हिंदी को नहीं मिल पाया वांछित सम्मान

By: Sep 1st, 2019 12:05 am

डा. हेमराज कौशिक

मो.- 9418010646

भारतीय संविधान सभा में 14 सितंबर, 1949 को हिंदी भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकृत हुई थी। वह राजभाषा के साथ-साथ राष्ट्र भाषा और व्यापक जनसमुदाय से जुड़ी भाषा है। हिंदी की क्षमता और समृद्धि हिंदी प्रदेशों के सामान्य लोगों के जीवन में परिलक्षित होती है। हिमाचल प्रदेश हिंदी भाषी राज्य है, यहां की अनेक बोलियों का समूह इससे संबद्ध है। हिंदी भाषा की व्यापकता इस बात में निहित है कि यह अनेक भाषाओं और बोलियों के मध्य संवाद सेतु बनी हुई है।  सामान्य जन में हिंदी के व्यवहार से हटकर प्रशासन और सरकारी उपक्रमों, निजी क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग को लेकर विचार करें तथा सर्वेक्षण करें तो पाएंगे कि प्रदेश के प्रशासन और कामकाज की भाषा हिंदी और अंगे्रजी दोनों ही हैं। ज्यादातर कार्य अंग्रेजी में ही संपन्न होता है। प्रशासन से संपृक्त एक वर्ग अभी भी हिंदी को सर्वात्मना स्वीकार करने को तत्पर नहीं है। समाज और राजनीति को प्रभावित करने वाले लोगों की मानसिकता अभी भी अंग्रेजी भाषा से प्रभावित है। अंग्रेजी बोलना या लिखना गौरव की बात मानी जाती है। ऐसे थोड़े से लोगों का प्रभाव सामान्य जन पर भी रहा है। विवाह तथा अन्य संस्कारों के अवसर पर दिए जाने वाले निमंत्रण पत्र और विशिष्ट लोगों को अंग्रेजी में निमंत्रण प्रेषित करने के अनेक उदाहरण ग्रामीण समाज में भी देखने को मिलते हैं। दुकानों में साइन बोर्ड ज्यादातर अंग्रेजी में देखे जाते हैं। तकनीकी और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग न के बराबर है। इन क्षेत्रों में काम करने वाले लोग सामान्य व्यवहार में हिंदी का प्रयोग करते हैं, परंतु ज्ञान-विज्ञान के लिए अंग्रेजी भाषा की वकालत करते हैं। भाषा और संस्कृति की परस्पर गहनता को वे अनुभव नहीं कर पाते। हालांकि हमारे समक्ष चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस और रूस जैसे देशों के उदाहरण हैं जहां अपनी भाषा को महत्त्व दिया जाता है।  अंग्रेजी भाषा के समर्थक उसे विश्व भाषा का तर्क देते हैं। हम अंग्रेजी तथा विश्व की किसी अन्य भाषा या भारतीय भाषाओं को सीखें-पढ़ें, परंतु देश की राष्ट्रभाषा हिंदी पर वर्चस्व कायम न करें। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है। बाजार का दृष्टिकोण भाषा और संस्कृति के प्रति श्रेयस्कर नहीं हो सकता। अंगे्रजी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप से हम परिचित हैं, परंतु अपनी राष्ट्रभाषा की गरिमा और व्यापकता को अनुभव करने की जरूरत है। अंग्रेजी या किसी दूसरी भाषा का पढ़ना-सीखना ज्ञान के क्षितिजों के विस्तार के लिए श्रेयस्कर है, परंतु अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा की अस्मिता की गरिमा किसी भी स्थिति में क्षीण नहीं होनी चाहिए। हिमाचल प्रदेश में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सक्रियता विद्यमान है। विविध विधाओं में सृजन हो रहा है, परंतु कोई भी भाषा केवल साहित्य के बल पर आगे नहीं बढ़ती। साहित्येत्तर क्षेत्र में भाषा का प्रयोग ही उसकी व्यावहारिक शक्ति का परिचायक होता है। वही उसमें जीविकोपार्जन की क्षमता उत्पन्न करता है। अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूलों से निकलने वाली पीढ़ी हिंदी भाषा और हिमाचली बोलियों को आशा भरी नजर से नहीं देखती, जबकि हमारी बोलियां हमारी संस्कृति के तीज त्योहारों, लोक आस्थाओं और विश्वासों से गहन रूप में संपृक्त हैं। हिमाचल प्रदेश में अनेक विश्वविद्यालय खुले हैं। शिक्षा के विस्तार की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है, परंतु हिंदी भाषा का प्रयोग कार्यालयों से नदारद है। इन स्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि और प्रश्न उत्पन्न होता है, क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है?  हिंदी राज्य की गरिमा के लिए यह आवश्यक है कि प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान हिंदी माध्यम के रूप में अपनाने का संकल्प किया जाए। इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति, दृढ़ संकल्प और मानसिकता की आवश्यकता है, जैसे सन् 1978 में पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने हिंदी को प्रशासन और कामकाज की अनिवार्य भाषा बनाकर उदाहरण स्थापित किया था। परंतु बाद में स्थिति पूर्ववत बन गई। हिंदी भाषी राज्य की गौरव गरिमा हिंदी के व्यापक प्रयोग पर अवलंबित होती है। हिंदी दिवस की महत्ता तब ही संभव हो सकती है जब दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ हिंदी को आचरण और व्यवहार की भाषा बनाएं और राष्ट्रभाषा का सम्मान करें।

क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है -1

क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है? क्या हिंदी को राज्य में वांछित सम्मान मिल पाया है अथवा नहीं? इस बार राष्ट्र भाषा से जुड़े ऐसे ही कुछ प्रश्नों पर विभिन्न साहित्यकारों के विचारों को लेकर हम आए हैं। 14 सितंबर को विश्व हिंदी दिवस है। इसलिए ऐसे प्रश्नों की प्रासंगिकता है। पेश है इस विषय पर विचारों की पहली कड़ी…

पुस्तक समीक्षा  :  स्वानुभूति के बिना अधूरी हैं यात्राएं

यात्रा, चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक, स्वानुभूति के बिना अधूरी ही मानी जाती है। ऐसे में चौरासी के दर्शन को मानने वाली सनातन परंपरा में यात्राओं का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। कोई भी वाद स्वानुभूति का प्रतिवाद नहीं हो सकता। मानव चाहे ईश्वरवादी हो, अनीश्वरवादी हो या फिर सत्य का अन्वेषक, यात्रा की महिमा को खारिज नहीं कर सकता। बिना देखे, यात्रा बेकार है। उधर, सदियों से मानव के ज्ञान और जानकारी में तो वृद्धि होती रही, किंतु उसमें विवेक और सद्गुणों का विकास नहीं हो पाया। हमारा चरित्र आज भी वही है। वर्तमान प्रशासन तथा समाज की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं, राष्ट्र रसातल में धंस रहा है और हम अपने शासकों के झूठे गुणगान में व्यस्त हैं।  इतिहास के गलत लेखन को लेकर वर्तमान में चल रहा द्वंद्व इसी बात का परिचायक है। माना कि इतिहास की अनिवार्यता कहीं नहीं है; परंतु इतिहास की अशुद्ध परिकल्पना लोगों के मन को दूषित कर रही है। इतिहास की गति में कोई निश्चित नियम, योजना या आकार प्राप्त नहीं किया जा सकता। आदमी, यदि निष्पक्ष होकर अपनी तमाम यात्राओं के विवरण को शब्दों में समेटे तो यह विवरण इतिहास का अंग हो सकता है और आने वाली पीढि़यों के ज्ञान का स्रोत भी। अब तक अविराम और अविरुद्ध लिखने वाले चंद्रकांत पाराशर ने पहली मर्तबा इस नदी को बांध कर, जिस प्रकार अपने अनुभवों को यात्रा संस्मरणों के रूप में ‘जो मैंने देखा’ नामक अपनी प्रथम पुस्तक में समेटा है; उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। अगर इस पुस्तक को प्रबंध योजना या लेखन का नाम दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने जहां हिमालय की गोद में अवस्थित धार्मिक स्थलों से गुजरते हुए मध्य और दक्षिण भारत की यात्राओं को अनुभूत किया है; वहीं पाबलो पिकासो के कला संसार, इटली की प्राचीन और वर्तमान सभ्यता तथा संस्कृति से दो-चार होते हुए हिमाचल के सीने में मानवीय साहस की अद्भुत मिसाल के रूप में दर्ज आधुनिक अभियांत्रिकी की बेजोड़ मिसाल को शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है, लगता है मानो हम वहीं खड़े होकर स्वयं अपनी आंखों से तमाम स्थलों और कृतियों को निहार रहे हों। उनके शब्दों, कथ्य और शैली का यही प्रमाण उनके तमाम प्रस्तुत इक्कीस लेखों में देखने को मिलता है। कामधेनु परियोजना, सूचना का अधिकार, राजभाषा हिंदी और विश्व हिंदी सम्मेलन पर प्रस्तुत उनके लेख भी उसी खूबसूरती से अल्फाज़ में पिरोए गए हैं, लेकिन उनकी पकड़ के बावजूद ये चारों लेख पुस्तक की सरसता में बाधा खड़ी करते प्रतीत होते हैं। चाहे आध्यात्मिक तरंगों से लबरेज हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला की जाग्रत स्थली मणिमहेश की यात्रा हो, श्रीखंड महादेव कैलाश, किन्नर कैलाश, कश्मीर में बाबा बर्फानी बनकर बैठे भोले शिव हों, बौद्ध धर्म के प्रहर के रूप में शून्य से नीचे तापमान में स्थापित स्पीति घाटी का ताबो मठ हो या फिर किन्नौर की सुंदर-सुरम्य घाटी सांगला, पढ़ते वक्त ऐसा प्रतीत होता है मानो आप इन स्थलों पर स्वयं विचर रहे हों। उनके अन्य लेखों, जिनमें सिंहस्थ महाकुंभ 2016, शनि शिंगनापुर तथा ज्योतिर्लिंग, श्री गिरिराज गोवर्धन, दक्षिणी भारतीय छोर की यात्रा, मनाली और ब्रज के सभी धामों और इटली का सफर शामिल है, में भी पाठकों को ऐसी ही अनुभूति होगी। पाबलो पिकासो के कला संसार से गुजरते हुए पाठक उस लोक में चला जाता है, वहां उसे सुंदरता की परिभाषा का वास्तविक ज्ञान हो सकता है। प्रस्तुत पुस्तक में कुल 21 निबंध हैं, जिन्हें चंद्रकांत पाराशर ने सरल और सहज कथ्य एवं भाषा प्रवाह से रोचक बना दिया है। पुस्तक पठनीय है और पाठक को वर्णित स्थानों पर गए बिना ही अपने दृश्यात्मक विवरण से वहां खींच कर ले जाती है। श्रीसाहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली से मूर्त रूप लेकर उनका यह प्रयास हमारे सामने है। पुस्तक का मूल्य 399 रुपए है और इसे पाठक अपने संग्रह में शामिल कर सकते हैं।

-अजय पाराशर

हिमाचल की आत्मा है हिमाचली भाषा

अशोक दर्द

मो.- 8219575721

पर्वतों की गोद में बसा हिमाचल एक बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषिक प्रदेश है। हिमाचल के विभिन्न जिलों की संस्कृति एवं लोकभाषा पर दृष्टिपात करें तो स्वभावतः भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। परंतु सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो इस भिन्नता में भी समानता निहित है। बेशक शब्दों के उच्चारण में असमानता हो, परंतु निहितार्थ में अधिकांशतः समानता दिखाई देती है। आजादी से पूर्व इसकी रियासतों की भाषा पर दृष्टिपात किया जाए तो सर्वत्र लोकभाषा ही प्रचलन में दिखाई देती है। राजाओं के संधिपत्र हों या शिलालेख या अन्य कोई दस्तावेज, टांकरी लिपि में लिखे पहाड़ी भाषा के शब्दों का ही बाहुल्य मिलता है। पहाड़ी भाषा के कुछ शब्द संस्कृतनिष्ठ हैं। आंशिक परिवर्तन के साथ ये शब्द आज भी यथावत प्रचलन में हैं, बेशक धीरे-धीरे विलुप्तता की ओर बढ़ रहे हैं। आजादी के उपरांत हिमाचल का गठन ही पहाड़ी भाषी क्षेत्रों के आधार पर हुआ था। परंतु हिमाचल के गठन के बाद संभवतः ऐसी भाषा की आवश्यकता थी जो पूरे प्रदेश में बोली व समझी जाती, जिससे पूरा प्रदेश एकता के सूत्र में बंध जाता। अतः इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिंदी को हिमाचल की मुख्य भाषा घोषित किया गया, जबकि उस समय हिंदी को पढ़ने-लिखने, बोलने-समझने वालों की संख्या अधिक नहीं थी। परंतु धीरे-धीरे शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ हिंदी का भी प्रचार-प्रसार होता गया। आज स्थिति यह है कि युवा पीढ़ी में हिंदी पढ़ी-लिखी, बोली-समझी जाती है। आज एक जिले का व्यक्ति दूसरे सुदूर जिले के व्यक्ति से बखूबी संवाद स्थापित कर सकता है। यह हिंदी की उपलब्धि है, परंतु लोक व्यवहार में यदि हम निष्पक्षतः आज भी देखें तो ग्रामीण अंचल में अपनी हिमाचली भाषा ही अधिकतर व्यवहार में लाई जाती है। यह हम हिमाचलियों के लिए गौरव की बात है। भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। हमारी वर्षों की स्थापित लोक मान्यताएं, लोक परंपराएं, लोकाचार, लोकगीत, लोककथाएं- सब इसी भाषा के बूते पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रही हैं और आज भी हो रही हैं। यद्यपि वर्तमान में यह रवानगी संक्रमित व शिथिल होती जा रही है। हमारी संस्कृति की संवाहक भाषा को आज बचाने की आवश्यकता है अन्यथा हमारी हिमाचली पहचान एवं अस्तित्व पर मंडराता खतरा और गहराता जाएगा और हमारी स्वर्णिम संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएगी। व्यवहार में देखें तो हमारी संस्कृति का कुछ हिस्सा दिन-प्रतिदिन कटता व समय की सरिता में बहता जा रहा है, जबकि हमें इसे खोने का भान तक नहीं हो रहा है। आज समय की मांग है कि इस भाषा, जिसे हिमाचली भाषा के नाम से अभिहित किया गया है, को जीवित रखा जाए। इसके लिए अनथक प्रयासों की आवश्यकता है। हिमाचली साहित्यकारों का दायित्व है कि वे अपने सृजन में इसे गरिमापूर्ण स्थान दें। विभिन्न विधाओं में सृजन करके हिमाचली साहित्य को समृद्ध करें। सरकार का दायित्व है कि हिमाचली अस्तित्व को जिंदा रखने की जद्दोजहद में अपनी सशक्त भूमिका निभाए और इसे आठवीं अनुसूची में शामिल करवा कर हिमाचली गौरव को अक्षुण्ण बना दे। स्कूलों व कालेजों में हिमाचली भाषा के साहित्य को भी पढ़ाए जाने की व्यवस्था की जाए। विश्वविद्यालय में हिमाचली के लिए अलग विभाग स्थापित किया जाए। अंत में कहना चाहूंगा कि निःसंदेह हिंदी हिमाचल में फल-फूल अवश्य रही है, परंतु हिमाचल पूर्णतः हिंदी राज्य नहीं हो सकता। इसकी आत्मा में हिमाचली बसती है जो प्रत्येक हिमाचलवासी को मां के द्वारा उसे गोद में ही घुट्टी में पिला दी जाती है। यह व्यावहारिक सत्य है, मेरा ऐसा मानना है।

हिमाचल पूरी तरह हिंदी राज्य नहीं

डा. गौतम शर्मा व्यथित

मो.-9418130860

पंजाब पुनर्गठन कमीशन 1966 की भाषा और संस्कृति के आधार पर पंजाब के पहाड़ी इलाकों को हिमाचल से जोड़ने की सिफारिश थी। पंजाब के पुनर्गठन का निर्णय बिंदु था कि पंजाब क्षेत्रीय समिति के प्रभाव की 1957 की पहली अनुसूची में पंजाबी बोलने वाला एकमात्र पंजाबी प्रांत बने और उस समय के पंजाब प्रांत के हिंदी भाषी इलाके में लगने वाले पहाड़ी क्षेत्र हिमाचल के साथ मिला दिए जाएं। 30 सितंबर 1970 के दिन हि. प्र. विधानसभा में पहाड़ी भाषा को हिमाचल वासियों की मातृभाषा के रूप में मान्यता का प्रस्ताव पास कर हिमाचल कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की स्थापना हुई। इसी वर्ष हिम भारती (पहाड़ी भाषा पत्रिका) शुरू हुई। सन 1973 में हि. प्र. भाषा, कला, संस्कृति विभाग की स्थापना हुई। हिमाचल प्रदेश भाषा, कला, संस्कृति अकादमी ने 7 जुलाई 1975 को एक प्रस्ताव के जरिए हिमाचल को पहाड़ी भाषी राज्य होने करके अहिंदी भाषी प्रांत के रूप में मान्यता दी और इसके लिए सरकार को सुझाव भी दिए। प्रो. नारायण चंद पराशर ने 5वीं लोकसभा में पहाड़ी-हिमाचली भाषा को आठवीं अनुसूची में दर्ज करने का प्रस्ताव रखा जिसे सातवीं लोकसभा में भी दोहराया गया। प्रदेश विधानसभा पटल पर भी यह प्रस्ताव रखा गया जिसे सर्वमत प्राप्त हुआ और केंद्र को संस्तुति भी भेजी। परंतु यह सारी प्रक्रिया समय के साथ दफ्तरी फाइलों में बंद हो गई। संप्रतिकाल में भी हिमाचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाएं इस मांग को दोहरा रही हैं, परंतु राजनीतिक मनसा न होने के कारण यह सब संभव नहीं हो रहा। क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है? इस प्रश्न का उत्तर उपरोक्त तथ्यों की दृष्टि से स्पष्ट है। यह प्रदेश भूगोल तथा जनभाषा की दृष्टि से एक पहाड़ी स्पीकिंग राज्य है। इसके पुनर्गठन के पूर्व यहां की रियासतों में सरकारी दस्तावेज, संधियां आदि टक्करी, टांकरी लिपि में स्थानीय भाषाओं में लिखी मिलती हैं जिनके प्रामाणिक दस्तावेज चंबा तथा शिमला म्यूजियम में देखे जा सकते हैं। पुनर्गठन के समय भी वही क्षेत्र हिमाचल से मिले जिनमें भाषा तथा संस्कृति की एकरूपता इसके समान थी, तभी तो विशाल हिमाचल बना। परंतु पुनर्गठन के समय अंग्रेजी ही राजकाज की भाषा रही, बेशक हिंदी का नाम चलता रहा। सरकार के भाषा विभाग द्वारा भी हिंदी (कार्यालयी हिंदी) को बढ़ावा देने, अधिकाधिक प्रयोग में लाने के भरसक प्रयास शुरू हए, अब भी जारी हैं। परंतु सरकारी कामकाज अधिकांशतः अंगे्रजी में  ही चल रहा है। श्री शांता कुमार जब हिमाचल के मुख्यमंत्री बने तो हिंदी को कार्यालयों में अनिवार्य करने के आदेश हुए। परंतु सत्ता बदलने पर रेल पुनः उसी पटड़ी पर। भारतीय संविधान में हिंदी के प्रति लचीला दृष्टिकोण 73 वर्ष बीतने पर भी हिंदी को वह स्थान नहीं दिला सका जिसकी वह हकदार है। हिमाचल को वास्तव में हिंदी राज्य मानें या पहाड़ी-हिमाचली भाषी प्रांत, विधानसभा इस प्रश्न पर मौन है क्योंकि अंग्रेजी का वर्चस्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आज सरकारी स्कूल का नर्सरी प्राथमिक श्रेणी का छात्र भी अंग्रेजी पढ़-लिख रहा है। साथ ही उसके मम्मी-पापा भी अंगे्रजी बोलने में गर्व महसूस कर अभिजात्य वर्ग में सम्मिलित हो रहे हैं। प्रदेश सरकार ने पंजाबी भाषा को पहले ही तीसरी भाषा मान लिया है। स्कूलों में पढ़ाई भी जा रही है, इच्छा पर। अब संस्कृत को दूसरी भाषा की अधिसूचना जारी हो चुकी है। अब तो कार्यालयों में पत्राचार अंग्रेजी-संस्कृत या संस्कृत-हिंदी में होना अनिवार्य हो रहा है। हिमाचल के पुनर्गठन आधार तथा वर्तमान स्थिति के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट व संवैधानिक रूप से कहना कठिन है कि क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है?

विस्थापन से संवाद करती कहानी

किताब के पन्ने पलटता हूं तो साहित्य की ‘टिटिहरियां’ सहम जाती हैं। उनकी कूक में दर्द और विरह देखकर ठिठक जाता हूं। उनके आसपास के दंभी बगुले और कहीं झील के किनारे पर शोक संगीत में बदलती पानी की लहरें। वास्तव में ‘टिटिहरियां’ में कहानी जब संवाद करती है, तो हिमाचल में विस्थापन की तस्वीर उभर आती है। कहानीकार त्रिलोक मेहरा अपनी पुस्तक ‘अंतिम राय का सच’ सामने रखते हैं, तो संग्रह की कुल बारह कहानियों में ‘टिटिहरियां’ पौंग झील सी गहराई में जमीन को खोजने लगती हैं। अपने पर्यावरण को खोजता परिवेश जब बिखरता है, तो उस दर्द का एहसास ही ‘टिटिहरियां’ है। अब तो झील पर सतर्क सारस उड़ते हैं, लेकिन कहानी आज भी पानी के भीतर डूबे मानवीय व्यथा के समुद्र को अपनी अंजुलि में भर लेती है। इस पर आज तक क्यों कम चर्चा हुई या साहित्य के वर्तमान संवाद में यह कोना क्यों उदास रहा, लेकिन विस्थापन के परिदृश्य में त्रिलोक मेहरा अपने रचनाकर्म को अवश्य ही प्रासंगिक बना देते हैं। कहानी के पात्रों के पास सादगी भरे प्रश्न हैं, तो उजड़ते मंजर के बीच खुद को पाने का संघर्ष है। जिस तरह मानव निर्मित झील में पानी चढ़ा, उसी तरह कहानी का संवेग और स्पर्श यादों में टहल जाता है। विकास की कठोरता में विस्थापन की सौदेबाजी उन पेड़ों से, जो अपनी भरी जवानी के बीच झील में डूब गए। पौंग की महाराणा प्रताप सागर बनने पर कहानी पूछती है, ‘यहां उसने कोई युद्ध नहीं लड़ा लेकिन कई लोगों के गले कट गए। महाराणा लोगों को बसाते हैं या उजाड़ते हैं। हमें भी बताओ।’  विस्थापितों को यह भी मालूम नहीं कि जमीन के मुरब्बे में कितने एकड़ मिलेंगे और वे भी राजस्थान में, जहां जमीन के बजाय रेत की पैमाइश होती है। अपनी मिट्टी से अलग होने तथा विस्थापन की किस्तों में झील चीखती नहीं, अलबत्ता शांत समुद्र सी गहराई में शायद सभ्यता की आंख जब खुलती होगी तो दफन सिसकियों की आहट भी दब जाती होगी। कितने बूढ़ों का संघर्ष, जवानी के सपने और बचपन की किलकारियां निगल गई झील। ‘उखड़े हुए बूढ़े भी हाथ जोड़ते ईश्वर से भीख मांगते हैं, ‘बांध टूट जाए’। वे कहीं नहीं जाएंगे अपनी मिट्टी छोड़कर।’ जगत राम हर सुबह चढ़ आए पानी वाली जगह पर निशान लगाता, सोचता कि उनके घर तक पानी आने में दो वर्ष लग जाएंगे, तब तक यहीं टिके रहेंगे।’ कमजोर हाथों की हजारों दरख्वास्तों को आज भी राजस्थान तक की कसरतों को अपना ही पसीना पौंछ देता है। अधिकार वहीं सूखे हैं, जहां बांध के पानी में उनके घर डूबे हैं। लेखक ने कहानी के मर्म में कहीं इनसानियत को बरगलाते विकास की कंद्राओ के छल-फरेब को ठीक वैसे ही अनावृत्त किया है जैसे जीवन की किश्ती में हारते चप्पू की दास्तान झील के आंचल में बसी यादों की गाद में फंस जाती है। ‘ तलहटियों में खाली पड़े घर, दुकान, मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे और श्मशानघाट सब खुशफहमियों के बीच पानी ने हड़प कर लिए। कच्ची ढलानें डूबने से पहले ढहकर छपाके के शोर के साथ समा जातीं और उठने के इंतजार में बैठे लोग डर जाते।’ कहानी और आगे बढ़ती है और झील के किनारों से समय के अनेक घाव चुन लेती है-जो हमारे अपने हैं।

जिंदगी की सेल्फी में हास्य

अशोक गौतम की नई पुस्तक ‘अभी तो मैं जवान हूं’ हिमाचल में व्यंग्य को आगे ले जाने की मिट्टी तलाश लेती है और एक साथ रूबरू होते  परिदृश्य की मजबूरियों के बीच तमाम अंतर्विरोधों को पेश करने की सहजता भी दिखाई देती है। लेखक राजनीतिक पद्धति के बीच सामाजिक संघर्ष के बौने उद्गार को अपनी आवाज के बड़े दायरे में समाहित करता है, तो ‘यमलोक से फाइल चोरी’ के वृत्तांत में मानव संबोधन के विचित्र युग में प्रवेश करते हुए भी सिस्टम की अवज्ञा, अव्यवस्था में मीडिया जुगाली के लफ्फाज चेहरे को अनावृत्त करने का साहस दिखाता है। आदमी होने की जरूरी शर्त, में आधुनिक युग की विसंगतियों के पास पहुंचे जीवन को परिचय से मोहताज होना पड़ रहा है, तो बुद्धिजीवी होने का मेकअप, मुखौटे और बाजारवाद की डिमांड पर अड़े रहने का जिक्र ‘बुद्धिजीवी मेकर’ में होता है। गौतम के व्यंग्य की खासियत में भाषा और परिवेश आसपास आते हुए एक-दूसरे के पूरक बन रहे हैं, तो कुछ में शीर्षक का चुंबक विषय को आकर्षित कर लेता है। इनसानी फितरत के जंगल में ‘यमराज! मुझे फेसबुक से बचाओ’ में यथार्थ से नजरें मिलाने के बजाय जीवन को प्रगतिशील दिखाने की होड़ में कमोबेश हर पाठक शरीक हो जाता है। जिंदगी की सेल्फी में लेखक ने हम सभी को उतारा है, तो सच-झूठ के ढकोसलों में आस्था के दीप भी कैसे अंधे हो जाते हैं-‘धुएं का नया लॉट’ में पढ़ें। यहां भगवान की घबराहट है, तो इनसान के पैबंदों में तमाम परंपराएं मुंह छिपाकर रूढि़यों के फासीवादी आलिंगन में कैद हैं। सरकारी कार्य संस्कृति के विषाद में व्यंग्य की उत्पत्ति ‘चलो हरामपना करें!’ के जरिए होती है। सरकारी नौकरी का लट्टू किस कद्र घूमता है और सरकारी नखरों की चाशनी में डूबकर कर्मचारियों का रीढ़विहीन होना देखा जा सकता है। सरकारी नमक की कमी के कारण नमकहरामी का किस्सा यूं बनता है, ‘दफ्तर में सदा कामचोर बनें। हरामपने में तरक्की के लिए इससे बड़ा आलम्बन और कोई नहीं।’ किताब ‘अभी तो मैं जवान हूं’ के शीर्षक को सार्थक करते हुए राजनीति और व्यवस्था के बीच लेखक ने आम नागरिक के टूटते जज्बात, हारते आक्रोश और लुटते विश्वास को व्यंग्य की लाठी से चलना सिखाया है। नेताओं की योग्यता के ताने-बाने में ‘आधा नंबर पूरा गम’ बताता है कि किस तरह राजनीति अब चमकता ध्ांधा है और इस पर तब सोने पे सुहागा होता है जब ‘कोई मंच से फेंकता है, तो कोई प्रपंच से।’ फेंकू प्रवृत्ति को नापते-नापते ‘चल, लोकतंत्र मजबूत कर’ के मंत्र में अपनी जाति वाले से वोट सुनिश्चित किए जाते हैं, तो दूसरी जात धर्मवालों से लोकतंत्र की इज्जत बचाने का प्रचार मौन धारण किए भी हो जाता है। चुनावी गर्मी में अपशब्दों की अमानत को ढोते लोकतंत्र की व्यथा, ‘अंतिम चरण में गालियां’, ‘ ये बकना कब बंद होगा सर जी’ और ‘गालियों पर तालियों के दिन’ आदि विषयों के तहत आचार संहिता को फांसी पर लटकाते स्टार प्रचारकों के हुजूम को पढ़ पाना स्वाभाविक हो जाता है। हमारे आसपास की वास्तविक अनुभूतियों को व्यंग्य की कलम से जीते अशोक गौतम खुद से साक्षात्कार करते हैं और त्रासद स्थितियों के बीच हास्य के रस में सराबोर दिखाई देते हैं।

– निर्मल असो


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