हिंदी हमारे आस्तीन तक
रोजगार के खंभे पर फिसलती हिंदी की करवटें यूं तो साल भर जोर आजमाइश करती हैं, लेकिन भाषाई बिंदुओं पर देश का अभिजात्य वर्ग बढ़ गया है। हिमाचल जैसे राज्य को हिंदी कहना आसान है, लेकिन हिंदी में कहना आसान नहीं। इसलिए हिंदी के मुकाम पर काबिज हिमाचल की दरियादिली ने अपने अस्तित्व के भाषाई आंदोलन को कुंद जरूर किया, वरना बोलियों के आदान-प्रदान में अपनी भी एक हिमाचली भाषा होती। राज्य की भाषा के नाम पर वर्ग बनकर तन गए कुछ तथाकथित लेखक पहाड़ी गायकों से सीखें कि किस तरह शब्द और वाणी जब राज्य का प्रतिनिधित्व करती है, तो अर्थ कहीं रुह से निकलते हैं। इसलिए आज सिरमौर, शिमला और कुल्लू की नाटियां प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का साझापन स्थापित करती हैं। इसी तरह कांगड़ी संगीत अब गदियाली संस्कृति का पहरेदार बन रहा है, तो मसला किसी बोली को समूह में देखने का न रहकर, सांस्कृतिक विशालता की कहावतों का स्वीकृत पहलू बन रहा है। बेशक राष्ट्रभाषा को लेकर हिमाचल के राष्ट्रीय सरोकारों का कोई दूसरा उदाहरण देश में नहीं मिलेगा, लेकिन अपने अस्तित्व की बात को अपने शब्दों में कहने का साझापन पैदा नहीं हुआ। आज का हिमाचल अगर पूर्ण हुआ, तो इसके पीछे पर्वतीय परंपराओं, सांस्कृतिक विरासत व भाषाई बिंदुओं का एक सतह पर आपसी स्पर्श और स्पंदन रहा है, लेकिन इसके राजनीतिक कारण कहीं अधिक समझे गए। जब एक-एक रियासत मिलकर हिमाचल को बना रही थी या पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र अपने होने का सबूत हिमाचल में समाहित होकर पा रहे थे, तो क्या इन संदर्भों की मिट्टी से हिंदी भाषी प्रदेश उग रहा था या पर्वत की अभिव्यक्ति को एक साझी भाषा का सेतु मिला रहा था। क्या हिमाचली बोलियों के हकदार यहां के साहित्यकार हैं या वे साधारण नागरिक जो कांगड़ा तक गायक कुलदीप शर्मा के शिमला अंचल से निकले संगीत में खुद को प्रासंगिक पाते हैं। कुलदीप शर्मा अगर कांगड़ा की बडि़यों का तुड़का अपने गायन की विविधता में अपनाते हैं, तो यह हिमाचली भाषा की पूर्णता तथा सांस्कृतिक रिश्तेदारी है। सिरमौर व कुल्लू के कई गायकों ने अपने गीत-संगीत को प्रदेश की भाषा बना दिया है, तो उन शब्दों के चयन को देखिए, जो मंडी, बिलासपुर से चंबा तक स्वीकार्य हैं। ऐसे में हिमाचली भाषा के प्रति सबसे पहले स्वीकार्यता का गठबंधन होना चाहिए तथा लेखन की सार्थकता में इसे प्रदेश की काबिलीयत में स्थान मिलना चाहिए। आरंभिक दौर में हिमाचल का होना अपने नेतृत्व की हिमाचली भाषा खोज रहा था, लेकिन हिंदी राज्य का तमगा पहनकर प्रदेश ने अपनी जड़ों की पहचान खो दी। न हिंदी राज्य के मूल्यांकन में हिमाचल का लेखक समुदाय खुद को अधिकृत कर पाया और न ही बोलियों के समुदाय से हिमाचल का भाषाई समुदाय पनप सका। इसके विपरीत आरंभिक दौर में हिमाचल की भौगोलिक परिस्थितियां बोलियों के संगम पर जहां हमें खड़ा कर रही थीं, उस आधार पर भी बंटवारा हो गया। हिमाचली भाषा के अस्तित्व के बजाय सियासी अस्तित्व ने पूरे आंदोलन को ही क्षेत्रवाद में विभाजित कर दिया। हिंदी के एकाधिकार में भाषा विभाग भी अपनी सृजनात्मक शक्ति को बटोर कर व्यक्ति केंद्रित हो गया, लिहाजा पर्वतीय बोलियों की उत्कर्ष सीमा पर हिमाचली भाषा का आधार पैदा नहीं किया गया। हिमाचल के वर्तमान स्वरूप तथा राष्ट्रीय परिचय में अपनी जुबान का जिक्र जब तक हिमाचली भाषा में नहीं होता, तब तक हमारा सांस्कृतिक बोध कमजोर ही रहेगा। दूसरी ओर हिमाचली समाज अपने व्यवहार और बच्चों के भविष्य की दरकार में अंग्रेजी पोषित वातावरण को अहमियत दे रहा है, तो हिंदी राज्य की प्रेरणा और प्रवृत्ति औचित्यहीन होकर रह गई प्रतीत होती है।
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