हादसा या गैर इरादतन हत्या

By: Aug 21st, 2019 12:05 am

जीयानंद शर्मा

लेखक, शिमला से हैं

ऐसे हादसों को हम हादसा कहे ही क्यों? क्या इसे गैर इरादतन हत्याएं नहीं कहा जाना चाहिए? क्योंकि इन हादसों के पीछे हमारी लचर कानून व्यवस्था, अफसरों की लापरवाही और इन सब से बढ़कर सरकार की गलत नीतियां भी हैं…

शिमला में स्कूली बच्चों को ले जा रही बस का दुर्घटनाग्रस्त होना न्यूज़ चैनलों के लिए भले ही  एक ब्रेकिंग न्यूज़ हो जिसे चला कर उनका पूरा दिन निकल सकता है। घटना स्थल से लेकर अस्पताल तक की कवरेज के साथ यह भी सुनिश्चित करना कि मंत्री जी की हादसे पर अफसोस जताते हुए बाइट मिल जाए और घायलों का हाल-चाल पूछते हुए तस्वीर ले ली जाए। मीडिया पर आकर मंत्री जी भी हादसे के प्रति अपने सरोकार जताने के सामाजिक दायित्व से मुक्त हो कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाएं। लेकिन जिनके घर की रोशनी बुझ गई उनके लिए तो यह खबर सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ (दिल, दिमाग, शरीर को तोड़कर रख देने वाली न्यूज़) है जिन्होंने अपनी नन्हीं परियों को सुबह सलीके से तैयार किया। हफ्ते के पहले दिन रूमाल से लेकर वर्दी का हर हिस्सा साफ-सुथरा, धुला हुआ, दोपहर के लिए मन पसंद भोजन, शॉर्ट ब्रेक के लिए फल, तरतीब से बस्ते में रखी किताबें और परीक्षा देने वाली बेटियों को घर से दही-चीनी खिलाकर विदा किया होगा। अभी वो माएं बच्चों को विदा करने के बाद पीठ भी न मोड़ पाई होंगी, कि यह दिल दहला देने वाली खबर उनके कानों तक पहुंच गई होगी कि तुम्हारी परी अब कभी नहीं लौटेगी। खुद को उस बेटी की मां की जगह रखकर देखिए। इस बात से इनकार नहीं कि मीडिया का दायित्व है कि वह खबर करें। जन प्रतिनिधियों का फर्ज है कि वे पीडि़त और प्रभावित जनता का दुख-दर्द  बांटें, यथार्थ यह भी है कि सड़क पर वाहन चलेंगे तो हादसे भी होंगे, लेकिन सवाल यह है कि जिन्हें रोका जा सकता है ऐसे हादसे क्यों होते हैं। किसी के भी मन में इस बात को लेकर कोई सवाल नहीं है कि आखिर ये हादसे होते ही क्यों हैं।

कुछेक के पास इसके रटे रटाए जवाब भी हैं। उनका कहना है कि पहाड़ों में ऐसे हादसे होना आम समस्या है। ऐसी घटनाओं को ज्यादा तूल देने की जरूरत नहीं है। मगर उनसे कोई यह पूछे कि दुनिया में केवल यही अकेला पहाड़ी इलाका नहीं है लेकिन दूसरे देशों में ऐसी दुर्घटनाओं की संख्या क्यों कम है। कभी अगर गलती से हादसा हो भी जाए तो उस पर वहां की जागरूक जनता प्रशासन और सरकार के सामने बड़ा सवाल खड़ा कर देती है। ऐसे हादसों को हम हादसा कहे ही क्यों? क्या इसे गैर इरादतन हत्याएं नहीं कहा जाना चाहिए? क्योंकि इन हादसों के पीछे हमारी लचर कानून व्यवस्था, अफसरों की लापरवाही और इन सब से बढ़कर सरकार की गलत नीतियां भी हैं। निजी बस ऑपरेटरों को दी जा रही खुली छूट ने ऐसे हादसों की संख्या में इजाफा किया है। निजी बस मालिक अपना मुनाफा बटोरने के लिए कम वेतन पर अप्रशिक्षित चालकों की अल्पकालिक भर्ती करते हैं जिनकी लापरवाही के कारण लोगों की जान जोखिम में आ जाती है। बस चालकों के प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण संस्थान नहीं हैं। ड्राइविंग लाइसेंस देने की प्रक्रिया दोषपूर्ण है। कोई भी आसानी से लाइसेंस हासिल कर सकता है। चालक की अनुपस्थिति में बस मालिक या उनका कोई संबंधी या जान-पहचान वाला बस चला लेता है जिस पर कोई नियंत्रण नहीं है।

लोग इसलिए चुप रहते हैं कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। सरकारी बसें लोकल रूट पर चलती ही नहीं। कभी जनता के दबाव में सरकारी बस सेवा शुरू भी कर दी जाए तो उसे ऐसा समय दिया जाता है, कि उस वक्त तक सवारियां ही न रहें। जान बूझकर उसे फेल करने की कोशिश की जाती है। बसों के चलने का समय निर्धारित नहीं है। एक साथ दो-तीन बसें चलती हैं और सवारियां उठाने की होड़ में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा रहती है। ऊपर से बसों में जोर-जोर से गानों का शोर। कई हादसों का कारण तो बस में गाना बदलना और मोबाइल फोन सुनना बन जाता है। आखिर जनता को इन सब सवालों के जवाब कौन देगा या क्या जनता कभी हिम्मत जुटा पाएगी कि वह इन सवालों के जवाब मांग सके कि कौन देखेगा कि रास्ता नियमों के तहत बन रहा है। गैरकानूनी ढंग से जेसीबी से खुदाई करके पहाड़ों का सीना छलनी नहीं किया जा रहा। रास्तों की मरम्मत हो रही है। उन रास्तों पर परिवहन की बसें नियमित चल रही हैं। जो बसें चल रही हैं वे चलने की हालत में हैं, नीलामी में खरीदी गई खटारा और अपनी उम्र पूरी कर चुकी बसें नहीं हैं। बस को चलाने वाला चालक प्रशिक्षित और अनुभवी है। उसके लिए न्यूनतम वेतन तय है, क्योंकि वह उस बस पर कुछ समय काटने के लिए नहीं आया है।

बस में क्षमता से ज्यादा सवारियां नहीं बैठी हैं। कौन दबंग बस आपरेटरों और भ्रष्ट अफसरों के गठजोड़ पर लगाम कसेगा? ये कुछ ऐसे अनुत्तरित सवाल हैं जिनका जवाब मिले बिना सड़क हादसों को रोकना नामुमकिन है। हर हादसे के बाद केवल जांच कमेटी बिठा देने से दायित्व पूरा नहीं हो जाता और न ही कुछ दिन की सख्ती करने से समस्या का समाधान निकल सकता है। बंजार बस हादसे के बाद आई रिपोर्ट कहती है कि हादसा क्रैश बैरियर या पैराफिट न होने, ओवर लोडिंग और तकनीकी खराबी से हुआ। सूचना यह भी मिली कि हादसे से पहले रास्ते में दो बार बस खराब हुई। हादसों को रोकना है तो कड़वा घूंट पी कर कुछ कड़े कदम भी उठाने पड़ेंगे। पब्लिक ट्रांसपोर्ट को मजबूत करना जरूरी है। बस मालिकों और बस का परमिट देने वाले अधिकारियों की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। बेलगाम निजी बस सेवाओं पर शिकंजा कसना जरूरी है। कानूनों का सख्ती से पालन हो। ग्रामीण स्तर पर निगरानी कमेटियां बनें, जिन्हें सक्षम अधिकारी को बसों में हो रही लापरवाही की सूचना देने का अधिकार मिले और उनकी शिकायत पर दोषी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो। निजी बस मालिक अपना मुनाफा बटोरने के लिए कम वेतन पर अप्रशिक्षित चालकों की अल्पकालिक भर्ती करते हैं जिसकी वजह से चालक लापरवाही बरतते हैं। इसके लिए सरकार की ओर से चालकों-परिचालकों का न्यूनतम वेतन तय किया जाना चाहिए और भर्ती नियमों को कड़ा कर देना चाहिए। 


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