सवालों के झुंड और तल्खियां

By: Aug 19th, 2019 12:05 am

विधानसभा के मानसून सत्र के ग्यारह दिन और 859 सवालों के जरिए सरकार की नीयत और लोकतांत्रिक भूमिका में विपक्ष के सरोकार दिखाई देंगे। एक समीक्षा यह भी होगी कि वास्तव में जनमंच जो उकेरता है, उसके बावजूद जीवन के प्रश्नों का चित्रण विधानसभा सत्र की आवाज से कैसे बनता है। सवाल ज्यादा हैं, इसलिए इनके माध्यम से विभागीय पक्ष और मंत्रियों के प्रदर्शन का लेखा-जोखा सामान्य जनता भी पता लगा सकती है। जाहिर है कुछ प्रश्न बरसाती माहौल को इंगित करते यह पूछताछ करेंगे कि सड़कों में इतने छेद तथा नदी-नालों के जलवेग को देखते हुए चैनेलाइजेशन का मर्ज क्या है। ग्रामीण हिमाचल के परिदृश्य में उगते प्रश्न खेती-बागबानी के अंदाज में पूछेंगे, तो विद्युत, जलापूर्ति व सिंचाई के साधनों की बजटीय परवरिश का मूल्यांकन भी होगा। नशे के बीचोंबीच फंसे हिमाचली समाज की चिंताओं का हिसाब विधानसभा की संजीदगी और सरकार की नुमाइश से होगा। विधानसभा अध्यक्ष ने सवालों के झुंड के बीच जो तख्तियां देखी हैं, उनमें पर्यटन, अवैध कटान, जंगली जानवरों के प्रकोप, नगर नियोजन, तबादला नीति और इन्वेस्टर मीट से जुड़े विषयों का होना, बहस के मजमूनों की छाती चौड़ी कर देता है। अगर सार्थक बहस होती है, तो सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों के साथ-साथ इच्छा शक्ति को प्रमाणित करने का अवसर मिलेगा, जबकि विपक्ष के पास तर्कों का सामर्थ्य और विकल्पों की अवधारणा रहेगी। यह तभी संभव है अगर बहस को बेजुबान करने की कोशिश किसी भी पक्ष की ओर से न हो, वरना ग्यारह दिन न तो अनावश्यक वाकआउट की अनुमति देते हैं और न ही ये विपक्षी आक्रोश की मॉकड्रिल सरीखे होने चाहिएं। जो भी हो, विधानसभा के जरिए जनता यह देखना चाहेगी कि उसके आसपास के माहौल में प्रदेश का पक्ष और विकल्प क्या है। इसमें युवा चिंताएं, पर्यावरणीय मसले, सुशासन की आशाएं और प्रगति के मानदंड समाहित हैं। बहस में राजनीति की चाशनी तो जाहिर तौर पर नहीं होगी और इसलिए अनिल शर्मा अपना मंत्री पद गंवा कर भाजपा के हाशिए से जिस तरह बाहर गिने जा रहे हैं, उसकी बानगी में विपक्ष की चुटकियां माहौल को आनंदित जरूर करेंगी। विपक्ष अपनी रगों में जोश भरना चाहेगा, क्योंकि सामने दो उपचुनाव इसके लिए खोए को पाने के अवसर बने रहेंगे।

मानसून सत्र की सबसे बड़ी बहस इन्वेस्टरमीट के बहाने धारा-118 के मुहाने तक ले आएगी, तो सत्ता के उल्लेख और विपक्ष के भेद को समझना होगा। धारा-118 को लेकर हमेशा सत्ता पक्ष पर आशंकाएं उछाली जाती रही हैं, लिहाजा इस बार कांग्रेस हिमायती बनकर कोसने का मौका खोजेगी। इसके पीछे राष्ट्रीय संदर्भों की पड़ताल है और कई प्रश्न उछल चुके हैं। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35-ए का हटना, हिमाचली अधिकारों की फिर से लोकतांत्रिक व्याख्या चाहता है। धारा-118 से आम हिमाचली की संवेदना भी जुड़ी है, इसलिए हर बार विपक्ष के पास मुद्दे की दौलत परवान चढ़ती है। इसमें दो राय नहीं कि वर्तमान हिमाचल सरकार नए निवेश की राह खोजती हुई जितनी आगे बढ़ी है, उसके परिणामों का धारा-118 की अनुमतियों से ही शृंगार होगा। प्रदेश की आर्थिक बुनियाद को तराशने की वजह समझें, तो ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की सशक्त परिपाटी बनानी होगी। यह राजनीतिक सहमति के बिना असंभव है, अतः विधानसभा सत्र में सरकार की ओर से यह कोशिश अवश्य की जाएगी। इन्वेस्टर मीटिंग के खुशहाल इरादों को जमीनी हकीकत में बदलने का प्रारूप, अपनी स्पष्टता के साथ यह आह्वान करे कि विपक्ष भी इसे साझी अमानत माने। अगर आज धारा-118 का पेंच भाजपा सरकार के मंसूबों को बंदी बना सकता है, तो कल की सरकारें भविष्य की ऐसी जरूरत कैसे पूरा करेंगी। जयराम सरकार के लिए मानसून सत्र की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा अगर धारा-118 बनने जा रही है, तो इस पर इरादों की समीक्षा हो जानी चाहिए। यह अवसर सरकार के पास है और इसीलिए आर्थिकी की नई जमीन पर ऐसे प्रश्नों को रेंगने के बजाय विपक्ष की सहमति और पारदर्शिता के करीब खड़ा किया जाए। इन्वेस्टरमीट के बहाने वर्तमान मानसून सत्र एक ओर सरकार की पैरवी करेगा, दूसरी ओर विपक्ष से भी पूछेगा कि निवेश को अगर स्पेस की जरूरत है, तो धारा-118 के नाम पर केवल इरादों को फांसी क्यों और कब तक दी जाए। इसके अलावा वन भूमि से जुड़े मसलों पर भी हिमाचल की राजनीतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि को अपने-अपने बिंदुओं को एकसूत्र में पिरोना होगा।


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