भीड़ से भीड़ चुनो

By: Sep 23rd, 2019 12:04 am

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

सामर्थ्यवान होना क्षमताशाली होना भी है, यह जरूरी नहीं। यह जरूरी नहीं कि सारी शक्ति भीतर हो, बल्कि जो बाहर दिखा सकता है, वही तो देखा जाएगा। यानी अपनी क्षमता के उपार्जन के लिए भीड़ सरीखा बनो या व्यवहार करो। आज देश भीड़ की स्थिति में खुद की बुलंदी देखता है, इसलिए नागरिक समाज की उपस्थिति भी भीड़ है। जहां भीड़ है, वहीं  तो भारत है। हम किसी न किसी महाकुंभ में अपनी ऊर्जा बढ़ाते हैं। जब भीड़ बनते हैं, तो सच्चे भारतीय साबित होते हैं। बिहार से आती किसी ट्रेन की समयसारिणी को समझना अगर सामर्थ्य की परीक्षा है, तो भीड़ बनकर सारे देश में बिखर जाने की यह अद्भुत क्षमता भी है। समय से लेट चल रही ट्रेन में भीड़ के बावजूद घुस जाना ही तो भारतीय सामर्थ्य है। हमारे सामने भीड़ में से भीड़ चुनने का भी अजब सिलसिला है और इसलिए जो सियासी भीड़ में चला गया, समाज की भीड़ को पीछे छोड़ गया। हिमाचल में यूं तो आबादी किसी भीड़ के काबिल नहीं और न ही व्यवहार में भीड़ को खड़ा करना आसान है, फिर भी नेताओं ने हमें भेड़ों की तरह भीड़ बना दिया। हमारे भीतर के कक्ष में जातीय भीड़ का समावेश है, तो इसी कारण हम राजनीति के रंगरूट हो सकते हैं। औचित्य की भूमि पर भीड़ दिखाने का सामर्थ्य खोजने की जरूरत है, तो अपने हिस्से की भीड़ ढूंढो। यह भीड़ आपको न किसी सौहार्द और न ही किसी सामंजस्य में मिलेगी। यह विवाद में मिलेगी, अवसाद में मिलेगी। अतीत में झांकिए कि किस तरह और किस काबिलीयत से अन्ना हजारे भीड़ बन गए, लेकिन भीड़ उनसे फिसल कर केजरीवाल बन गई। भीड़ का संचालन अत्यंत कौशल की परिधि में खुद से मुलाकात है, इसलिए सरकारी फैसलों की इबारत में भीड़ से सच्चा सौदा करते आप युग पुरुष बन सकते हैं। राष्ट्रीय नागरिकों का रजिस्टर यानी एनआरसी की क्षमता देखिए और समझिए कि भीड़ से भीड़ को कैसे चुना जा सकता है। कौन सी भीड़ अपनी और कौन सी ठुकराई जा सकती है। आखिर धर्म भी तो भीड़ है और जिसने पाया भीड़ हो गया। जब तक भीड़ के बीच आसाराम थे, भगवान थे, अब जेल के मेहमान हैं। कुछ यही किस्सा भीड़ के योग का भी रहा या जब भीड़ ने योग किया, तो बाबा रामदेव क्षमतावान बन गए। अब सामान कहीं ज्यादा बिक गया, तो भीड़ छंट गई। क्षमता तो आर्थिक मंदी की भी दिखाई देती है, अतः सोच को बदलिए कि बुरे दिन भी किस तरह अच्छे हो सकते हैं। भीड़ माने तो अच्छे दिन हैं, वरना दिनों को समझने का सामर्थ्य तो किसी डिग्रीधारक के बूते की बात नहीं। भीड़ का अपना आचरण है, लिहाजा इसमें भी छुआछूत है। देश की भीड़ में बुद्धिजीवी का अनाथ होना स्वाभाविक माना जा सकता है, मगर अछूत होना उसकी नियति है। बुद्धि के सहारे चलोगे, अकेले रह जाओगे। बुद्धि है तो प्रकट मत कर, बस भीड़ में भांग बन जाओ और आसपास को मलते हुए ऐसा नशा पैदा करो कि दूसरे की जीत अपनी लगे। दूसरे का सामर्थ्य भी अपना लगे। भीड़ के भरोसे अगर ईश्वर को भी भक्तों की जरूरत है, तो भक्त बन कर खुदाओं के देश में अपने लिए भी एक अदद चुन लो। आखिर हमारी क्षमता यही तो है और पौराणिक परंपराएं भी यही कि मिट्टी हो जाओगे, तो खुदा मिलेगा। यह वक्त फिर वरदान दे रहा है और इस बार धर्म नहीं सियासत खुदा पैदा कर रही है। जब तक भीड़ में पिस कर मिट्टी नहीं बनते, सामने ईश्वरीय नेता नहीं मिलेगा।


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