जनसंख्या की हो राष्ट्रीय नीति
जनसंख्या विस्फोट एक राष्ट्रीय चिंता है। उसे राज्य या पंचायत तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। 2021 जनगणना वर्ष है। फिलहाल भारत की आबादी 137 करोड़ से अधिक है और इसकी वृद्धि दर करीब 2.6 फीसदी है। यानी हर साल करीब 2.5 करोड़ बच्चों का जन्म…! नई जनगणना के बाद जनसंख्या का आंकड़ा 140 करोड़ को पार कर सकता है। इतनी आबादी के लिए खाद्यान्न, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, आवास और सरकारी विकास के संसाधन कहां से आएंगे? क्या हमारी आबादी का एक हिस्सा लावारिस, बीमार, अनपढ़, भिखमंगा ही रहेगा? क्या अपने ही नागरिकों को ऐसी अभिशप्त स्थितियों में छोड़ा जा सकता है? यदि नहीं, तो जनसंख्या विस्फोट राष्ट्रीय सरोकार और चिंता है। इस पर यथाशीघ्र नियंत्रण पाना अनिवार्य है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश का जो आह्वान किया था, उसमें जनसंख्या विस्फोट को ‘राष्ट्रीय संकट’ करार दिया था। छोटे परिवार वालों की उन्होंने सराहना की थी कि वे बच्चे के परिवार में आगमन से पूर्व ही अपने संसाधनों का आकलन कर लेते हैं। यह सरोकार और चिंता असम राज्य तक ही सीमित नहीं है और न ही उससे समस्या का बुनियादी समाधान हासिल किया जा सकता है। असम विधानसभा ने बीते दिनों एक प्रस्ताव पारित किया था कि एक जनवरी, 2021 से सरकारी नौकरी के लिए वे ही पात्र होंगे, जिनके दो बच्चे हैं। अधिक बच्चे पैदा करने पर नौकरी भी नहीं रहेगी। ये स्थितियां एक जनवरी, 2021 के बाद ही लागू होंगी। असम से पहले गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड आदि राज्यों में पंचायत स्तर पर दो बच्चों की नीति लागू की जा चुकी है। केंद्र में वाजपेयी सरकार ने भी जनसंख्या नियंत्रण पर एक नीति की घोषणा की थी और भैरोसिंह शेखावत को एक कमेटी का अध्यक्ष भी बनाया गया था। वह नीति राष्ट्रीय विकास परिषद में भी प्रस्तुत की गई, लेकिन अंततः उसे पारित नहीं किया जा सका। राष्ट्रीय विकास और राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठकें उसके बाद भी हुई होंगी, लेकिन राजनीतिक नारे से आगे बात नहीं बढ़ सकी। परिवार नियोजन कार्यक्रम 1949 और 1952 में ही शुरू किए जा चुके थे। हम आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी के अभियान को सकारात्मक नहीं मानते। अलबत्ता 1977 में जनता पार्टी सरकार के दौरान जनसंख्या नीति बनाई गई और परिवार नियोजन को ‘स्वैच्छिक’ रखा गया, लेकिन अब 2019 तक आते-आते आबादी के आंकड़े काबू से बाहर हो गए हैं। ऐसे माहौल में असम ने प्रस्ताव पारित कर इस मुद्दे को एक बार फिर गरमा दिया है। विपक्ष इसे ‘हिंदू-मुसलमान’ से जोड़ कर देख रहा है, लिहाजा इसका विरोधी है। असम से ही ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के अध्यक्ष एवं लोकसभा सांसद बदरुद्दीन अजमल ने कहा है कि मुसलमान जितने चाहें, उतने बच्चे पैदा करें, क्योंकि इस्लाम में बच्चे बनाने पर पाबंदी नहीं है। उन्होंने गंभीर आरोप लगाया कि सरकारें मुसलमान को नौकरी तो नहीं देती हैं, लिहाजा बच्चों के रूप में वर्क फोर्स खड़ी करने में दिक्कत क्या है? ऐसी सोच वाले राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए ही जनसंख्या पर राष्ट्रीय नीति पारित करना अनिवार्य है। अजमल की पार्टी के ही एक विधायक ने यहां तक बयान दिया था कि हिंदू कम होते जा रहे हैं। अब हम मुसलमान एजेंडा तय करेंगे, अटैक करेंगे। दिलचस्प है कि इरान सरीखे मुस्लिम देश में दो बच्चों की नीति है। चीन और वियतनाम कम्युनिस्ट देश हैं, लेकिन दो बच्चों की नीति का ही पालन कर रहे हैं। चीन में तो कई सालों तक एक बच्चा नीति ही सख्ती से लागू की गई। दुनिया के किसी भी देश की आबादी की बढ़ोतरी दर भारत जितनी नहीं है। बेशक 2019 में ही नई सरकार बनने के बाद संसद में इस आशय का बिल पेश किया गया, लेकिन उसका पारित होकर राष्ट्रीय नीति बनाया जाना अभी शेष है।