पंजाब से अलहदा होकर हिमाचल तक हिंदी का सफर

By: Sep 29th, 2019 12:05 am

सीमांत क्षेत्रों में हिंदी का सफर

हिमाचल के सीमांत क्षेत्रों में हिंदी व पंजाबी भाषा का सफर एक अलग ही कहानी बताता है। इन क्षेत्रों में भले ही सरकारी स्तर पर राजभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दी गई है, लेकिन यहां बोलचाल की भाषा पंजाबी ही है। जिला ऊना और नालागढ़ ऐसे ही क्षेत्र हैं, जहां हिंदी का सफर कठिन लगता है। इन क्षेत्रों में हिंदी, पंजाबी और अन्य भाषाओं की क्या स्थिति है, प्रतिबिंब के इस अंक में हम यही बात बताने जा रहे हैं…

कुलदीप शर्मा

मो. 9882011141

एक ओर पंजाब के रूपनगर और होशियारपुर जिलों से और दूसरी ओर हिमाचल के कांगड़ा, हमीरपुर और बिलासपुर जिलों से सटा ऊना जिला जहां एक ओर पंजाबी सभ्याचार और पंजाबी भाषा से रिश्ता रखे हुए है, वहीं दूसरी ओर हिमाचल का प्रवेश द्वार होने से हिमाचली भाषा, रीति-रिवाज इसकी धमनियों में रक्त की तरह प्रवाहमान हैं। इस भूभाग को अनेक भौगोलिक और सांस्कृतिक कारणों से हिमाचल प्रदेश की उर्वर मेखला कहा जाता है। अगर पंजाब को देश का अन्नागार कहा जाता है तो ऊना को हिमाचल प्रदेश का। यहां के लोगों में जीवट की अद्भुत क्षमता है। विकट जीवन परिस्थितियों से जूझने की जो सहज प्रवृत्ति यहां के लोगों में है, वह इनकी बोलचाल की भाषा और दैनंदिन व्यवहार में भी बराबर परिलक्षित होती है। 1 सितंबर 1966 को पंजाब के होशियारपुर जिला से अलग होकर हिमाचल के पुनर्गठन के समय कांगड़ा जिला का अंग बने इस भूभाग को अंततः 15 अप्रैल 1972 को अलग से जिला के रूप में अस्तित्व मिला, तो पंजाब का यह पिछड़ा हिस्सा एकाएक हिमाचल के अग्रणी जिलों में शुमार हो गया। इस सारे फेरबदल में अगर सचमुच कुछ बदला तो जिला मुख्यालय और राजधानी। बोली और भाषा और सांस्कृतिक परिवेश तो अपरिवर्तनीय है। वे वैसे ही रहे, जैसा कि होता ही है।

इस प्रशासनिक जोड़-घटाव का असर न तो यहां की सभ्याचारक या सांस्कृतिक परिस्थितियों पर पड़ा और न ही यहां के नागरिकों की आम बोलचाल की भाषा में ही कोई अंतर आया। हां, एक अंतर जरूर आया, पंजाब का एक हिस्सा होते हुए यहां की आधिकारिक राजभाषा पंजाबी थी जो हिमाचल में विलय के साथ ही हिंदी हो गई। आम आदमी के दृष्टिकोण से कहा जाए तो यह आवेदनों की या अर्जियों की भाषा होती है। प्रशासनिक गलियारों में या तो विश्व भाषा अंग्रेजी का दबदबा रहता है या फिर प्रादेशिक राजभाषा का। आवेदनों और पत्र-व्यवहार की भाषा का पंजाबी से हिंदी में आ जाना स्पष्ट रूप से पंजाबी भाषी पट्टी के लिए किंचित असुविधाजनक तो था ही, यह बदलाव वहां की सांस्कृतिक आबोहवा को भी बड़े पैमाने पर बदलने वाला साबित हुआ। होता है कि जब आवेदनों की भाषा बदलती है तो अचिन्हित और सूक्ष्म बदलाव चूल्हे के आसपास की बोली में भी अनजाने ही आ जाता है।

भारतेंदु जी ने भारतीय बोलियों को भाषा का एक निरंतर प्रवाहमान सागर कहा है जिसमें कहीं कोई विभाजक रेखा नही खिंची जा सकती है। यह एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी अंतरंग रूप में परस्पर गुंथी होती हैं, माला के पुष्पों की तरह। इनकी सुगंध से उस क्षेत्र विशेष में एक सोंधी सी महक रहती है जिसे उस स्थान पर जाने और रहने पर ही अनुभव किया जा सकता है। एक पुरानी कहावत है कि हर पांच कोस पर बोली बदल जाती है। बोली किसी भूभाग विशेष के बाशिंदों के परस्पर संवाद का सबसे सशक्त माध्यम है। बोलियां ही वहां के दुःख-सुख को किसी व्याकरण के बंधन के बिना अभिव्यक्त करने की सहज क्षमता रखती हैं। इनमें न कोई बनावट होती है न कोई ठोस बुनावट। यह उच्चारण की सुविधा के लिए अपना माध्यम, अपना रास्ता खुद बनाती है। कोई भी बोली वहां के स्थानीय बाशिंदों के लिए मां-बोली या मातृभाषा होती है।

वहां के लोग अपनी खुशियां, अपना आक्रोश, अपना प्रेम, अपना हुनर बेरोकटोक मां-बोली में व्यक्त करते हैं। जब ऊना को पंजाब से विलग कर हिमाचल से जोड़ा गया तो भाषाई उथल-पुथल के साथ एक सांस्कृतिक करवट भी इस क्षेत्र ने ली और जाहिर है कि उसका प्रभाव यहां की साहित्यिक सृजनशीलता पर भी पड़ा। विशेषकर हिंदी साहित्य के लिए यह प्रभाव एकसाथ कई स्तरों पर था। भाषाई स्तर पर यह हालांकि अनुवाद की भाषा तो नहीं थी, फिर भी इसके सामने आम बोलचाल की भाषा के शब्दों को हिंदी में ग्राह्यता के साथ अपनाने की चुनौती तो थी ही। साहित्यिक सृजन का कार्य क्योंकि अपनी मिट्टी की गोद में उसकी सुबास में बैठ कर ही करना संभव होता है, अतः यह कहा जा सकता है कि हिंदी में साहित्य सृजन की अपनी कुछ सीमाएं, कुछ दुश्वारियां इस क्षेत्र में हिंदी लेखकों के समक्ष रही हैं। एक बात तो तय है कि सार्थक लेखन में रत कोई भी लेखक अपनी जड़ों से कट कर कुछ समय तक और कुछ दूर तक अपने लेखन को ढो सकता है, किंतु देर तक टिके रहना या कालजयी कृति दे पाना उसके लिए संभव नहीं होता।

हिंदी लेखन में जुटे ऊना जनपद के लेखकों के समक्ष इन पांच कोसी बोलियों के बीच के प्रचलित शब्दों को हिंदी की प्रयोगशाला में उसके सहज अर्थों के साथ रूपांतरित करना भी एक बड़ी चुनौती थी। राजभाषा का पंजाबी से विस्थापित होकर हिंदी हो जाना यहां के लोगों को प्रशासनिक शब्दावली सीखने में तो मददगार हुआ होगा, किंतु हिमाचली और पंजाबी के योगिक मिश्रण जैसी बोली के बीच हिंदी का अपना सफर बहुत ज्यादा सुखद नहीं हो सकता था। शायद यही कारण था कि हिंदी पट्टी के लेखकों की बनिस्बत इस क्षेत्र को लोगों को वांछित गंभीरता से नहीं लिया गया। जैसा कि संभवतः दूसरी जगह के लेखकों को भी इस चुनौती का सामना करना पड़ा होगा। भाषाई हलकों में यह उपेक्षा पहले भी बहस में रहती आई है और आज भी है। इसका कोई हल या  विकल्प आज तक  नहीं मिल पाया है। फिर भी यहां के लेखकों ने अपने लिए हिंदी को चुना और हिंदी में ही पहचान बनाई। भाषा चुनने और उसी में सृजन के सपने बुनने का यह संकल्प हर लेखक को नई ताकत देता है। उसे नई चुनौतियों से जूझने का साहस तो देता है, साथ ही यह स्थिति भाषा के समृद्ध होने का मार्ग भी प्रशस्त करती है।

चाहे गपशप या बतियाने की भाषा पंजाबी, पहाड़ी हो, लेकिन लेखन में हिंदी हो तो लेखक को उड़ान के लिए एक विस्तृत आकाश जरूर मिलता है। एक समृद्ध और विकसित भाषा से जुड़ने का एहसास भी उसके सामने सृजन के नए आयाम खोलता है। ऊना जनपद में सृजनरत लेखक को आज पंजाबी या पहाड़ी में लिखना सहज नहीं लगता, वह हिंदी में स्वयं को अधिक सहजता और कारगर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता है। कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में हिंदी का सफर भले ही अतीत में कठिन रहा हो, भविष्य हिंदी का ही है। हिंदी समाचार पत्रों का बाहुल्य भी इसी ओर संकेत करता है कि लोगों ने हिंदी को अपनाया भी है और इसे अपनी लेखनी से संवारा भी है। प्रकाश चंद महरम ऊनवी, राणा शमशेर सिंह, ईश्वर दुखिया, जाहिद अबरोल, एलआर झींगटा निशात, अशोक कालिया, कुलदीप शर्मा, डेज़ी शर्मा, राजपाल कुटलैहडि़या, अंबिका दत्त जैसे कई लेखक यहीं की मिट्टी की सोंधी महक में रचे-बसे अपने अनुभवों को हिंदी में लिखने में गौरव अनुभव करते हैं। कुंवर हरी सिंह जैसे यशस्वी समाज सेवक पंजाबी भाषी होने के बावजूद शुद्ध और परिष्कृत हिंदी में न केवल धाराप्रवाह बोलते हैं, बल्कि स्तंभ लेखक के तौर पर बहुत सार्थक लेखन हिंदी में करते हैं। सो, कुल मिलाकर ऊना जनपद में हिंदी का वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल कहा जा सकता है।

हिमाचल के सीमांत क्षेत्रों में हिंदी ने छीनी पंजाबी

डेज़ी एस. शर्मा

मो.-9418875223

ऊना हिमाचल प्रदेश के 12 जिलों में एक, प्रदेश के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित है। अगर हम ऊना के इतिहास पर नजर डालें तो ऊना जिला कभी स्वतंत्र रियासत नहीं था। पंजाब से पृथक होने के बाद भी यह कांगड़ा रियासत का ही भाग था, ऊना स्वयं जसवां और कुटलैहड़ रियासत से मिलकर बना है। सन् 1966 में ऊना कांगड़ा जिले की तहसील बना। तदुपरांत 1 सितंबर 1972 को ऊना, हिमाचल का पृथक जिला बना। इसलिए ऊना न केवल हिमाचल के ही अन्य जिलों से अपनी सीमाएं बांटता है, अपितु पंजाब से भी उन्हें सांझा करता है। जहां एक ओर हिमाचल के हमीरपुर, कांगड़ा एवं बिलासपुर से इसकी सीमाएं लगती हैं, वहीं दूसरी ओर पंजाब के होशियारपुर और रूपनगर जिलों से भी अपनी सीमाएं सांझा करता है। निःसंदेह ऊना का ऐसा उद्गम उसकी संस्कृति, भाषा और बोली को प्रभावित करता है, अब इनके आपसी संबंध को समझने के लिए इनकी सूक्ष्मता को समझना जरूरी है। भाषा अभिव्यक्ति का एक ऐसा समर्थ साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों पर प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचारों को जान भी सकता है। बोली भाषा का क्षेत्रीय रूप है, अर्थात किसी भी देश के विभिन्न भागों में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है और किसी भी क्षेत्रीय बोली का लिखित रूप में स्थिर साहित्य वहां की भाषा कहलाता है। सीमाओं की विविधता एवं जिन रियासतों के समायोग से जिला ऊना का गठन हुआ, उनमें हिंदी, पंजाबी, पहाड़ी (मुख्यतः कांगड़ी) एवं उन्नवी सामान्यतः बोले जाने वाली भाषाएं हैं। यहां उन्नवी का जिक्र करें तो वह स्वयं हिंदी, पंजाबी और पहाड़ी का ही मिश्रण है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है और वो है जिले के लोगों का स्वीकार्य भाव जो निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। यहां की मूल जनसंख्या का वो वर्ग जिन्होंने 80 और 90 के दशक में अपने स्कूल एवं कालेज की शिक्षा पूर्ण की, जब निजी शिक्षण संस्थानों एवं निजी स्कूलों का भी इतना चलन नहीं था, तब हिंदी आधिकारिक भाषा के साथ-साथ मुख्य बोलचाल की भाषा भी बनती जा रही थी। किंतु उन्नवी ने भी परस्पर समन्वय बनाए रखा। आज के परिप्रेक्ष्य में, जहां एक ओर जिले में निजी स्कूलों की बहुतायत है, जहां शिक्षा के माध्यम में अंग्रेजी पोषित वातावरण को अहमियत दी जा रही है, वहीं दूसरी ओर बोली पर भाषा, भाषा पर माध्यम हावी होता दिखाई दे रहा है। जिले में साक्षरता दर भी इसका एक पहलू है, जहां वर्तमान में हिमाचल की साक्षरता दर 82.80 प्रतिशत है, जिसमें पुरुषों एवं स्त्रियों की साक्षरता दर क्रमशः 89.94 प्रतिशत एवं 83.06 प्रतिशत है। प्रत्येक साक्षर परिवार अपनी आने वाली पीढ़ी को उचित वातावरण एवं अच्छी शिक्षा देने हेतु आतुर रहता है। अब यहां विडंबना यह है कि अंग्रेजी माध्यम निजी शिक्षण संस्थान और पाठशालाएं अनायास ही बेहतरीन शिक्षा का पर्याय बनते जा रहे हैं। जबकि हिंदी माध्यम वाले सरकारी विद्यालयों में गिरता हुआ छात्र अनुपात देख कर स्वयं ही हिंदीं भाषा की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

जिले के वर्तमान स्वरूप की बात करें तो अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से कोई एक बोली सांस्कृतिक पन्नों पर अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाई है। नंगल से ऊना के मार्ग में आने वाले गांवों में आपको पंजाबी के विभिन्न स्वरूप मिलेंगे। वहीं ऊना से अंब, बंगाणा, चिंतपूर्णी इत्यादि में आपको पहाड़ी की कांगड़ी बोली की मिठास सुनने को मिलेगी। लेकिन इन सब के बीच  उन्नवी अपने अस्तित्व और यथार्थ में अपना स्थान नहीं बना पाई। स्थानीय साहित्यकारों पर आक्षेप तो नहीं अपितु स्थानीय लोगों की साहित्य और संस्कृति के प्रति उदासीनता एक कारक जरूर है, जो लेखकों, साहित्यकारों एवं कलाकारों का प्रोत्साहन नहीं कर पाए। संस्कृति, साहित्य और बोली के साक्ष्य किसी भी जगह के गीत और लोकगीत होते हैं जो शब्दों और शैली का आम जनमानस से परिचय कराते हैं। इस संदर्भ में भी ऊना कई पायदान नीचे ही है। चैत्र मास के चलते एक वर्ग विशेष द्वारा गाए जाने वाले लोकगीत अब लुप्त होते जा रहे हैं। डोहरुयों द्वारा लोकगीतों की जरिए गुगा गाथा सुनाना अब लगभग विलुप्त ही है। निःसंदेह जब संस्कृति के साक्ष्य (साहित्य) नहीं तो संस्कृति कब तक अपना औचित्य समझा पाएगी। अतः साहित्य रूपी ज्ञान राशि का संचित कोष अब समाप्त होने की कगार पर है, समय रहते इस पर अंकुश लगाना अति आवश्यक है, क्योंकि साहित्य ही किसी भी देश, जाति और वर्ग को जीवंत रखने का, उसके अतीत रूपों को दर्शाने का एकमात्र साक्ष्य होता है। यह मानव की अनुभूति के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करता है एवं पाठकों तथा श्रोताओं के हृदय में एक अलौकिक अनिवर्चनीय आनंद की अनुभूति उत्पन्न करता है और भाषाओं तथा बोलियों में सामंजस्य बिठाने में कारगर साबित होता है।

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अशोक गौतम

अतिथि संपादक

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि तथा संभावना

हिंदी काफी आगे बढ़ गई पिछड़ गई पंजाबी में रचना

पहाड़ी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की जद्दोजहद के बावजूद आधिकारिक रूप से हिमाचल की भाषा हिंदी है। भले ही पहाड़ी भाषा की अपनी कोई लिपि या कोई सर्वमान्य रूप अभी विकसित न हुआ हो, कुछ जोशीले युवा रचनाकारों के लिए पहाड़ी भाषा का उन्नयन और मान्यता एक गर्म एजेंडा है। हिमाचल प्रदेश के पुनर्गठन के समय पंजाब का कुछ ठेठ पंजाबी भाषी क्षेत्र भौगोलिक और राजनीतिक कारणों से हिमाचल में मिलाया गया। पंजाब का यह सीमांत क्षेत्र हिमाचल के छह जिलों को छूकर निकलता है।

यह जिले हैं ऊना, बिलासपुर, सोलन, सिरमौर, कांगड़ा और चंबा। पंजाब का पड़ोस इन जिलों में रहने वाले लोगों के रहन-सहन, परंपराओं, रीति-रिवाजों, भाषा, पहरावा और सोच को भी प्रभावित करता है। जाहिर है पंजाबी भाषा का यहां की रचनाशीलता पर भी प्रभाव होगा। इस क्षेत्र की साहित्यिक रचनाओं में पंजाबियत तो नजर आती है, पर पंजाबी भाषा में कोई रचना नजर नहीं आती। आज के समय में जब तमाम सृजन एक संकट के दौर से गुजर रहा है और मोबाइल, लैपटॉप व टीवी ने युवाओं के मन-मस्तिष्क को पूरी तरह से आप्लावित कर रखा है, हम सृजन में नए प्रयोग और नई भाषा की कल्पना भी नहीं कर सकते। एक समय था जब नानक सिंह के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘पवित्र पापी’ न केवल लोगों को रुलाती थी बल्कि उन्हें उपन्यास को मूल रूप में पढ़ने के लिए भी लालायित करती थी।

पंजाब का पंजाबी साहित्य हिमाचल के पाठक वर्ग को उसी तरह लुभाता था जैसे निर्मल वर्मा और यशपाल को पढ़ने के लिए पंजाबी युवा बेचैन रहता था। यह मात्र संयोग नहीं है कि राज्यों के पुनर्गठन के समय पंजाब से हिमाचल में आए क्षेत्रों में पंजाबी का कोई भी ऐसा एक लेखक नहीं है जिस पर दृष्टि जाती हो। हो सकता है किसी ने कविता के क्षेत्र में छिटपुट लेखन-कार्य पंजाबी में किया हो, पर गंभीर पंजाबी रचनाओं का इधर नितांत अभाव रहा है। 1966 के बाद कुछ सरकारी विद्यालयों से पंजाबी भाषा एक विषय के रूप में हटा ली गई थी और उसकी जगह एक वैकल्पिक भाषा के रूप में संस्कृत को समावेशित किया गया था। जो पंजाबी अध्यापक उस समय हिमाचल में रह गए थे, बाद में उन्हें भी पंजाब में एक फार्मूले के तहत नियोजित कर लिया गया था। इस तरह पंजाबी भाषा पढ़ने और उसमें संवाद के स्तर पर कुछ रचनात्मक लिखने की संभावनाएं लगभग न के बराबर रह गई थीं।

यही कारण रहा होगा कि हिमाचल के सीमांत क्षेत्रों में जहां पंजाबी बोलचाल की भाषा तो है, परस्पर संवाद की भाषा तो है, साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा नहीं है। इसका एक दूसरा आयाम यह भी है कि हिमाचल का दूरदराज का पाठक भी नानक सिंह, भाई वीर सिंह, बुल्ले शाह, अमृता प्रीतम, शिव कुमार बटालवी, सुरजीत पात्र, पाश को जानता है, पढ़ता है और आह्लादित होता है, पर उस भाषा में खुद लिखने की प्रेरणा नहीं पाता। पाश की कविताओं के हिंदी अनुवादों के कुछ उद्वरण  तो यहां के सामाजिक और राजनीतिक नेताओं के भाषणों तक में सुनने को मिल जाते हैं, पर सारांशतः यह कहा जा सकता है कि हिमाचल की ओर से पंजाब के रिश्तों में साहित्य की गर्माहट नदारद है। हालांकि ब्याह-शादियों में सबसे ज्यादा ठुमके जागीरो के ढोल पर ही लगते हैं आज भी। हिमाचल के दूरदराज इलाकों में भी ‘वे तू लौंग मैं इलायची’ पर ही सबके पैर उठने लगते हैं। तब तो लगता है पंजाब की सीमाएं यकायक वैश्विक हो गई हैं। नाटी की प्राथमिकता तब दूसरे स्थान पर खिसक जाती है। नतीजतन एक तरफ साहित्यिक रिश्तों की ठंडक तब ज्यादा नहीं खलती।

-कुलदीप

नालागढ़ में हिंदी जनमानस की भाषा नहीं बन पाई

अदित कंसल

मो.-8219281900

नालागढ़ जिला सोलन का वह क्षेत्र है जो कि हरियाणा व पंजाब से सटा है। एक नवंबर 1966 को पंजाब से पहाड़ी क्षेत्र हिमाचल में शामिल हुए थे। पंजाब हिल्स स्टेट, जिसमें कांगड़ा, शिमला, अंबाला जिले का नालागढ़ क्षेत्र, डलहौजी, कुल्लू, लाहौल-स्पीति और होशियारपुर जिले की ऊना तहसील थी, हिमाचल में शामिल किए गए। इसी दिनांक से कुल्लू, लाहौल-स्पीति, कांगड़ा और शिमला जिले बनाए गए थे।

इस प्रकार 1 नवंबर 1966 को विशाल हिमाचल बना था। यदि भाषा की बात की जाए तो नालागढ़ क्षेत्र के लोगों की भाषा पंजाबी है। नालागढ़ क्षेत्र में पंजाब की संस्कृति, खानपान, पहनावा, रहन-सहन स्पष्ट झलकते हैं। यहां के लोगों का आवागमन पंजाब के क्षेत्रों में अधिक है। यहां के आवाम की रिश्तेदारी व संबंध अधिकतर कीरतपुर, भरतगढ़, आनंदपुर साहिब, रोपड़, लुधियाना, होशियारपुर व कुराली इत्यादि में हैं। यहां हिंदी का पिछड़ापन स्पष्ट रूप से झलकता है। लोग दैनिक जीवन में  संवाद हेतु  पंजाबी भाषा का प्रयोग करते हैं। बीबीएन अर्थात बद्दी, बरोटीवाला, नालागढ़ के लोग अपने बच्चों को पंजाबी सिखाना चाहते हैं। अधिकतर स्कूलों जैसे बघेरी, नालागढ़ प्रमुख, मझौली, खेड़ा, दभोटा, जोगो, बद्दी, मानपुरा व बरोटीवाला इत्यादि में पंजाबी विषय पढ़ाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त पंजाबी विषय में बोर्ड परीक्षा में सबसे अधिक विद्यार्थी नालागढ़ के ही होते हैं। यहां सड़कों, दुकानों एवं सीमावर्ती क्षेत्रों से आने वाली बसों पर अधिकतर बोर्ड पंजाबी में ही होते हैं।

विद्यालयों, महाविद्यालयों और रेडक्रास मेले में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पंजाबी नृत्य गिद्दा एवं भांगड़ा प्रमुख आकर्षण का केंद्र रहते हैं। देखने में आता है कि सांस्कृतिक कार्यक्रम-रेडक्रास मेले में पंजाबी गायक स्टेज पर होते हैं तो पंडाल दर्शकों से खचाखच भरा रहता है  और पांव रखने की जगह नहीं होती। परंतु जब पहाड़ी गायक या हिंदी नृत्य की बात होती है तो पंडाल अधिकतर खाली पड़ा रहता है। नालागढ़ क्षेत्र में भांगड़ा नाटी व लोकनृत्य पर हावी है। लोग हिंदी की अपेक्षा पंजाबी में बात करने, लिखने में गर्व महसूस करते हैं तथा पंजाबी में सहजता अनुभव करते हैं। यह कहने में संकोच नहीं कि पंजाब से हिमाचल में विलय होने के बाद नालागढ़ क्षेत्र में हिंदी का बोलबाला व सफर अत्यंत धीमा और नकारात्मक रहा है। हिंदी जनमानस की भाषा नहीं बन पाई। अधिकतर कार्यालयों में लोग बातचीत हेतु पंजाबी का प्रयोग अधिक करते हैं।

हां, लिखित काम हिंदी व अंग्रेजी भाषा में हो रहा है। यद्यपि हिंदी को प्रोत्साहित करने हेतु नालागढ़ क्षेत्र के स्थानीय लेखक, कवि, कहानीकार अपना योगदान दे रहे हैं। इनमें प्रोफेसर रणजोध सिंह, डा. अजय पाठक, यादव किशोर गौतम, नंदिता बाली, बृजमोहन शर्मा, प्रोफेसर कृष्ण बंसल, अध्यापिका विजयलक्ष्मी, प्रवक्ता राम प्यारा के नाम उल्लेखनीय हैं। नालागढ़ के  कई विद्यालयों में अब  हिंदी में काम करने पर बल दिया जा रहा है। राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला राजपुरा का शत-प्रतिशत हिंदीकरण कर दिया गया है। हिंदी के प्रचार व प्रसार के लिए भाषा एवं संस्कृति विभाग को नालागढ़ क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। प्रशासन, भाषा एवं संस्कृति विभाग को विद्यालयों, कार्यालयों व सामुदायिक स्थानों पर कवि सम्मेलन, हिंदी में चर्चा व प्रतियोगिताएं करवानी चाहिए। राज्य भाषा हिंदी तभी कार्यालीय भाषा के साथ-साथ जनमानस की भाषा बन पाएगी। नालागढ़ क्षेत्र के हिंदी भाषा के कवियों, लेखकों व कहानीकारों को अधिक क्रियाशील होने की आवश्यकता है।      

आंख से ओझल होती दिशा

भारत भूषण ‘शून्य’

स्वतंत्र लेखक

मात्र वैचारिक प्रतिबद्धता से जिंदगी के वे द्वार नहीं खुलते जिनसे होकर हमारे होने के स्पंदन की प्रतीति हो जाए। एक दिशा विशेष का यात्री प्रकृतिजन्य सौंदर्य की विशिष्टता का अवलोकन कभी नहीं कर सकता। जो आज के जीवन को किन्हीं भूतकाल में जीए गए नियमों से बांधकर देखने की जिद पर अडिग है, वह निश्चित ही वर्तमान की किसी भी सार्थकता की डुगडुगी बजा देगा। मन के महल में गहरे समा गई स्वर्णिम भूत की परछाई ने सदा वर्तमान के दर्पण को धुंधला किया है। जीवन तो बहता हुआ प्रपात है, उसमें से उछालें भरता गिर रहा जल कल की कल कल से कोई नाता नहीं रखता। जो वक्त बह गया, वह अब फिर लौटकर पुनः बहने की कोशिश नहीं किया करता। सत्ता की बारीकियों में बहुत कुछ समाया हुआ मिलेगा, लेकिन जिंदगी के नग्न तथ्य हमेशा दरकिनार किए जाएंगे। अफसोस की इस परंपरागत कला को शिरोधार्य करने की मानव की यह विडंबना हर काल में अपना राग अलापती आई है। विरोधाभास के सभी तथ्यों को सत्ता की कनकधारा में उंडेलित कर लेने से जितना अहित मानवजाति ने खुद का किया है, वह अनंत है, अथाह है। अपने ही पैरों से अपने ही भ्रामक विचारों से जिंदगी के सौंदर्य को रौंदना सनातन सच बना रहेगा, जब तक अपनी आंख में घुसे तिनके को निकाल बाहर करने की कोई कोशिश नहीं की जाती। अपनी आंख से देखे गए सच के अलावा और कोई बात सिवा कथा-कहानी के कुछ नहीं। तथ्यों को दुत्कार कर लिए गए सभी फैसले किसी सुखद परिणाम की आहट तक जाने से पहले बिखर जाया करते हैं।  


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