हिमाचल की जोखिम संवेदनशीलता

By: Aug 26th, 2019 12:06 am

लाभ सिंह

लेखक, कुल्लू से हैं

किसी क्षेत्र की जोखिम संवेदनशीलता का अर्थ है उस क्षेत्र का आने वाले संकट के प्रति असुरक्षित होना। हिमाचल में भी ऐसे कई संकट जैसे भूस्खलन, बादल फटना, हिमस्खलन, सूखा और बाढ़ आदि आने की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं और हिमाचल भूकंप जोन चार और पांच में स्थित है। ऐसे में यदि इनसे बचने के लिए समय रहते सार्थक प्रयास नहीं किए जाते, तो ठीक नहीं…

हाल ही में बरसात के कारण हुई एक बड़ी तबाही ने हिमाचल की जोखिम संवेदनशीलता को चर्चा में ला दिया है। ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि कौन-कौन से प्रमुख जोखिम हैं जो हिमालय की गोद में बसे इस शांत प्रदेश के लिए बड़ी आपदा का रूप ले सकते हैं। लेकिन इससे पहले यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि जोखिम संवेदनशीलता आखिर है क्या और यह एक बड़ी आपदा में कैसे परिवर्तित हो सकती है। किसी क्षेत्र की जोखिम संवेदनशीलता का अर्थ है उस क्षेत्र का आने वाले संकट के प्रति असुरक्षित होना। हिमाचल में भी ऐसे कई संकट जैसे भू-स्खलन, बादल फटना, हिमस्खलन, सूखा और बाढ़ आदि आने की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं और हिमाचल भूकंप जोन चार और पांच में स्थित है।

ऐसे में यदि इनसे बचने के लिए समय रहते सार्थक प्रयास नहीं किए जाते हैं तो ये एक बड़ी आपदा में बदल सकते हैं। एक तरफ  जहां कांगड़ा में भूकंप आने की अधिक संभावना रहती है, वहीं ऊना हर वर्ष बाढ़ और सूखे का शिकार होता है। किन्नौर में हर वर्ष भू-स्खलन की घटनाएं होती हैं, पांगी और लाहुल-स्पीति के ऊपरी क्षेत्रों में हिमस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं, वहीं दूसरी तरफ  हिमाचल के अलग-अलग हिस्सों में बादल फटने का जोखिम भी हमेशा बना रहता है। हिमाचल के अलग-अलग हिस्सों में सड़क हादसे होना भी एक बड़ी समस्या है। आगजनी की घटनाएं भी हिमाचल में कई गांवों व जंगलों की तबाही का कारण बनती हैं। हालांकि समुद्र से दूर स्थित होने के कारण यहां सुनामी और चक्रवात जैसी घटनाएं नहीं होती और कम औद्योगिकीकरण के कारण यहां पर औद्योगिक आपदाओं का खतरा भी कम है।

लेकिन अंतरराष्ट्रीय सीमा के साथ सटा होने के कारण यहां पर आतंकवादी घटनाएं होने का भी डर बना रहता है। हालांकि कम जनसंख्या घनत्व के कारण यहां पर महामारी के फैलने का भी अधिक डर नहीं है। लेकिन जो संकट हमारे सामने है, उससे कैसे निपटा जाए, यह एक बड़ा सवाल है। सवाल यह भी उठता है कि क्या इन जोखिमों को बड़ी आपदा बनने से रोका जा सकता है? क्या सरकार द्वारा कुछ विशेष नीतियां बना देने मात्र से इसका समाधान हो पाएगा? ऐसे बहुत से सवाल जो हिमाचल की जोखिम संवेदनशीलता को लेकर हमारे सामने आते हैं उन पर विचार करना बहुत आवश्यक है। एक तरफ  जहां भूकंप, बाढ़, भू-स्खलन, बादल फटना और हिमस्खलन जैसे प्राकृतिक संकटों का सटीक पूर्वानुमान लगाना व इसे रोकना बहुत मुश्किल है। वहीं कुछ आवश्यक उपायों को अपनाकर इन्हें एक बड़ी आपदा बनने से रोका जा सकता है। जैसे भूमि उपयोग की योजना तैयार की जा सकती है। हिमस्खलन, भू-स्खलन और बाढ़ संभावित क्षेत्रों में बसावट को रोकने के साथ-साथ पुश्ता दीवारों का भी निर्माण किया जा सकता है। भूकंप संभावित क्षेत्रों में भूकंप रोधी भवन निर्माण किया सकता है। आने वाले जोखिम की संभावनाओं से बचने की पहले से योजना तैयारी करना भी इन्हें आपदा बनने से रोकने में सहायक हो सकता है। सामुदायिक जागरूकता और शिक्षा के माध्यम से भी जोखिम को कम किया जा सकता है। वनस्पति आवरण में वृद्धि करना भी जोखिम को कम करने में सहायक होगा। दूसरी तरफ  हिमाचल में मानव निर्मित संकटों में सड़क हादसे एक बड़ी समस्या है, हालांकि आग लगना और आतंकी घटनाओं का अंदेशा बने रहना भी कुछ संभावित खतरे हैं। लेकिन सड़क हादसों में होने वाली मौतों की तुलना में ये गौण हैं। एक अनुमान के अनुसार हर रोज औसतन चार लोग हिमाचल में सड़क हादसों में मारे जाते हैं। कुछ समय पहले ही कुल्लू जिला के बंजार हलके के भेउट में एक बस दुर्घटना में करीब 50 लोगों की मौत हो गई थी। इससे पहले नूरपुर में स्कूली बच्चों को ले जा रही एक बस के दुर्घटनाग्रस्त होने से 25 बच्चों की मौत हो गई थी।

तो प्रश्न यह उठता है कि इस आपदा से कैसे बचा जाए? बचने के उपाय में शामिल है, निगरानी तंत्र को मजबूत करना, सड़क सुरक्षा उपायों की अच्छे से सुध लेना व विचलित ड्राइविंग को रोकना आदि। सड़क सुरक्षा नियमों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए, तय संख्या से अधिक यात्री बिठाने पर पूर्ण रोक लगनी चाहिए, ड्राइविंग के दौरान मादक द्रव्यों का प्रयोग करने, अकुशल व अप्रशिक्षित चालक द्वारा वाहन चलाने पर भारी जुर्माना और जेल की सजा का प्रावधान होना चाहिए। तेज गति, सीट-बैल्ट और हेलमेट पहने जैसे सुरक्षा उपायों को लेकर लोगों में जागरूकता लाई जानी चाहिए। इन सभी जोखिमों से बचने के लिए जोखिम का पहले से उचित आकलन और उसके लिए आवश्यक तैयारी के साथ एक उचित संकट न्यूनीकरण योजना व सामुदायिक भागीदारी के साथ उचित आपदा जोखिम प्रबंधन की तकनीकों को अपनाकर किसी भी जोखिम को एक बड़ी आपदा बनने से रोका जा सकता है।

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखकों से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे।                                                                -संपादक


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