई कि शायद हो सकता है कि इस बात की आज्ञा न मिले। इससे वह स्वामी विवेकानंद से कहे बिना ही तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। उस समय स्वामी किसी कारणवश कलकत्ता से बाहर गए हुए थे। वहां से आने पर उन्हें शिष्यों के बारे में पता चला कि वह सब मठ छोड़कर गए हुए हैं। स्वामी जी यह सुनकर गहरी चिंता में डूब गए कि कहीं वह लोग किसी विपत्ति में न पड़ जाएं। उन्होंने तुरंत ब्रह्मानंद को बुलाकर पूछा, तुमने सबको जाने ही क्यों दिया? अब देखो उन लोगों की वजह से मैं कितना परेशान हूं। उन्होंने बेचैनी व्यक्त करते हुए कहा।                                               


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