आर्थिक मंदी के समाधान मौजूद

By: Sep 18th, 2019 12:05 am

डा. वरिंदर भाटिया

स्वतंत्र लेखक

अंतरराष्ट्रीय बाजार में अब कच्चे तेल की कीमत बढ़ गई है, इसलिए व्यवस्था को मुनाफा होना कम हो गया है। अर्थव्यवस्था में नरमी आने का एक और कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर किए जाने वाले खर्च में कटौती है। इससे आम लोगों के पास पैसे की कमी हुई। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र भारत में बड़ी संख्या में रोजगार भी पैदा करते हैं, इसलिए वहां सरकारी खर्च घटने से बेरोजगारी भी बढ़ी है। इस समय रीयल एस्टेट सेक्टर पूरी तरह से टूट गया है, जो कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देता है…

देश में संभावित आर्थिक मंदी को लेकर विलाप जोरों पर है। आर्थिक मंदी आने का मतलब है कि नई नौकरियां नहीं पैदा होंगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। मंदी आने पर कंपनियों की बिक्री कम हो जाती है, जिससे उत्पादन से लेकर हर स्तर पर लगे कर्मचारियों की छंटनी होती है, जो कि बेरोजगारी को और बढ़ा देती है। ये एक दुष्चक्र की तरह काम करती है क्योंकि बेरोजगारी से लोगों की खरीदने की क्षमता कम हो जाती है, ऐसा लगता है कि हमें मंदी का एहसास देर से हुआ है क्योंकि इसके शुरुआती सालों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत काफी कम हो गई थी। उसके सापेक्ष घरेलू बाजार में हमने तेल, पेट्रोल- डीजल की कीमत कम नहीं की। इससे देश को खूब मुनाफा होता रहा। आलम यह था कि भारत से खरीदकर नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका अपने यहां सस्ता पेट्रोल और डीजल बेच रहे थे, जबकि भारत में उसकी कीमत ज्यादा थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अब कच्चे तेल की कीमत बढ़ गई है, इसलिए व्यवस्था को मुनाफा होना कम हो गया है। अर्थव्यवस्था में नरमी आने का एक और कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर किए जान वाले खर्च में कटौती है। इससे आम लोगों के पास पैसे की कमी हुई। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र भारत में बड़ी संख्या में रोजगार भी पैदा करते हैं, इसलिए वहां सरकारी खर्च घटने से बेरोजगारी भी बढ़ी है। इस समय रीयल स्टेट सेक्टर पूरी तरह से टूट गया है, जो कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देता है।

इसके अलावा आम जनता से सरकार ने पैसा बैंकों में जमा करवा दिया, जिससे भी लोगों की क्रय शक्ति में गिरावट आई। इसका उत्पादन पर प्रभाव पड़ा, और छंटनी शुरू हुई। आर्थिक नरमी से निकलने का एक रास्ता निवेश, खासकर विदेशी निवेश को बढ़ाना है। सरकार ने विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए पर्यावरण संरक्षण कानूनों और श्रम कानूनों में बदलाव भी किया, लेकिन निवेश लाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। इस बिंदु पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मंदी से निकलने का सबसे महत्त्वपूर्ण रास्ता लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाना है। इसका एक उपाय बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियों में खाली पड़े पदों को भरकर निकल सकता है देश का जो सबसे कमजोर तबका है, उसकी क्रयशक्ति में इजाफा केवल मनरेगा जैसी योजनाओं में खर्चा बढ़ाकर किया जा सकता है।

वास्तव में अर्थव्यवस्था में यह नरमी काफी पहले शुरू हो गई थी। हम तो इसे 2018 के मध्य से ही महसूस कर रहे हैं। पिछले वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद ‘जीडीपी’ वृद्वि दर 6.8 प्रतिशत रही जो कि पिछले कई सालों का न्यूनतम स्तर है। सबसे गंभीर बात यह है कि सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में आ रही सुस्ती की आहट को शुरुआत में मानने से इनकार कर दिया था। वित्त मंत्रालय आठ प्रतिशत आर्थिक वृद्धि मानकर चल रहा है जबकि रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के दौरान वृद्धि दर सात प्रतिशत से कम रहने का अनुमान लगाया है। दो कारणों से देश में आर्थिक सुस्ती बढ़ी है। इसमें कुछ योगदान तो चक्रीय सुस्ती का रहा है और कुछ संरचनात्मक कारणों से है। दुनिया के देशों में आर्थिक गतिविधियां सुस्त पड़ रही हैं। जर्मनी, ब्रिटेन, मैक्सिको, अमरीका और चीन की अर्थव्यवस्थाओं की चाल धीमी हुई है। भारत पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक ही है, लेकिन कुछ घरेलू कारण भी रहे हैं जिनकी वजह से गतिविधियां बाधित हुई हैं। देश में माल एवं सेवाकर ‘जीएसटी’ लागू होने के बाद से व्यावसायिक गतिविधियां अभी तक सामान्य नहीं हो पाई हैं। कर्ज के बोझ तले दबी कंपनियों से निपटने के लिए बनाई गई ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवाला संहिता ‘आईबीसी’ से भी कारोबारी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं। पुराने वाहनों की बिक्री का बाजार भी सुस्त चल रहा है। यह स्थिति वाहन बाजार में बिक्री में गिरावट की एक बड़ी वजह है। सरकार को अर्थव्यवस्था की गति बढ़ाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन देने होंगे। अस्थायी तौर पर कुछ प्रोत्साहन देने हों तो वह दिए जाने चाहिए।

इसके अलावा आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने के लिए तमाम सरकारी परियोजनाएं जो रुकी पड़ी हैं अथवा धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हैं, उन पर काम तेज होना चाहिए। सड़क, रेलवे, बिजली, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते आवास की परियोजनाएं, पानी, सिंचाई सहित तमाम परियोजनाएं हैं जो कि लटकी पड़ी हैं अथवा समय से पीछे चल रही हैं, इनमें काम तेजी से आगे बढ़ाया जाना चाहिए। यह देखने की बात है कि रिजर्व बैंक के स्तर पर मौद्रिक नीति में लगातार नरमी लाई जा रही है। लेकिन इसके वांछित परिणाम फिलहाल नहीं दिखाई दिए हैं। इस समय जरूरत वित्तीय प्रोत्साहनों की है। ऐसे प्रोत्साहन जिनसे निवेश बढ़े। हमें घरेलू क्षेत्र पर ध्यान देना होगा। ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे कि बाहरी दुनिया से हमारे समक्ष जो जोखिम खड़े हो रहे हैं, उनको कम किया जा सके। जब आर्थिक वृद्धि की चाल धीमी पड़ती है तो वित्तीय प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए। मुद्रास्फीति बढ़ने की स्थिति में मौद्रिक प्रोत्साहनों की जरूरत होती है। मुद्रास्फीति इस समय काबू में है,े  इसलिए मौद्रिक स्तर पर ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। यदि हमें 5,000 अरब डालर की अर्थव्यवस्था बनना है तो संरचनात्मक स्तर पर कई मुद्दों को ठीक करने की आवश्यकता है। ढांचागत क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के प्रस्तावों का अनुकूल असर होगा। ग्रामीण क्षेत्र की योजनाओं को आगे बढ़ाने से मांग बढ़ाने में मदद मिलेगी। इन उपायों से आर्थिक मंदी का विलाप काबू पाया जा सकता है। 


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