सद्गुरु की कृपा

By: Aug 24th, 2019 12:25 am

बाबा हरदेव

अतः भगवान में मिटने के लिए भक्ति से अधिक सुगम और ज्यादा उपाय नहीं है। भक्ति सभी साधनों से श्रेष्ठ है,क्योंकि इस सूरत में पहले चरण से ही मिटने की यात्रा शुरू हो जाती है। कबीर जी का भी फरमान हैः

भाव भक्ति विश्चास बिन कटे न संसे सूल

कहे कबीर हरि भक्ति बिन मुक्ति नहीं रे मूल

भक्ति दान मोहे दीजिए गुरु देवन के देव

और नहीं कुछ चाहिए निस दिन तेरी सेव

महात्माओं का मत है कि जो धर्म हमें न मिटाए वो वास्तविक धर्म नहीं है, क्योंकि धर्म तो आत्म विसर्जन है, स्वयं को पिघलाना, बहा देना है। हमारी अकड़ पिघल जाए बर्फ  की तरह जमी हमारी छाती पिघल जाए, हम पूर्ण तरह से बह जाए, तब सब दशाओं में हम अस्तित्व के साथ एक हो जाएं। फिर अस्तित्व या भगवान कहा जाए, सत्य कहा जाए, निर्वाण कहा जाए या मोक्ष कहा जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता। मानो नाम पर मत जाया जाए, जो भी किसी की मर्जी हो वो कह सकता है। अब सच तो यह है कि मुक्ति का अर्थ है कि हमें अपने मन से मुक्त होना है। मुक्ति यानी कि अपने मन से मुक्ति। अस्तित्व से थोड़े ही मुक्त होना है क्योंकि हम बहुत ही छोटे हैं और अस्तित्व अनंत है। भला एक छोटी सी नर्म और तुच्छ बूंद बेअंत सागर के सामने कैसे अकांक्षा कर सकती है कि अनंत सागर तो मिट जाए और यह बूंद बच जाए। यह अकांक्षा ही भ्रांति है। अतः भक्ति से खोने-मिटने की शुरुआत होती है। भक्त के दृष्टिकोण से देखा जाए तो पूर्ण सद्गुरु के चरणों में पूरे समर्पण के बाद सद्गुरु की अपार कृपा द्वारा अपने आपको खो देने की कला को सीख लेने का नाम मुक्ति है। जे तूं मन दी हुज्जत छड के साधु शरनीं आवेंगा ेकहे अवतार इक छिन दे अंदर जीवन मुक्ति पावेंगा फिर इस सूरत में न कोई मौत का डर, न कोई जीवन का बंधन रह जाता है। मरने की चिंता नहीं जीवन की आस वाकई ही भक्त का पूर्ण सद्गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण ही भक्त के लिए मुक्ति की कीमिया है।  अध्यात्म से आस्तिकता का केवल इतना ही मतलब नहीं होता कि हम ईश्वर को मानते हैं, बल्कि आस्तिकता का अर्थ है ही समग्र भाव से हां यानी परमात्मा से हां कहना कि हां हम पूर्ण तौर से हर लिहाज से परमात्मा की रजा से राजी हैं।  परमात्मा जो कराए सो करना ये जो न कराए सो न करना, मानो अपनी सारी बागडोर प्रभु के हाथ में दे देना, अपनी लगाम प्रभु को साैंप देना। सब कुछ इसके हाथ में सौंप देने का नाम आस्तिकता है। आस्तिकता का अर्थ नदी में तैरना नहीं , बल्कि बहना, परमात्मा के खिलाफ न लड़ना इसके हाथ में अपने हाथ मुकम्मल तौर पर दे देना और हृदय की गहराई से कहना जहां तू ले चले ले चल, हमें पूर्ण भरोसा है, हमें समग्र आस्था है।  अतः आस्तिकता और आस्था एक बहुत बड़ी क्रांति है, एक महाक्रांति है।  इससे बड़ी कोई छलांग नहीं, इससे बड़ा कोई रूपांतरण नहीं, क्योंकि यह हृदय से कह देना कि मैं अलग नहीं हूं इस अस्तित्व से बल्कि एक हूं, इस अस्तित्व से , इससे भिन्न मेरी न कोई नियति है न इससे भिन्न कही जाने का कोई विचार है।   प्रभु तू जो करवाए सो ही करूं जैसे रखे वैसे ही रहूं ‘जो तुध भावे सोई भलीकार तू सदा सलामत निरंकार’।


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