आत्म पुराण

By: Sep 7th, 2019 12:15 am

तात्पर्य यह है कि मठ आदि समस्त पदार्थों  का ममत्व त्याग करके सदैव ब्रह्म में ही स्थित रहे। ब्रह्मवेता पुरुष को चाहिए कि समस्त वस्तुओं में उत्पन्न पुत्र की तरह स्नेह मानना उचित है यदि वह उनका स्पर्श करता हो, तो वह संन्यासी नहीं कहा जा सकता तथा उसे इन सबसे त्याग रखना चाहिए। जो संन्यासी धन का संग्रह करता है, वह तो आत्महत्या करता है। परमहंस संन्यासी धागे के यज्ञोपवीत के स्थान पर आत्म ज्ञान रूप यज्ञोपवीत को धारण करता है और शिखा के स्थान पर आत्मज्ञान रूप शिक्षा को स्थापित करता है। ब्रह्म उपनिषद तथा आरूणिक उपनिषद में आत्मज्ञान रूप यज्ञोपवीत का ही विधान किया है। कहा गया है जिस प्रकार यज्ञोपवीत में तीन-तीन सूत के धागे के बने तीन धागे और इस प्रकार सब मिलाकर नौ सूत हो जाते हैं उसी प्रकार योगी के हृदय देश में जो नौ तत्त्व रहते हैं, वे उन धागों की तरह समझे जाने चाहिए। वे नौ तत्त्व हैं, ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट, विश्व, तैजस, प्राज्ञ, प्राण, अपान, व्यान। हे शिष्य! जैसे नौ सूत से बना जो उपवीत है वह यज्ञादिक कर्मों का साधन रूप है, उसी संन्यासी का नौ तत्त्वों द्वारा यज्ञोपवीतय ज्ञान रूप यज्ञ का अंग है। यज्ञोपवीत  परम पवित्र का मंत्र भी मुख्य रूप से चैतन्य रूप यज्ञोपवीत का ही वर्णन करता है। क्योंकि परम पवित्र रूपता चैतन्य के सिवाय किसी दूसरी अनात्म वस्तु में कैसे संभव हो सकती है। इसलिए विद्वान संन्यासी बाहर के यज्ञोपवीत को त्याग कर भीतर का यज्ञोपवीत धारण करते हैं। हे शिष्य! जैसे अग्नि को ज्वाला रूप शिखा उस अग्नि से भिन्न नहीं होती,उसी प्रकार विद्वान नित्य विज्ञान रूप शिखा धारण करता है उसे मनीषी शिखो नाम से कथन करते हैं। बाहरी केशों को तो शूद्र स्त्रियां भी धारण कर लेती हैं, पर उनको शिख नहीं कहा जाता।

शंका- हे भगवन! जब ज्ञानरूप यज्ञोपवीत और ज्ञानरूप शिखा ही सर्वश्रेष्ठ है तो सब ब्राह्मणों आदि को बाह्य यज्ञोपवीत और शिखा परित्याग कर देना चाहिए।

समाधान- हे शिष्य! वेद भगवान ने जिन अग्निहोत्र कर्मों का अधिकार जिन ब्राह्मणों को दिया है, उनको तो बाह्य यज्ञोपवीत और शिखा धारण करनी ही होगी, क्योंकि इनकर्मों की पूर्ति में यज्ञोपवीत आदि की आवश्यकता पड़ती है। पर जो शुद्ध चित्त वाले विद्वान पुरुष हैं और जिन्होंने अग्निहोत्रादि का अधिकार त्याग दिया है उन्हें अंतर रूप यज्ञोपवीत और शिखा को धारण करना उचित है। हे शिष्य! कोई ब्रह्मवेत्ता पुरुष यह भी कहते हैं कि जिन विद्वानों ने यह निश्चय करके कि मैं सबका अधिष्ठान अद्वितीय ब्रह्म हूं अंतरंग ज्ञान रूप यज्ञोपवीत तथा शिखा को धारण किया है उनमें संपूर्ण ब्राह्मणत्व है और जिन लोगों ने केवल बाह्य चिन्हों को धारण कर रखा है उनका ब्राह्मणत्व मुख्य नहीं है वरन गौण है।

इस तथ्य को वज्रसूचि उपनिषद में इस प्रकार स्पष्ट किया है।

भेदाभ्यासाद भवेद विप्रो ब्रह्म जानाति ब्राह्मण

अर्थात- यह देहधारी जीव जन्म काल से तो शुद्ध ही होता है। फिर यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा द्विज संज्ञा को प्राप्त होता है। वही वेद का अध्ययन करने से विप्र कहा जाता है और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने पर ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी होता है। इस तरह ब्रह्मवेता पुरुष ही ब्राह्मण शब्द का मुख्य अर्थ है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App