साहित्य से दूर होते युवा

By: Aug 4th, 2019 12:05 am

किस्त – 1

युवा वर्ग साहित्य से दूर होता जा रहा है। इसका पहला संभावित कारण है कि साहित्य व्यावहारिक नहीं रहा। दूसरा कारण है कि युवा करियर की स्पर्धा में हैं तथा उनका रुझान सोशल मीडिया व इंटरनेट की ओर है। इसके अलावा अध्ययन व अध्यापन में साहित्य का घटता दायरा भी इसके लिए जिम्मेवार है। युवाओं के साहित्य से दूर होने के क्या कारण हो सकते हैं, इस विषय में हमने विभिन्न लेखकों के विचार जानने की कोशिश की। पेश है इस विषय पर विचारों की पहली कड़ी…

साहित्य पढ़ने के लिए न तो समय, न ही रुचि

सोशल मीडिया में पूरी तरह व्यस्त आज का युवा साहित्य से दूर होता जा रहा है। साहित्य में उसकी रुचि कम होती जा रही है। बहुत कम ही युवा ऐसे हैं जो साहित्य में रुचि रखते हैं। दरअसल साहित्य पढ़ने के लिए उनके पास समय ही नहीं है। अगर थोड़ा-बहुत समय है भी, तो उनकी साहित्य में रुचि नहीं बन पाती है। युवा सोशल मीडिया पर इतना व्यस्त है कि उसे साहित्य पढ़ने का तो क्या, उसे पलटने तक का समय नहीं है। समाज के लिए यह चिंता का एक विषय है। साहित्य से युवा क्यों दूर होता जा रहा है, इस संबंध में हमने प्रदेशभर में युवाओं के विचार जानने की कोशिश की। युवाओं का इस संबंध में क्या कहना है, इसे हम यहां पेश कर रहे हैं।

इस संदर्भ में ऊना के इंद्रजीत का कहना है कि साहित्य पढ़ने में उनकी कोई भी रुचि नहीं है। उन्होंने कहा कि साहित्य पढ़ने के बजाय वह अन्य पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया का वह सकारात्मक प्रयोग करते हैं। अन्य लोगों को भी सोशल मीडिया का सकारात्मक प्रयोग करना चाहिए। 

इसी तरह बिलासपुर के रजनीश शर्मा बताते हैं कि आज के प्रतिस्पर्धा के युग में किसी को अपनी संस्कृति व साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है। सभी सोशल मीडिया का उपयोग तो करते हैं, लेकिन वह उपयोग जानकारी हेतु कम, मनोरंजन के लिए अधिक होता है। इसके कारण हम सभ्यता और साहित्य को कोसों दूर भूल गए हैं। उन्होंने बताया कि मुझे साहित्य में बहुत रुचि है और मैं अधिकतर समय सोशल मीडिया पर विद्वान लोगों के जीवन का अध्ययन करने में उपयोग करता हूं।

उधर कांगड़ा की पूजा का कहना है कि सोशल मीडिया द्वारा हम काफी हद तक साहित्य को समझ सकते हैं। इस पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श करके विचारों के आदान-प्रदान में सहायता मिलती है। मुझे साहित्य से बहुत लगाव है और महान पुरुषों की जीवनियों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। सोशल मीडिया आधुनिक युग का एक ऐसा साधन है, जिससे हम सब जानकारी आसानी से जुटा सकते हैं।

इसी तरह हमीरपुर के आशीष कुमार ने बताया कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालना काफी मुश्किल रहता है।

आशीष का कहना है कि सोशल मीडिया के जरिए देश-दुनिया में होने वाली घटनाआें की जानकारी तक ही वह सीमित हैं। उधर कुल्लू  की इंदु भारद्वाज का कहना है कि मैं लेखन के क्षेत्र से जुड़ी हूं, हिमाचल के बहुत से लेखकों को जानती हूं। सभी अपने-अपने क्षेत्र में बढि़या कार्य कर रहे हैं। मेरे लिए सभी लेखक बराबर हैं।

उनके लेख, कविताएं और कहानियां मुझे पढ़ने के लिए अच्छी लगती हैं। मुझे साहित्य पढ़ने में रुचि है तथा विभिन्न हिमाचली लेखकों की कविताएं, व्यंग्य , कहानियां, लेख, शोधपत्र, उपन्यास आदि समय-समय पर पढ़ती रहती हूं। सोशल मीडिया को मैं एक दीपक की तरह मानती हूं, जिसका सही या गलत उपयोग आलोक या विध्वंस के निमित्त हो सकता है। यह अभिव्यक्ति के लिए एक सशक्त माध्यम है।

इसी तरह मंडी के विक्रांत ठाकुर का कहना है कि समय में आ रहे बदलाव को हर इनसान को अपना कर ही आगे बढ़ाना चाहिए। चाहे बात तकनीकी परिवर्तन की हो या फिर सोशल मीडिया के साथ जुड़ने की हो। जो इनसान सोशल मीडिया में नहीं है, वह दुनिया के संपर्क से बाहर है। साहित्य के बारे में स्कूल में ही पढ़ा है। लेखक के बारे में वह अनजान हैं।

उधर सोलन के सिद्धांत ने कहा कि सोशल मीडिया के द्वारा साहित्य को समझ सकते हैं। इस पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श करके विचारों के आदान-प्रदान में सहायता मिलती है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया आधुनिक युग का एक ऐसा साधन है, जिससे हम सब जानकारी आसानी से जुटा सकते हैं।

इसी तरह शिमला के कौशल मुंगटा ने बताया कि वह हिमाचल के अनेक लेखकों-साहित्यकारों को जानते हैं। वह उनके लेखों को पढ़ते हैं। उनका हमेशा यह उद्देश्य रहता है कि वह प्रसिद्ध लेखकों-साहित्यकारों के विचारों को सुनें। न केवल सुनें, अपितु उनके अनुभवों से कुछ सीखें भी। उन्होंने बताया कि वह हिमाचल के कई साहित्यकारों को जानते हैं।

उधर चंबा के हिमांक का कहना है कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालना काफी मुश्किल रहता है। हिमांक का कहना है कि सोशल मीडिया के जरिए देश-दुनिया में होने वाली घटनाओं की जानकारी तक ही सीमित हूं।

इसी तरह सिरमौर की खुशबू शर्मा ने कहा कि उनकी साहित्य पढ़ने में रुचि नहीं है। एक गु्रप में पंकज तन्हा और अजय चौहान की कविताएं जरूर पढ़ी हैं। जहां तक सोशल मीडिया का सवाल है तो यह टेलेंटिड लोगों के लिए एक बेहतर प्लेटफार्म है। वहीं साहित्य से ज्यादा वह सोशल मीडिया को तरजीह देती हैं।

भूखे भजन न होए गोपाला

डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’

संभवतः युवाओं के लिए वर्तमान समय सबसे अधिक त्रस्त समय है क्योंकि पढ़ाई-लिखाई में भी उन्हें कष्टमय स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है और फिर अध्ययन पूरा हो जाने पर भी उन्हें निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। बेरोजगारी मुंह बाए खड़ी दिखाई देती है तो बड़े-बड़ों के हौसले पस्त हो जाते हैं। हर जगह आरक्षण की मार से डरे-सहमे युवक-युवतियां भविष्य के सपने बुनने में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में साहित्य के प्रति उनका आकर्षण कम होना स्वाभाविक है। आज की युवा पीढ़ी के पास समय की नितांत कमी है, क्योंकि उन्हें आजीविकोपार्जन के लिए अधिक संघर्ष करना पड़ता है। वे पारंपरिक साहित्य उतना ही पढ़ते हैं, जितना आवश्यक है। आज आप किसी भी युवा के शयन कक्ष अथवा अध्ययन कक्ष में चले जाएं, वहां आपको प्रतियोगिता से संबंधित साहित्य ही मिलेगा। यह हिंदी में भी हो सकता है या अंग्रेजी में भी।

यदि आप कहें कि वे शौक के तौर पर प्रेम चंद, यशपाल या अज्ञेय के साहित्य का अध्ययन कर लें तो यह संभव है ही नहीं। बाजार में जाइए तो आप को कम्पीटीशन की किताबें ही धड़ाधड़ बिकती दिखाई देंगी। साहित्य तो केवल मनोरंजन के लिए कभी पढ़ा जाता था जब समय ही समय होता था। आज तो इंटरनेट है, फेसबुक है और उससे जुड़ी अन्य अनेक सुविधाएं हैं, जो फटाफट जीवन की परिचायक हैं। तार आने-जाने बंद हो गए हैं, चिट्ठियां चंद दिनों की मेहमान हैं। अखबार भी अब नेट पर ही पढ़ लिए जाते हैं। युवा साहित्य से दूर नहीं हो रहे, बल्कि साहित्य ही अपना स्वरूप बदल रहा है निरंतर। एक-एक मिनट में फोटो दुनिया भर में फ्लैश हो जाते हैं। और युवा हैं कि एक क्षण में जो सामग्री चाहिए, उसे नेट से निकाल लेते हैं। अब तो शब्दकोष की भी जरूरत नहीं पड़ती। नेट से तुरंत देख लो। युवाओं के लिए ही नहीं, सभी साहित्य प्रेमियों के लिए यह समय विकट निराशा का समय है। पुस्तकें अब सांचों-खांचों में बंद पड़ी रहेंगी। जब प्रकाशक को आर्डर आएगा, वह उतनी ही पुस्तकें छाप कर आर्डर पूरा कर देगा। साहित्य और पाठक के बीच आत्मीयता की बात पुराने जमाने की हो गई। वैसे तो पुस्तक प्रकाशन पहले से ही व्यावसायिक धंधा था, परंतु आज तो शालीनता की महीन सी रेखा भी विलुप्त हो गई है। पैसे देकर जो मर्जी छपवा लो। जो भी हो, दोष युवाओं का नहीं है, दोष समय का है। बेरोजगारी का है, कम्पीटीटिव दुश्वारियों का है। आज तो लेखक भी प्रायः अपनी ही पुस्तक पढ़ते या देखते भर हैं। इतना समय कहां कि वह दूसरों की पुस्तकें भी पढ़ लें। तनावपूर्ण परिस्थितियों में सफल हो पाने की जिजीविषा वस्तुतः युवाओं के संघर्ष की कहानी है। आप साहित्य से उनके दूर होने की बात करते हैं, वे तो हताश किसानों की भांति आत्महत्याओं में भी निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। कम्पीटीटिव तनाव का हथौड़ा जब उनके सिर पर पड़ता है, तो वे फंदे पर झूल जाना ही समस्या का निदान देखते हैं। साहित्य तो मात्र क्षणिक विरेचन का काम करता है। बंधुवर, भूखे भजन न होए गोपाला।

साहित्य की व्यावहारिकता पर सवाल ठीक नहीं

अजय पाराशर

साहित्य की व्यावहारिकता पर सवाल उठाने वालों से मेरा सीधा प्रश्न है कि क्या जीवन के अनुभव कभी अव्यावहारिक हो सकते हैं? वास्तव में साहित्य है क्या? अगर ़िफक्शन भी है तो भी होंगे तो जीवन के अनुभव ही। यह तो रचनाकार पर निर्भर करता है कि उसकी कोई कृति समय विशेष में किन बिंदुओं को आधार बनाकर यथार्थ की कसौटी पर रची गई है। ऐसे में साहित्य से दूर होते युवाओं के प्रश्न को लेकर साहित्य की व्यावहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना सही प्रतीत नहीं होता। हां, साहित्य की गुणवत्ता पर ज़रूर सवाल उठाए जा सकते हैं। वर्तमान में साहित्य को जिस प्रकार बाज़ार की प्रत्यंचा पर कसा जा रहा है, उससे साहित्य की व्यावहारिकता पर काई जमना स्वाभाविक है। ़खैर! ़िफलवक़्त चर्चा का मुद्दा है ‘साहित्य से दूर होते युवा।’ युवाओं की साहित्य से बढ़ती दूरी के लिए कई वजहें हो सकती हैं। लेकिन मैं, करियर की दौड़ को साहित्य से दूरी बनाने के लिए ज़िम्मेदार नहीं मानता। कारण स्पष्ट है कि करियर की दौड़ पहले भी थी। अगर पहले के मु़काबले अब प्रतिस्पर्धा अधिक है तो मौ़के भी ज़्यादा हैं। अगर समय का प्रबंधन सही हो तो युवा अपनी पढ़ाई के बीच साहित्य या जीवन के अनुभवों से रू-ब-रू होने के लिए आराम से व़क्त निकाल सकता है। लेकिन हमारी ज़िंदगी में आई सूचना क्रांति को मानवीय जीवन की अब तक की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक माना जा सकता है। सूचना की बाढ़ में मानव ने अपने किनारों की परवाह नहीं की और अब बहते हुए इतनी दूर आ गया है कि आने वाली पीढि़यों को खड़े होने तक की जगह नहीं मिल पा रही है।  पहले टीवी ने मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों को लीला। मनोरंजन के इस नए उपकरण ने सदियों के फैवीकोल जैसे मजबूत सामाजिक संबंधों को हिलाने का काम किया। इसके बाद कंप्यूटर, नेट, पेजर, वीडियो गेम, मोबाइल और अब उससे आगे के उपकरण मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं, संबंधों, मूल्यों और सदाचार को हरते जा रहे हैं। आदमी अपने आप में इतना सिमटता जा रहा है कि उसे अब अपनी भी ़खबर नहीं रही। अपने वैयक्तिक विकास को नज़रअंदाज़ कर, आदमी इस ़कदर आत्ममुग्धता का शिकार हो गया है कि वह मात्र टैक्ननोलॉजी का ़गुलाम बनकर रह गया है। समाज के सभी वर्ग और आयु के लोग इसका शिकार बनते जा रहे हैं। यहां तक कि शिक्षा के क्षेत्र में कोर्स की किताबें भी धूल फांक रही हैं और उनकी जगह क्यूबी ने लेकर सामान्य ज्ञान को भी गहरी खाई में धकेल दिया है। जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हमारे सामाजिक व्यवहार में देखने को मिल रहा है। रही-सही ़कसर आर्टिफिशियल इंटेलीजैंस ने पूरी कर दी है। ऐसे में किसी से साहित्य के प्रति अनुराग की अपेक्षा करना निरर्थक लगता है।

युवाओं में रोपित नहीं किए जा रहे साहित्य के संस्कार

मुरारी शर्मा

साहित्य से युवा वर्ग के दूर होने के कई कारण हैं। लेकिन बुनियादी सवाल तो यह है कि साहित्य को समाज ने ही हाशिए पर धकेल दिया है। युवा भी तो इसी समाज का हिस्सा है…उन्हें विरासत में जो कुछ भी मिलेगा, वही तो ग्रहण करेंगे। युवा वर्ग के साहित्य से दूर होने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है क्योंकि हम युवा पीढ़ी में साहित्य के संस्कार रोपने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। अब यह कहना कि साहित्य व्यावहारिक नहीं रहा, तर्कसंगत नहीं है। सवाल तो यह है कि साहित्य की ओर समाज का कितना झुकाव है? साहित्य समाज की प्राथमिकता में शामिल नहीं है। बच्चों को बचपन में सिलेबस की किताबों के अलावा अन्य किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने की आदत नहीं डाली जाती, इसके बदले उन्हें मोबाइल गेम्स और टीवी प्रोग्राम की लत डाली जा रही है। इसके कई खतरनाक परिणाम सामने आ रहे हैं। आज के दौर में बचपन से दादी-नानी के किस्से और परियों की कहानियां दूर होती जा रही हैं। बच्चों का मां बोली से नाता टूटता जा रहा है। अब तो रोबोट की तरह बच्चों की प्रोग्रामिंग हो रही है, जिसमें साहित्य की चिप लगाना भूल रहे हैं। मां-बाप और स्कूल के टीचर के पास जितना सीमित ज्ञान का भंडार है, वो सब  बच्चों में उंड़ेलने का प्रयास किया जाता है। मगर  इस सबके बीच बच्चे को स्वाभाविक विकास का समय ही नहीं मिल पाता है। आज का बच्चा बारिश में भीगने का आनंद नहीं ले पाता…भीगने से उसे जुकाम हो जाता है। आज का बचपन तितलियों के पीछे नहीं भागता…फूलों के रंग और खुशबू को नहीं पहचानता…कागज की कश्ती और मिट्टी के खिलौने नहीं बनाता। अपने आसपास के जीवन से युवा कटता जा रहा है। करियर की स्पर्धा के चलते भले ही युवा वर्ग सूचनात्मक  साहित्य पढ़ने लगा है, मगर यहां भी युवा शार्टकट ढूंढता है, जबकि शार्टकट रास्ते फिसलन भरे होते हैं जिसमें अगर संभले नहीं तो गिर कर ढांक में गिरने की संभावना बनी रहती है। साहित्य हो या संस्कृति, अपने समय और समाज को रेखांकित करती है। इसे जानने और समझने के लिए गहरे तक डुबकी लगानी पड़ती है। तब कहीं ज्ञान रूपी मोती हाथ में आता है। पहले जमाने में दादी-नानी की कहानियां और परियों के किस्से उत्सुकता और जिज्ञासा बढ़ाते और शांत करते थे। लोककथाओं, लोकगीतों, पहेलियों और मुहावरों से युवाओं के ज्ञान का भंडार समृद्ध होता था। मगर आज आधे-अधूरे ज्ञान और जुगाड़  का सहारा लिया जा रहा है। समाज की हालत यह है कि तकनीकी बदलाव के चलते अपनी जड़ों से कटता जा रहा है…आदमी संवेदन शून्य होकर मशीन बनता जा रहा है। दागिस्तान के मशहूर कवि रसूल हमजातोव कहते हैं ः भाषा ज्ञान के बिना कविता रचने का निर्णय करने वाला व्यक्ति उस पागल के समान है जो तूफानी नदी में कूद पड़ता है। जहां तक लोक साहित्य की बात है, अपनी मां बोली में बातचीत हो या फिर लड़ाई-झगड़े, तर्क-वितर्क, इसमें लोग अपनी जुबान का कमाल दिखाते हैं। तर्कों के बहाने दूर की कौड़ी ढूंढ लाते हैं। कल्पना की ऊंची-ऊंची उड़ानें भरते हैं। तब लगता है कि हमारी बोली-भाषा कितनी समृद्ध और अभिव्यक्तिपूर्ण है। इससे नई पीढ़ी को जानबूझ कर दूर रखने की कोशिश की जा रही है। सोशल मीडिया और इंटरनेट के इस दौर में युवा वर्ग का किताबों के बजाय फेसबुक, इंस्टाग्राम और इंटरनेट के चलते गूगल गुरु की ओर ज्यादा रुझान है। आज का युवा मोबाइल के मायाजाल में इस कदर फंसा हुआ है कि उसे दीन-दुनिया की कोई खबर नहीं है।

साहित्य की आधुनिक प्रासंगिकता

किसी भी राष्ट्र को जानने, समझने व परखने का सबसे पुख्ता सबूत उसी राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत और भूमिका होती है। यद्यपि साहित्य और संस्कृति, संस्कृति और समाज, सभ्यता और परंपरा आदि बिंदुओं को आधार मानकर हम किसी भी राष्ट्र की मौलिकता को पहचान सकते हैं, सामाजिक ढांचे को परख सकते हैं और सांप्रदायिकता की जगह रागात्मकता को स्थापित कर सकते हैं। साहित्य का प्रारूप भी अपनी भाषा में ही निहित है, जो कि अपनी संस्कृति, परंपरा और अक्षुण्णता  के कारण ही जीवित है। ऋग्वेद, पुराण, रामायण और महाभारत ऐसे ही उदाहरण हैं जो साहित्य की विकसित संस्कृति और परंपरा रही है। कोई भी भाषा और साहित्य अपनी उपयोगिता, सामाजिकता और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ही सफल होता है क्योंकि वह अपने समाज को पूरी शिद्दत के साथ लिखता है और समझता है। परंपरा कोई बंधन नहीं है, लेकिन परंपरा और संस्कृति को  इस उद्देश्य से नकारना कि वह बंधन है, गलत है। वर्तमान समय के साथ चलना ही आधुनिकता नहीं है, बल्कि अपनी संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और परंपरा आदि को विश्व स्तर पर पहुंचाना और उसे अपने साथ विकसित करना, नए आयाम और ऊंचाई देना, आधुनिकता का ही मूलभूत लक्षण है। हिंदी भाषा और साहित्य में भी यही संस्कार, सहयोगिता और सांस्कृतिक परिवेश देखने को मिलता है जो कि वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृत व अपभ्रंश से होती हुई आज इतने बड़े स्तर पर हिंदी प्रदेश की भाषा बन गई है। किसी भी साहित्य का वर्तमान स्वरूप अगर बहुत विकसित और बहुत बड़ा हो तो उसके पीछे उसी साहित्य की संस्कृति और संस्कार छिपे होते हैं, जो उसे नवीन उपलब्धियां और नवीन मूल्यांकन करने की ओर अग्रसर करता है। साहित्य राष्ट्र को विकसित करने वाला एक कानून होता है जो संविधान के नियमों का बड़ी सख्ती से पालन करता है। साहित्य में राष्ट्र की समस्त हितों की पूर्ति होती है। वह अपनी सांस्कृतिक पीठिका का जीवित दस्तावेज होता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या आज का साहित्य वर्तमान समय की समस्याओं के अनुकूल है। इस उपयोगितावादी समाज में क्या साहित्य अपनी संस्कृति को खोज सकता है या वह खुद में ही खोखला होता जा रहा है? अपनी सभ्यता के चिह्न क्या उसे उपभोक्तावादी युग में प्राप्त हो सकते हैं? क्या आज का बाजारवादी आदमी साहित्य को नए सिरे से रचने, सृजन करने और उसका मूल्यांकन करने में सक्षम है? अगर साहित्य अपनी विराट संस्कृति और परंपरा का जीवंत प्रश्न है तो क्या आज के भूमंडलीकृत सामाजिक दौर में उसकी प्रासंगिकता का कोई ठोस और ठीक उत्तर है? कुछ सांस्कृतिक पहलू ऐसे जरूर होते हैं जो नगण्य होते हैं, लेकिन हमारी हजारों वर्षों की परंपरा क्या गलत है?  ऐसा नहीं है। परंपराओं को जीवित रखना भी बहुत बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है। आज राजनीति, भूमंडलीकरण, बाजारीकरण, उपयोगितावादी संस्कृति एवं संस्कार और पश्चिमी फैशनपरस्ती  का अंधाधुंध उपयोग और प्रयोग हो रहा है, जिससे हमारे साहित्य में गिरावट आई है। साहित्य को मूल्यांकित करने का ढंग घटता जा रहा है। घटित साहित्यिक मूल्य को जीवित रखने के लिए हमें साहित्य के स्तर को ही नहीं, बल्कि अपनी लेखन शैली को भी, अपनी सृजन क्षमता को भी और अपनी सोच को भी ऊंचाई पर ले जाना होगा। तभी साहित्य में आधुनिकता और मानवता दोनों ही दस्तक दे पाएंगी और सांस्कृतिक एवं सामाजिकता के प्रश्नों को प्रासंगिक दर्जा मिलेगा।

-मुकेश कुमार, समरहिल, शिमला

‘साहित्य अमृत’ का वीरता को सलाम

साहित्य एवं संस्कृति को समर्पित मासिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ का अगस्त 2019 विशेषांक शौर्य विशेषांक के रूप में सामने आया है। त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी इसके संपादक, श्याम सुंदर प्रबंध संपादक तथा डा. हेमंत कुकरेती इसके संयुक्त संपादक हैं। 234 पृष्ठों के इस विशेषांक को स्वतंत्रता दिवस की दृष्टि से तैयार किया गया लगता है। इसमें एक से अनेक वीर सैनिकों की शौर्य गाथाओं को स्थान दिया गया है। संपादकीय के रूप में ‘शौर्य ः एक बहुरंगी अवधारणा’ नामक आलेख प्रेरणादायी है। विष्णु प्रभाकर का ‘बहादुर सेनापति’ के रूप में आलेख भी प्रतिस्मृति के तहत दिया गया है। हमारे परमवीर चक्र विजेता नामक आलेख में कई बहादुर सैनिकों की शौर्य गाथाएं दी गई हैं। इसमें मेजर सोमनाथ शर्मा, कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह, लांस नायक करम सिंह, नायक जदुनाथ सिंह, सेकेंड लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे, सूबेदार जोगिंदर सिंह, मेजर धन सिंह थापा, मेजर शैतान सिंह, कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद, लेफ्टिनेंट कर्नल एबी तारापोर, लांस नायक अल्बर्ट एक्का, मेजर होशियार सिंह, सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल, फ्लाइंग आफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों, कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया, मेजर रामास्वामी परमेश्वरन, नायब सूबेदार बाना सिंह, कैप्टन विक्रम बत्तरा, राइफलमैन संजय कुमार, लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे व ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव की शौर्य गाथाएं पाठकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। इसके अलावा राजेंद्र पटोरिया ने कई शौर्यपूर्ण रोमांचक प्रसंग पेश किए हैं। किसी मुसलमान को भी फांसी चढ़ने दो, रक्त मिश्रित पानी पी गया, चार कटे सिरों का नजराना, फांसी टालकर आपने अच्छा नहीं किया, रक्त से लिखने की होड़, बलिदान सार्थक सिद्ध हुआ, कौन कहता है हिंदुस्तान आजाद नहीं होगा, पक्षी पिंजरा भी ले उड़ेगा, क्रूर जेलर-बलिदानी सिपाही, पति की पीड़ा उसकी पीड़ा थी, गोली कहां लगी-पीठ पर सीने में, पुलिस का घेरा तोड़कर कूद पड़ा, फांसी का हार मेरे गले डाला जाए, ऐसा वीर था तांत्या टोपे, एक मुट्ठी देश की माटी साथ रहने दो, छापामार युद्ध के वृद्ध सेनानी, शरीर में संगीनें भोंककर लटकाया-फिर जलाया, फांसी के दिन वजन बढ़ गया और फांसी का फंदा मेरे हाथ में दो ऐसे ही रोचक प्रसंग हैं। इनके माध्यम से वीर सैनिकों की दिलेरी को पाठकों के सम्मुख रखा गया है। इसके अलावा कविताओं के माध्यम से भी बहादुर वीर सैनिकों की गाथाएं गुंथित की गई हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की झांसी की रानी, पं. नरेंद्र शर्मा की वीर-वंदन और रुद्ररूप भारत, बलवीर सिंह ‘रंग’ की पर्वत और मैदानों में, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की वीर तुम बढ़े चलो, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की विप्लव गायन, सियारामशरण गुप्त की जग में अब भी गूंज रहे हैं तथा हम सैनिक हैं, श्यामनारायण पांडेय की राणा प्रताप की तलवार, रामनरेश त्रिपाठी की अतुलनीय जिनके प्रताप का, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कलम, आज उनकी जय बोल, गयाप्रसाद शुक्ल की तलवार, जयशंकर प्रसाद की हिमाद्रि तंग शृंग से तथा रामप्रसाद बिस्मिल की सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, ये कविताएं हैं जो वीरता के विविध प्रसंग सुनाती हैं। पत्रिका में हमारे अशोक चक्र विजेताओं का ब्योरा भी पेश किया गया है। इसमें उत्तर के साथ-साथ दक्षिण व अन्य क्षेत्रों के वीरों को श्रद्धांजलि दी गई है। पत्रिका में पाठक के नजरिए से और भी कई रुचिकर सामग्री दी गई है। हर आलेख में भाषा को सरल रखा गया है तथा पूरी की पूरी पत्रिका वीर रस से सराबोर है। पत्रिका की कीमत मात्र सौ रुपए रखी गई है जो इसमें दी गई सामग्री को देखते हुए ज्यादा नहीं है। आशा है पाठकों को यह अंक पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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